भारतवर्ष कविता का Question Answer Class 7 ॥ Bharatvarsh Kavita Ka Question Answer

भारतवर्ष कविता का Question Answer Class 7 ॥ Bharatvarsh Kavita Ka Question Answer

भारतवर्ष कविता का Question Answer Class 7 ॥ Bharatvarsh Kavita Ka Question Answer

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय

जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 ई० में उत्तर प्रदेश के वाराणसी (काशी) नगर में एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवनारायण प्रसाद था, जो सुप्रसिद्ध तम्बाकू व्यवसायी थे। प्रसादजी को प्रारंभिक शिक्षा घर पर तथा विद्यालय में मिली, परंतु आर्थिक और पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उनकी औपचारिक शिक्षा सातवीं कक्षा तक ही हो सकी। इसके बाद उन्होंने स्वअध्ययन द्वारा संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेज़ी और बंगला भाषाओं का गहन अध्ययन किया।

जयशंकर प्रसाद का जीवन अनेक घरेलू विपत्तियों और दुखों से भरा रहा, किंतु उन्होंने अपने अध्ययन, चिंतन और साहित्य सृजन को कभी नहीं छोड़ा। उन्हें जन्म से ही कवित्व प्रतिभा प्राप्त थी। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ, परिष्कृत और साहित्यिक होते हुए भी अत्यंत सरल और भावपूर्ण है।

प्रसादजी को हिन्दी साहित्य में छायावाद का प्रवर्तक कवि माना जाता है। वे केवल कवि ही नहीं, बल्कि नाटककार, उपन्यासकार और कहानीकार भी थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे, जिनकी रचनाओं में देशप्रेम, मानवता, सौंदर्यबोध और प्रेमभावना का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है।

उनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं – आँसू, लहर, झरना, कामायनी और महाराणा का महत्त्व
प्रमुख नाटकस्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी और जनमेजय का नागयज्ञ
कहानी संग्रहछाया, प्रतिध्वनि, इन्द्रजाल, आंधी, आकाशदीप
उपन्यासकंकाल, तितली, इरावती

प्रसादजी की रचनाओं में प्रकृति, मानवता और राष्ट्रभावना का अद्भुत संगम दिखाई देता है। उनकी रचना कामायनी को हिन्दी का महाकाव्य कहा जाता है, जिसमें मानव जीवन के संघर्ष, प्रेम, ज्ञान और भावना का गहन चित्रण है।

सन् 1937 ई० में जयशंकर प्रसाद जी का निधन हो गया। उनकी मृत्यु से हिन्दी साहित्य जगत ने एक महान कवि और विचारक को खो दिया।

भारतवर्ष कविता का व्याख्या ॥  भारतवर्ष कविता का भावार्थ

1. हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार,
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार।
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक,
व्योम तम पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक।।

शब्दार्थ :

किरण – रश्मि
व्योम – आकाश
उपहार – भेंट
आँगन – प्रांगण
हीरक – हीरा
किरणों का उपहार – ज्ञान का प्रकाश
संसृति – संसार, सृष्टि
हम – भारतवासी
तम पुंज – अंधकार का समूह
आलोक – प्रकाश
अखिल – संपूर्ण, समस्त
अशोक – शोक रहित, खुश
उषा – प्रभात, अरुणोदय

संदर्भ :

प्रस्तुत अंश ‘भारतवर्ष’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग :

इस अंश में कवि ने भारत के गौरवपूर्ण अतीत का वर्णन किया है। कवि बताते हैं कि सर्वप्रथम भारत भूमि से ही ज्ञान और विज्ञान का प्रकाश सम्पूर्ण संसार में फैला। यहाँ की संस्कृति, सभ्यता और विद्या ने पूरे विश्व को आलोकित किया। कवि अपने देश के इस उज्ज्वल इतिहास पर गर्व व्यक्त करते हुए भारत के पुनः उसी गौरव को प्राप्त करने की प्रेरणा देता है।

व्याख्या :

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि बताते हैं कि सबसे पहले भारत में ही ज्ञान का प्रकाश फैला। हिमालय की गोद में ज्ञान रूपी सूर्य का उदय हुआ और प्रकृति ने उसका स्वागत किया। भारत देश सबसे पहले ज्ञान की ज्योति से जगमगा उठा। भारतवासियों ने जब ज्ञान प्राप्त किया, तो उन्होंने पूरे संसार में इसका प्रकाश फैला दिया। इस ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का अंधकार मिट गया और संपूर्ण विश्व में प्रसन्नता व सुख का वातावरण छा गया।

2. विमल वाणी ने वीणा ली, कोमल-कमल-कर में सप्रीत।
सप्तस्वर सप्तसिन्धु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम संगीत।
बचाकर बीज-रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत।
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत।।

शब्दार्थ :

विमल – स्वच्छ, निर्मल
वाणी – सरस्वती
कर – हाथ
सम्रीत – प्रेमपूर्वक
सप्तस्वर – संगीत के सात स्वर
वरुण पथ – जल मार्ग
साम संगीत – साम वेद का संगीत
सृष्टि – संसार
प्रलय – सर्वनाश
अरुण केतन – लाल पताका
सप्त सिन्धु – सप्त सैन्धव प्रदेश
अभीत – निडर

संदर्भ :

प्रस्तुत अंश ‘भारतवर्ष’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग:

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने भारत की महानता का वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि माँ सरस्वती ने यहीं संगीत की रचना की और मनु ने प्रलय के समय सृष्टि की रक्षा कर विश्व को जीवन, प्रेम और सद्भाव का संदेश दिया।

व्याख्या :

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि बताते हैं कि ज्ञान की देवी माँ सरस्वती ने सबसे पहले अपने कोमल कमल जैसे हाथों में वीणा लेकर संगीत की रचना की। उनकी वीणा से निकलने वाले सातों स्वर सबसे पहले भारत (आर्यावर्त) की भूमि पर गूँजे। संगीत के मूल ग्रंथ सामवेद की रचना भी यहीं हुई। इसी देश में सामवेद के मधुर स्वर सबसे पहले सुनाई दिए। जब प्रलय के समय पूरी धरती जलमग्न हो गई थी, तब भारत के मनु ने सृष्टि को बचाया। वे नाव पर बैठकर ठंडी लहरों को सहते हुए नए जीवन की शुरुआत के रक्षक बने। हमारे पूर्वज भारतवासी स्वदेश का लाल झंडा उठाकर जल मार्गों से संसार को प्रेम और सद्भाव का संदेश देने निकले।

3. सुना है दधीचि का वह त्याग, हमारा जातीयता-विकास।
पुरन्दर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरे इतिहास।
सिन्धु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह।
दे रही अभी दिखायी भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह ।।

शब्दार्थ :

जातीयता – जाति का भाव, गुण
निर्वासित – निकाला हुआ (राम)
पवि – वज्र
अस्थि – हड्डी
राह – रास्ता, मार्ग
पुरन्दर – इन्द्र
उत्साह – जोश
भग्न – डूबे हुए
रत्नाकर – समुद्र
भग्न-खण्डहर – टूटे हुए महल या भवन के अवशेष

संदर्भ :

प्रस्तुत अंश ‘भारतवर्ष’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग: 

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने भारत के महान ऋषियों और वीरों के त्याग, साहस और पराक्रम का वर्णन किया है। उन्होंने महर्षि दधीचि के अस्थिदान और भगवान राम के असीम उत्साह को राष्ट्र की महान परंपरा का प्रतीक बताया है।

व्याख्या:

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि बताते हैं कि महर्षि दधीचि एक महान ऋषि थे। जब देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ, तब असुरों के सेनापति वृत्रासुर को मारने के लिए इन्द्र ने महर्षि दधीचि से उनकी हड्डियों का दान माँगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियाँ दान कर दीं। उन्हीं अस्थियों से बने वज्र से इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया। दधीचि का यह अस्थिदान त्याग और बलिदान की अद्भुत मिसाल है, जो हमारे राष्ट्र के महान गुणों को दर्शाता है।
कवि आगे कहते हैं कि जब भगवान राम वनवास में थे, तब भी उनका उत्साह सागर की तरह असीम था। रावण का विनाश करने के लिए उन्होंने समुद्र पर पत्थरों का पुल (सेतु) बनवाकर लंका पर चढ़ाई की थी। आज भी उस सेतु के कुछ अवशेष समुद्र में दिखाई देते हैं, जो उनके साहस और पराक्रम के प्रतीक हैं।

4. धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि, कर दी बन्द।
हमीं ने दिया शान्ति-सन्देश, सुखी होते देकर आनन्द।
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।।

शब्दार्थ :

बलि – वह पशु जो किसी देवता के निमित्त मारा जाए
भिक्षु – संन्यासी
धूम – प्रसिद्धि
सम्राट – महाराजाधिराज
आनंद – खुशियाँ

संदर्भ :

प्रस्तुत अंश ‘भारतवर्ष’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग: 

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने भारत की अहिंसा, करुणा और धर्मपरायणता का वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि भगवान बुद्ध, महावीर और सम्राट अशोक ने हिंसा त्यागकर प्रेम, सत्य और मानवता का संदेश देकर भारत की महान संस्कृति स्थापित की।

व्याख्या :

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि बताते हैं कि प्राचीन समय में यज्ञों के दौरान देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पशुओं की बलि दी जाती थी। यह प्रथा धर्म के नाम पर प्रचलित थी। लेकिन भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने अपने उपदेशों के माध्यम से इस हिंसक प्रथा को बंद करवाया। भारत ने पूरे विश्व को प्रेम, शांति और अहिंसा का महान संदेश दिया। हम भारतवासी हमेशा दूसरों को आनंद और सुख देने में विश्वास रखते थे और स्वयं भी इसी से प्रसन्न रहते थे।
कवि आगे कहते हैं कि हम लोग तलवार और युद्ध के बल पर विजय पाने में विश्वास नहीं करते थे, बल्कि धर्म, करुणा और सत्य के प्रचार से ही अपनी कीर्ति स्थापित करते थे। यही कारण है कि सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाकर भिक्षु का रूप धारण किया और घर-घर जाकर दया, करुणा और मानवता का उपदेश दिया।

5. यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।
हमारी जन्म भूमि थी यहीं, कहीं से हम आये थे नहीं ।।

शब्दार्थ :

यवन – यूनान के निवासी
स्वर्ण – सोना
भूमि – वर्मा, सुमात्रा
रत्न – मणि
पालना – झूला
शील – उत्तम स्वभाव, आचरण
सृष्टि – संसार

संदर्भ :

प्रस्तुत अंश ‘भारतवर्ष’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग:

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने भारत की महानता और परोपकारिता का वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने युद्ध में दया दिखाई और अन्य देशों को ज्ञान, धर्म और संस्कार की शिक्षा दी, साथ ही आर्यों की मूल उत्पत्ति भारत को बताया।

व्याख्या:

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि बताते हैं कि भारतवर्ष के सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने युद्ध में यवन सेनापति सेल्युकस को हराकर उसकी जान बचाई और दया दिखाई। उन्होंने चीन को धर्म का, वर्मा और सुमात्रा को ज्ञान, दर्शन और चरित्र की शिक्षा दी तथा लंका को शील और संस्कार की शिक्षा दी। भारतीयों ने कभी किसी देश या जाति से बलपूर्वक कुछ प्राप्त नहीं किया।
कवि आगे कहते हैं कि हमारा देश प्राकृतिक सौंदर्य, शोभा और सुषमा से भरा हुआ है। हम भारतीय इसी देश के मूल निवासी हैं और आर्यों की संतान हैं। यह कथन कि आर्य कहीं बाहर से आए, गलत और भ्रमपूर्ण है। आर्यों का मूल देश भारत ही है, हम कहीं बाहर से नहीं आए थे।

6. जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ झड़ीं प्रचण्ड समीर ।
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।
चरित के पूत, भुजा में शक्ति, नप्रता रही सदा सम्पन्न ।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।

शब्दार्थ :

उत्थान – प्रगति
पतन – विनाश
पूत – पवित्र
नम्रता – विनय
गौरव – बड़प्पन, आदर
विपन्न – दुःखी
प्रचंड – उग्र, भयंकर
समीर – हवा
गर्व – स्वाभिमान
सम्पन्न – धनी, परिपूर्ण

संदर्भ :

प्रस्तुत अंश ‘भारतवर्ष’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग:

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने भारतवासियों के साहस, धैर्य और विनम्रता का वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि विपत्तियों और आक्रमणों के बावजूद वे वीर, स्थिर और परोपकारी बने रहे।

व्याख्या : 

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि बताते हैं कि हमारे देश में समय के साथ कई जातियाँ विकसित हुईं, लेकिन कुछ समय बाद वे समाप्त भी हो गईं। इस देश पर कई बार विदेशी लुटेरों और विजेताओं ने आक्रमण किया, धन और विजय की लालसा रखते हुए। हमने अशांति, संकट और युद्ध जैसी कठिन परिस्थितियों का सामना किया। वीर भारतवासी इन भयंकर संकटों का डटकर सामना करते रहे, हमेशा हँसते और साहस बनाए रखते हुए। वे कभी नहीं डरे और हमेशा स्थिर और वीर बने रहे।
कवि आगे बताते हैं कि हम प्रलय जैसी बड़ी विपत्तियों से भी पार पा चुके हैं। हमारा चरित्र पवित्र था और शरीर में शक्ति भी थी, फिर भी हम अत्यंत विनम्र और शालीन बने रहे। हमारे हृदय में स्वाभिमान था और हम किसी की कठिनाई या अभाव को देखकर दुखी होते थे। साथ ही, हम सेवा और परोपकार की भावना से परिपूर्ण थे।

7. हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव ।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा मान ।
वही है शान्ति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-सन्तान ।
जिएँ तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।

शब्दार्थ :

संचय – संग्रह
वचन – वाणी
टेव – हठ, दृढ़ता
अभिमान – गर्व
निछावर – उत्सर्ग
अतिथि – मेहमान
प्रतिज्ञा – प्रण, शपथ
दिव्य – भव्य, अलौकिक
हर्ष – खुशी, आनंद
सर्वस्व – सब कुछ

संदर्भ :

प्रस्तुत अंश ‘भारतवर्ष’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग:

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने भारतवासियों के सत्य, परोपकार और साहस का वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि हमारा जीवन अपने देश की सेवा में समर्पित होना चाहिए, और हमें अपने तन, मन और धन से भारत की भक्ति करनी चाहिए।

व्याख्या:

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि बताते हैं कि हम भारतवासी हमेशा परोपकार और दान के लिए धन इकट्ठा करते थे, स्वार्थ के लिए नहीं। अतिथि का हम देवता के समान सम्मान करते थे। हमारी वाणी में हमेशा सत्य होता था और हृदय में तेजस्विता थी। कोई भी प्रतिज्ञा हम पूरी निष्ठा से निभाते थे, चाहे उसके लिए अपने प्राण तक देने पड़ें।
कवि आगे कहते हैं कि हम आर्यों की मूल संतान हैं और हमारी नसों में उनके साहस और ज्ञान की शक्ति विद्यमान है। इसी कारण हमारे अंदर शांति और शक्ति का वास है। हमें गर्व और हर्ष के साथ यह भावना रखनी चाहिए कि हमारा जीवन अपने प्यारे देश भारत के लिए है। हमें अपना तन, मन और धन, अर्थात् सम्पूर्ण जीवन, अपने देश की सेवा में न्योछावर कर देना चाहिए। यही देश हमारी जन्मभूमि है और यही हमारे जीवन का परम लक्ष्य है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

क)  निर्वासित राजकुमार कौन थे?

(क) अशोक
(ख) राम
(ग) दधीचि
(घ) सिद्धार्थ

उत्तर: (ख) राम

ख) ‘भारतवर्ष’ कविता के कवि हैं:

(क) रामधारी सिंह दिनकर
(ख) रामनरेश त्रिपाठी
(ग) जयशंकर प्रसाद
(घ) सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

उत्तर: (ग) जयशंकर प्रसाद

ग) रत्नाकर का शाब्दिक अर्थ है –

(क) गागर
(ख) सागर
(ग) नदी
(घ) रत्न का आकार

उत्तर: (ख) सागर

घ) दधीचि कौन थे?

(क) एक राजा
(ख) बौद्ध भिक्षु
(ग) एक ऋषि
(घ) एक भिखारी

उत्तर: (ग) एक ऋषि

लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर

क) दधीचि ने क्या दान किया था तथा क्यों?

उत्तर:
दधीचि ने अस्थि दान किया था। उनकी हड्डियों से इन्द्र ने वज्र का निर्माण किया और वृत्रासुर का वध किया। अत: देवताओं की विजय और असुरों की पराजय के लिए महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियों का दान दिया।

ख) बौद्ध भिक्षु बनकर घूमने वाले राजा कौन थे? इसका कारण क्या था?

उत्तर:
बौद्ध भिक्षु बनकर घूमने वाले राजा सम्राट अशोक थे। वे बौद्ध धर्म के प्रचार और मानवता के कल्याण के लिए घर-घर जाकर लोगों के प्रति दया और करुणा का संदेश देते थे।

ग) निर्वासित राजा की प्रसिद्धि का क्या कारण है?

उत्तर:
निर्वासित राजकुमार राम की प्रसिद्धि का कारण यह है कि उन्होंने रावण का विनाश किया और देवताओं, ऋषियों, एवं मानवता के संकट को दूर किया। इसके लिए उन्होंने सागर पर सेतु का निर्माण किया और रावण को पराजित कर धर्म और संस्कृति की रक्षा की।

घ) हिमालय का आँगन किसे और क्यों कहा गया है?

उत्तर:
हिमालय का आँगन भारतवर्ष को कहा गया है, क्योंकि भारत हिमालय के चरणों में स्थित है। हिमालय भारत का गौरव है और इसका सांस्कृतिक महत्त्व भी अत्यंत है।

बोधमूलक प्रश्नोत्तर

(क) भारत के प्राचीन गौरव का वर्णन कीजिए। 

कविवर जयशंकर प्रसाद ने ‘भारतवर्ष’ कविता में भारत के अतीत का गौरवमय चित्रण किया है। सबसे पहले हिमालय की गोद में स्थित भारत में सभ्यता और ज्ञान का प्रकाश फैला। देवी सरस्वती ने वीणा बजाकर संगीत के सात स्वर पैदा किए और सामवेद की रचना भी यहीं हुई। हमारे आदि पुरुष मनु ने बीज रूप में सृष्टि को प्रलय से बचाया।

महर्षि दधीचि ने अपने अस्थिदान से जातीयता और त्याग की मिसाल पेश की। उनकी अस्थियों से इन्द्र ने वज्र बनाकर वृत्रासुर का वध किया, जिससे देव-संस्कृति की रक्षा हुई। निर्वासित होते हुए भी राम ने रावण का विनाश करने के लिए सागर पर सेतु का निर्माण किया।

भगवान बुद्ध और महावीर ने धर्म के नाम पर होने वाली नर और पशु बलि को समाप्त कर विश्व में अहिंसा और शांति का संदेश दिया। भारतीय वीरों ने तलवार की विजय के स्थान पर धर्म और प्रेम की विजय को बढ़ावा दिया।

सम्राट अशोक भिक्षु बनकर घूम-घूम कर शांति, अहिंसा और प्रेम का प्रचार करते रहे। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने यवन सेनापति सेल्युकस को पराजित करके भी उसे प्राण दान देकर अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया। हमारे पूर्वज भारतवासी चरित्रवान, शक्तिशाली, दृढ़ प्रतिज्ञावान और परोपकारी थे। संपत्ति में सम्पन्न होने के बावजूद भी वे विनम्र और शालीन थे।

(ख) ‘पुरंदर ने पवि से है लिखा अस्थियुग का मेरे इतिहास’ में वर्णित पौराणिक कथा का वर्ण कीजिए। 

देवासुर संग्राम का युग अस्थियुग कहलाया। इस समय देवताओं के राजा इन्द्र असुर सेनापति वृत्रासुर से भयभीत थे। वृत्रासुर का वध केवल महर्षि दधीचि की हड्डियों से बने वज्र द्वारा संभव था। अत: देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास गए और उनसे अस्थिदान की प्रार्थना की।

महर्षि दधीचि ने देवत्व की रक्षा के लिए अपने प्राणों की चिंता किए बिना इन्द्र का प्रस्ताव स्वीकार किया और सहर्ष अपनी हड्डियाँ दे दीं। इन्द्र ने दधीचि की अस्थियों से वज्र का निर्माण कर वृत्रासुर का संहार किया। महर्षि दधीचि का यह अस्थिदान त्याग और बलिदान का अद्भुत उदाहरण है, जो भारतीय जाति के त्याग और साहस का प्रतीक माना जाता है।

(ग) ‘भारतवर्ष’ कविता का मूलसार अपने शब्दों में लिखिए। 

कविवर जयशंकर प्रसाद ने ‘भारतवर्ष’ कविता में भारत के प्राचीन गौरव, जातीय और चारित्रिक विशेषताओं का सुंदर चित्रण किया है।

कवि बताते हैं कि सबसे पहले उषा ने हिमालय की गोद में स्थित भारत को स्वर्णिम किरणों से अलंकृत किया। भारतवासियों ने ज्ञान और विज्ञान में प्रगति की और इसका प्रकाश विश्व के अन्य भागों में फैलाया। हमारे आदि पुरुष मनु ने प्रलय से सृष्टि को बचाया। इसी भूमि पर देवी सरस्वती ने वीणा बजाकर संगीत के सात स्वर उत्पन्न किए और सामवेद की रचना हुई। महर्षि दधीचि ने अपने अस्थिदान से राक्षस राजा वृत्रासुर का संहार कर देव संस्कृति की रक्षा की।

निर्वासित राजकुमार राम ने समुद्र पर सेतु बनाकर रावण का विनाश किया। भगवान बुद्ध और महावीर ने पशु बलि प्रथा को समाप्त कर विश्व में प्रेम, शांति और अहिंसा का संदेश दिया। सम्राट अशोक भिक्षु बनकर घर-घर जाकर दया और करुणा का उपदेश देते रहे। सम्राट चन्द्रगुप्त ने युद्ध में यवन सेनापति सेल्युकस को पराजित करने के बाद भी उसे प्राणदान देकर महान उदाहरण प्रस्तुत किया।

कवि आगे बताते हैं कि भारतवासियों ने विदेशियों के आक्रमणों, संकटों और कठिनाइयों का डटकर सामना किया। उन्होंने किसी का कुछ भी बलपूर्वक नहीं लिया। हम परोपकारी, अतिथि-सेवी, दृढ़, साहसी और शांतिप्रेमी थे। हम अपने देश के गौरव की रक्षा के लिए तन, मन और धन का सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहते हैं।

इस प्रकार, इस कविता में देशभक्ति, राष्ट्रोन्नति और भारतीय गौरव की भावना का सुन्दर चित्रण किया गया है।

(घ) निम्नलिखित पंक्तियों की व्याख्या ससन्दर्भ कीजिए ।

1. हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव।

उत्तर:
संदर्भ: यह पंक्ति कविवर जयशंकर प्रसाद की कविता ‘भारतवर्ष’ से लिया गया है।

व्याख्या: इस पंक्ति में कवि ने भारतीयों की दानशीलता और उदारता का चित्रण किया है। हमारे पूर्वज अपने सुख या भोग के लिए धन नहीं इकट्ठा करते थे। वे अपने अर्जित धन से गरीबों और अनाथों की मदद करते थे। उनमें परोपकार की भावना थी और अतिथि का सत्कार देव तुल्य समझते थे। उनका आदर्श था – “अतिथि देवो भव”, अर्थात अतिथि का सम्मान परम धर्म है।

2. बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय की शीत।

उत्तर:

संदर्भ: यह पंक्ति कविवर जयशंकर प्रसाद की कविता ‘भारतवर्ष’ से लिया गया है।

व्याख्या: हमारे आदि पुरुष मनु ने बीज रूप में सृष्टि की रक्षा की। प्रलय के समय समस्त पृथ्वी जलमग्न हो गई थी। अकेले मनु नाव में बैठकर हिमालय की चोटी तक पहुंचे। प्रलयकालीन ठंडी लहरों को सहते हुए भी वे निडर बने रहे। अपनी श्रद्धा और साहस से उन्होंने सृष्टि का उद्धार किया।

3. जिएँ तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष।

उत्तर:

संदर्भ: यह पंक्ति कविवर जयशंकर प्रसाद की कविता ‘भारतवर्ष’ से लिया गया है।

व्याख्या: यह अंश कवि श्री जयशंकर प्रसाद की कविता ‘भारतवर्ष’ से उद्धृत है। इस पंक्ति में राष्ट्रीय भावना और देशभक्ति की अभिव्यक्ति हुई है। कवि कहते हैं कि हमारा जीवन स्वदेश भारतवर्ष के लिए होना चाहिए। इसलिए हम जीते भी तो भारत के लिए और मरें भी तो भारत के लिए। हमें इस बात का अभिमान और हर्ष होना चाहिए कि हमारा जीवन अपने देश के लिए ही है। हमें तन, मन और धन, अर्थात् अपना सर्वस्व, देश की सेवा में लगाने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।

भाषा-बोध

क) निम्नलिखित शब्दों से उपसर्ग एवं मूल शब्द अलग कीजिए-

  1. आलोक – उपसर्ग: , मूल शब्द: लोक
  2. विमल – उपसर्ग: वि , मूल शब्द: मल
  3. अतिथि – उपसर्ग: , मूल शब्द: तिथि
  4. अभिमान – उपसर्ग: अभि , मूल शब्द: मान
  5. संगीत – उपसर्ग: सं , मूल शब्द: गीत

ख) निम्नलिखित शब्दों का संधि विच्छेद कर संधि का नाम लिखिए –

  1. हिमालयहिम + आलयस्वर संधि
  2. संसृतिसम् + सृतिव्यंजन संधि
  3. निर्वासितनि: + वासितविसर्ग संधि
  4. संचयसम् + चयव्यंजन संधि
  5. रत्नाकररत्न + आकरस्वर संधि

ग) निम्नलिखित सामासिक पदों का विग्रह कर समास का नाम लिखिए – 

  1. सप्तस्वरसात स्वरों का समाहारद्विगु समास
  2. उत्थान-पतनउत्थान और पतनद्वन्द्व समास
  3. शान्ति संदेशशांति का संदेशतत्पुरुष समास
  4. अस्थियुग – अस्थि का युग → तत्पुरुष समास

घ) पाठ से इत, ता, यों, ई, आ प्रत्ययों से बने शब्दों को चुनकर लिखिए- 

  1. –इतनिर्वासित
  2. –ताजातीयता, नम्रता
  3. –योंजातियों
  4. –ईहमी, वही
  5. –आलिखा

ङ) निम्नलिखित शब्दों के अर्थ लिखकर वाक्य में प्रयोग करो – 

  1. पुरन्दर – इन्द्र
    वाक्य: पुरन्दर ने वज्र से वृत्रासुर का वध किया।
  2. रत्नाकर – समुद्र
    वाक्य: राम ने रत्नाकर की छाती पर पुल बना दिया।
  3. सर्वस्व – सबकुछ
    वाक्य: हमें स्वदेश पर सर्वस्व न्योछावर कर देना चाहिए।
  4. नम्रता – विनय
    वाक्य: हमारे पूर्वजों में सदा नम्रता बनी रही।
  5. अभिनंदन – प्रशंसा, स्वागत
    वाक्य: हमें महान पुरुषों का अभिनंदन करना चाहिए।

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