काशी से बिस्मिल्ला खाँ के लगाव को अपने शब्दों में लिखिए ।। ‘बिस्मिल्ला खाँ हिन्दू-मुस्लिम एकता के परिचायक हैं’ ‘नौबतखाने में इबादत’ पाठ के आधार पर इस कथन पर अपने विचार प्रकट कीजिए ।। बिस्मिल्ला खाँ के जीवन पर गंगा-जमुनी तहजीब का क्या असर रहा है
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का जीवन भारतीय संस्कृति की उस अद्वितीय गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है, जिसने देश की पहचान को और गहरा किया है। उनका व्यक्तित्व केवल एक महान शहनाई वादक का नहीं था, बल्कि वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के सच्चे परिचायक भी थे।
बचपन में जब वे अपने मामा के साथ काशी आए तो उन्हें संगीत की दुनिया ने अपनी ओर आकर्षित किया। रसूलनबाई और बतूलनबाई की गायकी, काशी की गलियाँ, घाट और मंदिरों की गूँज ने उनके हृदय में संगीत का बीज बो दिया। यहीं से उनकी साधना आरंभ हुई। नौबतखाने में बैठकर घंटों रियाज करना उनकी दिनचर्या बन गई। उनके अनुसार, काशी केवल रहने की जगह नहीं थी, बल्कि वह उनके जीवन और साधना का केंद्र थी।
बिस्मिल्ला खाँ का काशी से लगाव केवल स्थान तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक गहरे आध्यात्मिक भाव से जुड़ा हुआ था। वे मानते थे कि जिस मिट्टी ने उन्हें तालीम दी, जहाँ से संगीत और आदब मिला, उस काशी से बढ़कर उनके लिए कोई और जगह नहीं। वे अक्सर कहते—“ई काशी छोड़कर कहाँ जाएँ? गंगा यहाँ, बाबा विश्वनाथ यहाँ, बालाजी का मंदिर यहाँ। मरते दम तक न शहनाई छूटेगी, न काशी।” यह कथन उनके हृदय की गहराई और काशी के प्रति अटूट श्रद्धा को प्रकट करता है।
बिस्मिल्ला खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ और बालाजी मंदिर के प्रति उतनी ही गहरी थी, जितनी उनके मजहब के प्रति। वे जब कहीं बाहर रहते थे तो विश्वनाथ मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके शहनाई बजाते थे। इससे यह सिद्ध होता है कि उनके लिए संगीत इबादत था और इबादत मजहबी दीवारों से परे होती है।
उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि संगीत और संस्कृति लोगों को जोड़ने का काम करती है। काशी में जब भी संगीत महोत्सव होता, पाँच दिनों तक चलने वाले उस आयोजन में बिस्मिल्ला खाँ की उपस्थिति अनिवार्य होती। वहाँ शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन-वादन की अद्भुत परंपरा का वे हिस्सा बने। उन्होंने स्वयं को इस परंपरा से जोड़ा और उसे विश्व पटल पर पहुँचाया।
बिस्मिल्ला खाँ का जीवन गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल है। काशी में जैसे बाबा विश्वनाथ और वे एक-दूसरे के पूरक थे, वैसे ही मुहर्रम का तजिया और होली की अबीर-गुलाल भी साथ-साथ चलते थे। उन्होंने हमेशा कौमों को भाईचारे और आपसी मेलजोल से रहने की प्रेरणा दी। उनका मानना था कि संगीत और इंसानियत की कोई जाति या धर्म नहीं होता।
निष्कर्षतः, बिस्मिल्ला खाँ का जीवन इस बात का प्रतीक है कि जब इंसान दिल से इंसानियत और कला को अपनाता है तो वह हर तरह की सीमाओं से ऊपर उठ जाता है। काशी और शहनाई उनके लिए जन्नत से कम नहीं थे। उन्होंने गंगा-जमुनी संस्कृति, हिन्दू-मुस्लिम एकता और भारतीय संगीत परंपरा को विश्वभर में प्रतिष्ठित किया। उनके व्यक्तित्व और साधना से यही शिक्षा मिलती है कि प्रेम, भाईचारा और संस्कृति ही सच्ची इबादत है।
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