मुहर्रम से बिस्मिल्ला खाँ के लगाव को अपने शब्दों में लिखें।। मुहर्रम से विस्मिल्ला खाँ के जुड़ाव को अपने शब्दों में लिखिए।

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बिस्मिल्ला खाँ का मुहर्रम पर्व से गहरा और विशेष जुड़ाव था। मुहर्रम के महीने में शिया मुसलमान शोक मनाते थे, और इसी कारण उनके खानदान के लोग पूरे दस दिनों तक संगीत से दूर रहते थे। इस दौरान कोई भी सदस्य न तो शहनाई बजाता और न ही किसी संगीत कार्यक्रम में भाग लेता। बिस्मिल्ला खाँ के लिए मुहर्रम का पर्व केवल एक धार्मिक अवसर नहीं था, बल्कि यह उनके जीवन और संगीत की साधना का एक गहन आत्मिक अनुभव भी था।

खासकर मुहर्रम की आठवीं तारीख उनके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती थी। इस दिन वे खड़े होकर शहनाई बजाते और दालमंडी से फातमान तक लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पैदल चलते हुए नौहा बजाते थे। उनके शहनाई वादन में राग-रागिनियों का प्रभाव नहीं होता था, बल्कि इसमें केवल इमाम हुसैन और उनके परिवार की शहादत के प्रति शोक और संवेदना झलकती थी। इस दौरान उनकी आँखें नम रहतीं और उनका स्वर करुणा, श्रद्धा और भावुकता से ओतप्रोत होता।

मुहर्रम के दस दिनों में बिस्मिल्ला खाँ और उनके खानदान का कोई भी सदस्य संगीत के किसी प्रकार के आनंद या उल्लास में नहीं भाग लेता था। यह प्रतिबद्धता उनके धार्मिक विश्वास, परंपरा और सामाजिक संवेदनशीलता को दर्शाती थी। उनके लिए शहनाई केवल एक वाद्ययंत्र नहीं थी, बल्कि वह एक माध्यम थी जिसके द्वारा वे अपनी भावनाओं, श्रद्धा और सम्मान को व्यक्त करते थे।

इस प्रकार, मुहर्रम का पर्व बिस्मिल्ला खाँ के जीवन में केवल धार्मिक और सामाजिक महत्व नहीं रखता था, बल्कि यह उनके संगीत और आत्मा का एक गहन प्रतीक बन गया। उनके जुड़ाव से स्पष्ट होता है कि उन्होंने अपने संगीत को सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं माना, बल्कि इसे श्रद्धा और करुणा की अभिव्यक्ति के लिए उपयोग किया। यही कारण है कि मुहर्रम और शहनाई के माध्यम से उनका व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन एक अद्वितीय मिश्रण प्रस्तुत करता है।

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