धूमकेतुओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है यह कैसे सिद्ध हुआ है? Dhumketuon ko apni jaan se haath dhona padta hai yeh kaise siddh hua hai
धूमकेतु अंतरिक्ष में घूमने वाले ऐसे पिंड होते हैं जिनकी अपनी निश्चित परिक्रमा-पथ (कक्षा) होती है। ये सूर्य के चारों ओर घूमते रहते हैं। कुछ धूमकेतुओं की कक्षा बहुत बड़ी होती है और उन्हें सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं। वहीं कुछ की कक्षा बहुत छोटी होती है और वे कुछ ही वर्षों में सूर्य का चक्कर पूरा कर लेते हैं।
उदाहरण के लिए – हेली का धूमकेतु लगभग 75–76 वर्षों में सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है। यह लंबे समय तक सुरक्षित रूप से दिखाई देता है। लेकिन जिन धूमकेतुओं की परिक्रमा केवल 3 से 10 साल की होती है, वे सूर्य के अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण बल और उष्मा (heat) की वजह से ज्यादा समय तक टिक नहीं पाते। उनकी बर्फ और गैस जल्दी-जल्दी पिघलती और उड़ जाती है, जिससे वे नष्ट हो जाते हैं।
इसी बात को सिद्ध करने के लिए वैज्ञानिकों ने विएला के धूमकेतु (Biela’s Comet) का अध्ययन किया। यह धूमकेतु लगभग 7 साल में सूर्य का चक्कर लगाता था।
इसे सन् 1832 और 1839 में देखा गया था।
सन् 1845 में वैज्ञानिक इसकी दोबारा प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन तब पता चला कि यह धूमकेतु दो टुकड़ों में बंट चुका है।
धीरे-धीरे ये दोनों टुकड़े एक-दूसरे से दूर होते चले गए।
अंत में सन् 1872 में खगोलविदों ने देखा कि जहाँ पर इस धूमकेतु को आना चाहिए था, वहाँ से अचानक उल्काओं (meteors) की वर्षा होने लगी।
इस घटना से यह स्पष्ट हुआ कि जब कोई धूमकेतु सूर्य के पास आते-जाते समय अपनी संरचना खो देता है, तो वह विखंडित होकर टूट जाता है और उसके टुकड़े अंतरिक्ष में बिखरकर उल्कापिंड (shooting stars) के रूप में धरती पर गिरते हैं।
इस प्रकार वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया कि –