वरदान मांगूंगा नहीं कविता का प्रश्न उत्तर Class 7 ॥ Vardan Mangunga Nahin Ka Question Answer
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जीवन परिचय
हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवि, लेखक और शिक्षाविद् शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म 5 अगस्त 1915 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के झगरपुर गाँव में हुआ था। बचपन से ही उनमें अध्ययन, लेखन और वाचन के प्रति गहरी रुचि थी। उनके पिता एक साधारण किसान थे, लेकिन परिवार में शिक्षा का वातावरण था। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने उन्नाव और ग्वालियर में प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बी.ए. किया और लखनऊ विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. की डिग्री प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) गए, जहाँ से उन्होंने हिंदी में एम.ए. और पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आगे चलकर 1950 में उन्हें डी.लिट्. की उपाधि भी मिली, जो उनके शैक्षणिक कौशल का प्रमाण है।
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ छायावादोत्तर युग के एक ओजस्वी और राष्ट्रवादी कवि थे। उनकी कविताओं में राष्ट्रभक्ति, मानवता, कर्मशीलता और जीवन के प्रति गहरी आस्था झलकती है। वे छायावाद आंदोलन से प्रभावित थे, किंतु उनकी लेखनी में केवल भावुकता नहीं, बल्कि जीवन की यथार्थवादी दृष्टि भी थी। उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘हिल्लोल’ (1939), ‘मिट्टी की बारात’, ‘वाणी की व्यथा’, ‘प्रलय सृजन’ और ‘जीवन के गान’ शामिल हैं। विशेष रूप से ‘मिट्टी की बारात’ ने उन्हें हिंदी साहित्य में अमर कर दिया, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनकी कविताएँ न केवल साहित्यिक दृष्टि से श्रेष्ठ हैं, बल्कि उनमें देशभक्ति और समाज सुधार की प्रेरणा भी मिलती है।
साहित्य के साथ-साथ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ एक उत्कृष्ट शिक्षाविद् भी थे। उन्होंने ग्वालियर, इंदौर और उज्जैन के कॉलेजों में अध्यापन किया और आगे चलकर विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलपति (Vice-Chancellor) बने। उनके नेतृत्व में विश्वविद्यालय ने उल्लेखनीय प्रगति की। वे छात्रों को केवल पाठ्यज्ञान ही नहीं, बल्कि नैतिक और राष्ट्रीय मूल्यों का भी शिक्षण देते थे। उनकी लेखनी और शिक्षण दोनों का उद्देश्य समाज में जागरूकता, एकता और प्रगति की भावना फैलाना था।
उनके उत्कृष्ट साहित्यिक योगदान के लिए उन्हें भारत भारती पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, और पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किया गया। उनका संपूर्ण जीवन देश, समाज और भाषा की सेवा में समर्पित रहा। 27 नवंबर 2002 को उज्जैन में उनका निधन हुआ। वे आज भी हिंदी साहित्य के इतिहास में एक प्रेरणास्रोत के रूप में याद किए जाते हैं। उनकी कविताएँ हमें जीवन में संघर्ष करने, आगे बढ़ने और राष्ट्र के प्रति समर्पित रहने की प्रेरणा देती हैं।
वरदान मांगूंगा नहीं कविता का व्याख्या ॥ वरदान मांगूंगा नहीं कविता का भावार्थ
1. यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं,
वरदान माँगूँगा नहीं।
शब्दार्थ
हार — पराजय, असफलता।
विराम — ठहराव, विश्राम।
जीवन — मनुष्य का अस्तित्व, जीवित रहना।
महासंग्राम — बहुत बड़ा युद्ध, संघर्ष।
तिल-तिल — धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके।
मिटूँगा — नष्ट हो जाऊँगा, समाप्त हो जाऊँगा।
दया की भीख — करुणा या सहानुभूति के रूप में माँगी जाने वाली सहायता।
वरदान — आशीर्वाद, कृपा।
माँगूँगा नहीं — याचना नहीं करूँगा, स्वयं कुछ नहीं माँगूँगा।
संदर्भ – प्रस्तुत अंश ‘वरदान माँगूँगा नहीं’ कविता से लिया गया है। इस कविता के लेखक डॉ० शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हैं।
प्रसंग – कवि इन पंक्तियों में अपनी अभिलाषा व्यक्त की है कि वह किसी भी स्थिति में वरदान नहीं माँगेगा।
व्याख्या – कवि जीवन को एक बड़ा संग्राम यानी संघर्ष का मैदान मानता है। जीवन में कई मुश्किल हालात आते हैं, जिनसे हमें डटकर सामना करना चाहिए। इस संघर्ष में कभी हार होती है, तो कभी जीत। कवि कहता है कि अगर मैं हार भी जाऊँ, तो भी यह मेरे जीवन का एक छोटा सा ठहराव है। वह कहता है कि चाहे मुझे कष्ट ही क्यों न झेलने पड़ें, मैं किसी से दया या सहानुभूति की भीख नहीं माँगूँगा। कवि अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान को सबसे ऊपर रखता है। वह किसी देवता या गुरु से भी वरदान या इनाम की याचना नहीं करेगा, बल्कि अपने परिश्रम और साहस से जीवन की कठिनाइयों को पार करना चाहता है।
2. स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्व की सम्पत्ति चाहूँगा नहीं,
वरदान माँगूँगा नहीं।
शब्दार्थ
स्मृति — याद, चिन्तन या मन में बसी हुई बात।
सुखद — आनंददायक, प्रसन्न करने वाला।
प्रहरों — समय के भाग, घड़ी की अवधि।
खंडहरों — टूटी-फूटी, जर्जर या नष्ट हुई इमारतें।
विश्व — संसार, जगत, पूरी धरती।
सम्पत्ति — धन, ऐश्वर्य, संपदा।
चाहूँगा नहीं — इच्छा नहीं रखूँगा।
वरदान — आशीर्वाद, कृपा।
माँगूँगा नहीं — याचना नहीं करूँगा, स्वयं कुछ नहीं माँगूँगा।
संदर्भ – प्रस्तुत अंश ‘वरदान माँगूँगा नहीं’ कविता से लिया गया है। इस कविता के लेखक डॉ० शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हैं।
प्रसंग – कवि इन पंक्तियों में यह व्यक्त करता है कि वह अपने जीवन में किसी देवता या महान व्यक्ति से सुख, ऐश्वर्य या वरदान नहीं माँगेगा। उसके लिए जीवन का असली मूल्य स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और परिश्रम में है।
व्याख्या – कवि कहता है कि वह अपने जीवन में सुख देने वाली यादों या टूटे-बिखरे जीवन को सँवारने के लिए कभी भी किसी देवता या महान व्यक्ति से वरदान नहीं माँगेगा। वह सबको यह समझाना चाहता है कि उसे दुनिया के ऐश्वर्य, वैभव या धन-संपत्ति की कोई इच्छा नहीं है। कवि के अनुसार जीवन का असली मूल्य इन भौतिक चीज़ों में नहीं, बल्कि स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता में है। इसलिए वह न तो सुख की याचना करता है, न ही अधूरी इच्छाओं की पूर्ति की चाह रखता है। वह अपने परिश्रम, साहस और आत्मबल से ही जीवन जीना चाहता है।
3. क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही,
वरदान माँगूँगा नहीं।
शब्दार्थ
हार — पराजय, असफलता।
जीत — विजय, सफलता।
किंचित — थोड़ा भी, जरा भी।
भयभीत — डरने वाला, भय से ग्रस्त।
संघर्ष — लड़ाई, प्रयत्न, कठिन प्रयास।
पथ — मार्ग, रास्ता।
मिले — प्राप्त हो, जो प्राप्त हो जाए।
यह भी सही वह भी सही — जो जैसा मिले, उसे स्वीकार करना।
वरदान — आशीर्वाद, कृपा।
माँगूँगा नहीं — याचना नहीं करूँगा, कुछ नहीं माँगूँगा।
संदर्भ – प्रस्तुत अंश ‘वरदान माँगूँगा नहीं’ कविता से लिया गया है। इस कविता के लेखक डॉ० शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हैं।
प्रसंग – कवि इन पंक्तियों में यह व्यक्त करता है कि जीवन के संघर्षों में चाहे जीत मिले या हार, वह साहसपूर्वक आगे बढ़ेगा और कभी किसी से सहायता या वरदान की याचना नहीं करेगा। यह उसके अटल आत्मविश्वास और स्वाभिमान की प्रतीक भावना है।
व्याख्या – कवि कहता है कि जीवन की यात्रा में चाहे उसे जीत मिले या हार, वह किसी भी स्थिति में डर या भय महसूस नहीं करेगा। जीवन में कई बार कठिन और विपरीत परिस्थितियाँ आती हैं, संघर्ष और टकराव होते हैं, पर कवि उन्हें सच्चाई मानकर स्वीकार करना चाहता है। वह यह भी स्पष्ट करता है कि चाहे हालात कितने ही कठिन क्यों न हों, वह कभी किसी के सामने झुकेगा नहीं और किसी से याचना या सहायता की प्रार्थना नहीं करेगा।
4. लघुता न अब मेरी छुओ
तुम ही महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं,
वरदान माँगूँगा नहीं।
संदर्भ – प्रस्तुत अंश ‘वरदान माँगूँगा नहीं’ कविता से लिया गया है। इस कविता के लेखक डॉ० शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हैं।
प्रसंग – कवि इन पंक्तियों में यह बताना चाहता है कि वह अपनी साधारणता और पीड़ा को स्वीकार कर संतुष्ट है। वह दूसरों की महानता या अहंकार से प्रभावित नहीं होता और यह संकल्प व्यक्त करता है कि वह कभी किसी से वरदान या दया की याचना नहीं करेगा।
व्याख्या – इस अंश में कवि कहता है कि वह अपनी स्थिति को जैसी है वैसी ही बनाए रखना चाहता है। वह दूसरों से कहता है कि मेरी साधारणता या तुच्छता को अपने अहंकार या महानता से मत मिलाइए। कवि का कहना है कि जो लोग अपनी महानता पर गर्व करते हैं, वे वैसे ही जीवन जीते रहें, लेकिन वह स्वयं अपने दुख और पीड़ा को नहीं छोड़ सकता। उसके अनुसार यह पीड़ा ही उसके जीवन का हिस्सा है। कवि कहता है कि चाहे उसे कितनी भी तकलीफ क्यों न हो, वह कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाएगा और किसी से वरदान या दया की याचना नहीं करेगा।
5. चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्त्तव्य पथ से किन्तु मैं भागूँगा नहीं,
वरदान माँगूँगा नहीं।
शब्दार्थ
चाहे — भले ही, यदि तुम ऐसा करो तो भी।
हृदय — दिल, मन।
ताप दो — कष्ट दो, पीड़ा पहुँचाओ।
अभिशाप — शाप, श्राप, बुरा आशीर्वाद या दंडस्वरूप वचन।
कर्त्तव्य — कर्तव्य, धर्म, जिम्मेदारी, जो करना आवश्यक हो।
पथ — मार्ग, रास्ता।
किन्तु — लेकिन, तथापि।
भागूँगा नहीं — डरकर दूर नहीं जाऊँगा, पीछे नहीं हटूँगा।
वरदान — आशीर्वाद, कृपा।
माँगूँगा नहीं — याचना नहीं करूँगा, कुछ नहीं माँगूँगा।
संदर्भ – प्रस्तुत अंश ‘वरदान माँगूँगा नहीं’ कविता से लिया गया है। इस कविता के लेखक डॉ० शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हैं।
प्रसंग – कवि इन पंक्तियों में यह व्यक्त करता है कि वह संघर्ष और कर्त्तव्यपालन के मार्ग से कभी विचलित नहीं होगा। चाहे उसे पीड़ा, श्राप या झूठे आरोप ही क्यों न झेलने पड़ें, फिर भी वह कभी किसी से वरदान नहीं माँगेगा और अपने परिश्रम से ही जीवन को सफल बनाएगा।
व्याख्या – कवि कहता है कि वह किसी भी महान व्यक्ति, देवता, धनवान या राजनेता से किसी भी तरह की इच्छित वस्तु या वरदान नहीं माँगता। उसे चाहे हृदय में पीड़ा क्यों न सहनी पड़े, श्राप ही क्यों न मिले या लोग उस पर झूठे आरोप (मिथ्यावाद) ही क्यों न लगाएँ, फिर भी वह अपने कर्त्तव्य के मार्ग से कभी नहीं हटेगा। कवि का विश्वास है कि जीवन की सच्ची सफलता संघर्ष और परिश्रम से ही मिलती है, इसलिए वह हर कठिनाई को स्वीकार करते हुए अपने संघर्ष से ही जीवन को सफल बनाना चाहता है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न –
क) इस कविता में कवि ने जीवन को क्या कहा है?
(क) खण्डहर
(ख) महासंग्राम
(ग) वरदान
(घ) नदी
उत्तर :
(ख) महासंग्राम
ख) कवि इस कविता में किसकी प्रेरणा देता है?
(क) संघर्ष एवं कर्त्तव्य परायणता
(ख) स्मृति की
(ग) संपत्ति प्राप्ति की
(घ) भिक्षा माँगने की
उत्तर :
(क) संघर्ष एवं कर्त्तव्य परायणता
ग) ‘सुमन’ किसका उपनाम है ?
(क) शिवमंगल सिंह
(ख) सूर्यकांत त्रिपाठी
(ग) सुमित्रानंदन पंत
(घ) शमशेर बहादुर सिंह
उत्तर :
(क) शिवमंगल सिंह
लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर
क) किसके लिए कवि विश्व की संपत्ति नहीं चाहता?
उत्तर :
कवि अपने सुखद क्षणों को यादगार बनाने, अपने अभावों की पूर्ति करने और टूटे-बिखरे जीवन को फिर से संवारने के लिए भी विश्व की संपत्ति नहीं चाहता है। वह भौतिक वैभव की अपेक्षा आत्मसम्मान और आत्मबल को अधिक महत्वपूर्ण मानता है।
ख) ‘लघुता’ शब्द से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
‘लघुता’ का अर्थ है तुच्छता या हल्कापन। यहाँ कवि ने बड़े और महान लोगों से तुलना करते हुए अपने को उनकी दृष्टि में छोटा, अल्प शक्ति और कम सामर्थ्य वाला व्यक्ति बताया है।
ग) कवि किससे वरदान की कामना नहीं कर रहा है?
उत्तर :
कवि अपने को साधारण व्यक्ति मानता है। वह अपने आपको महान, श्रेष्ठ और सर्वसाधन संपन्न समझने वाले लोगों से दूर रखना चाहता है। कवि चाहता है कि वे लोग अपनी महानता में बने रहें, पर वह उनसे किसी भी प्रकार का वरदान नहीं माँगता।
बोधमूलक प्रश्नोत्तर
(क) ‘वरदान माँगूँगा नहीं’ कविता का संक्षिप्त सार लिखिए।
उत्तर :
प्रस्तुत कविता में कवि ने जीवन को एक महासंग्राम बताया है, जहाँ जीत और हार दोनों ही जीवन का हिस्सा हैं। कवि कहता है कि वह किसी भी परिस्थिति में दया की भिक्षा नहीं माँगेगा। वह अपने सुखद क्षणों की यादें सँवारने या अभावों को दूर करने के लिए भी विश्व का वैभव नहीं चाहता। कवि अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान को सबसे ऊपर रखता है। वह चाहे कष्ट झेले या श्राप पाए, फिर भी कर्त्तव्य मार्ग से कभी नहीं हटेगा। वह सदा संघर्ष करते हुए जीवन जीना पसंद करता है और किसी से भी वरदान की याचना नहीं करेगा।
(ख) कवि किन-किन परिस्थितियों में वरदान नहीं माँगने की बात करता है?
उत्तर :
कवि कहता है कि वह अपने जीवन में चाहे तिल-तिल कर मिट क्यों न जाए, फिर भी वरदान नहीं माँगेगा। वह अपनी सुखद यादों को सँवारने के लिए, अपनी कमी या अभाव को पूरा करने के लिए, अपने हृदय की पीड़ा को दूर करने के लिए, यहाँ तक कि दुःख, संताप या अभिशाप जैसी परिस्थितियों में भी किसी से वरदान की याचना नहीं करेगा।
(ग) निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
1. “संघर्ष पथ पर जो मिले, यह भी सही वह भी सही,
वरदान माँगूँगा नहीं।”
उत्तर :
कवि जीवन को एक महासंग्राम मानता है। वह जीवन की कठिन परिस्थितियों और संघर्षों से डटकर सामना करना चाहता है। इस संघर्ष में कभी हार होती है, तो कभी जीत, पर कवि के लिए पराजय भी एक पड़ाव के समान है। वह कहता है कि चाहे उसे तिल-तिल कर मिटना पड़े, फिर भी वह किसी से दया या सहानुभूति की भीख नहीं माँगेगा। कवि अपने स्वाभिमान की रक्षा करना चाहता है और किसी की अनुकंपा या कृपा नहीं चाहता। वह किसी देवता या गुरुजन के सामने भी इष्ट फल या वरदान की याचना नहीं करेगा।
2. “कुछ भी करो, कर्त्तव्य पथ से किन्तु भाँगूँगा नहीं।”
उत्तर :
कवि कहता है कि वह किसी भी महान व्यक्ति, देवता, धनवान या राजनेता से किसी भी प्रकार का वरदान या इष्ट वस्तु नहीं चाहता। चाहे उसके हृदय को पीड़ा पहुँचे, चाहे उसे श्राप मिले या लोग उस पर झूठे आरोप (मिथ्यावाद) लगाएँ, फिर भी वह अपने कर्त्तव्य के मार्ग से कभी नहीं हटेगा। कवि का विश्वास है कि संघर्ष और परिश्रम से ही जीवन में सफलता मिलती है, इसलिए वह हर स्थिति में कर्त्तव्य पथ पर अडिग रहना चाहता है।
भाषा बोध
(क) निम्नलिखित शब्दों का विलोम शब्द लिखिए –
हार – जीत
जीवन – मृत्यु
स्मृति – विस्मृति
लघुता – गुरुता
वरदान – अभिशाप
(ख) निम्नलिखित शब्दों से उपसर्ग अलग कीजिए –
वरदान — वर + दान
अभिशाप — अभि + शाप
विराम — वि + राम
प्रहर — प्र + हर
सुखद — सु + खद
संग्राम — सम् + ग्राम
व्यर्थ — वि + अर्थ
(ग) पाठ से ‘ता’, ‘ना’ और ‘ओ’ प्रत्ययों से बने शब्दों को चुनकर लिखिए।
ता = लघुता
ना = वेदना
ओ = प्रहरों, खंडहरों
(घ) निम्नलिखित शब्दों को वाक्यों में प्रयोग करो –
- अभिशाप – लोभ और स्वार्थ मनुष्य के जीवन के लिए एक अभिशाप है।
- कर्त्तव्य – हमें अपने कर्त्तव्य का पालन ईमानदारी से करना चाहिए।
- महासंग्राम – स्वतंत्रता संग्राम भारत का एक महान महासंग्राम था।
- खण्डहर – पुराने महल अब खण्डहर में बदल चुके हैं।
- संघर्ष – सफलता पाने के लिए जीवन में निरंतर संघर्ष करना पड़ता है।
‘वरदान माँगूँगा नहीं’ कविता का सारांश
डॉ० शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ द्वारा रचित यह कविता कवि के अटल आत्मविश्वास, स्वाभिमान और आत्मबल की प्रतीक है। कवि जीवन को एक महासंग्राम मानता है, जहाँ मनुष्य को निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। इस संघर्ष में हार और जीत दोनों ही स्थितियाँ आती हैं, पर कवि किसी भी परिस्थिति में दया, सहानुभूति या वरदान नहीं माँगना चाहता।
कवि कहता है कि यदि वह जीवन में तिल-तिल कर मिट भी जाए, तो भी वह किसी के सामने हाथ नहीं फैलाएगा। वह अपने सुखद स्मृतियों को सँवारने, अपने अभावों को पूरा करने या अपने टूटे जीवन को सुधारने के लिए भी विश्व की सम्पत्ति या ऐश्वर्य की याचना नहीं करेगा। उसके लिए सच्चा सुख स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता में है, न कि धन-संपत्ति या भौतिक वैभव में।
कवि यह भी कहता है कि चाहे उसे पराजय मिले या विजय, वह किंचित भी भयभीत नहीं होगा। वह जीवन के हर संघर्ष और कठिनाई को हँसते हुए स्वीकार करेगा। जो कुछ भी उसे मिले — वह भी सही, यह भी सही। कवि के अनुसार जीवन की हर परिस्थिति एक अनुभव और सीख है, जिसे स्वीकार करना चाहिए।
कवि अपनी लघुता या साधारणता को भी सम्मानजनक मानता है। वह कहता है कि उसकी तुलना महान या अहंकारी लोगों से न की जाए। वे अपनी महानता में बने रहें, पर वह अपनी पीड़ा और विनम्रता को जीवन का हिस्सा मानता है। वह अपने दुख को भी छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि वही उसे संघर्ष करने की शक्ति देता है।
अंत में कवि यह स्पष्ट करता है कि चाहे उसे कष्ट मिले, अभिशाप मिले या झूठे आरोप ही क्यों न सहने पड़ें, फिर भी वह कर्त्तव्य पथ से कभी नहीं भागेगा। उसके लिए कर्त्तव्य पालन ही सच्चा धर्म है। वह जीवन की सफलता संघर्ष, परिश्रम और आत्मबल में देखता है, न कि वरदान या दया पर निर्भर होकर।
इस प्रकार, यह कविता मानव जीवन में आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता, कर्मठता और संघर्ष की भावना को प्रेरित करती है।
कवि का यह दृढ़ संकल्प —
“संघर्ष पथ पर जो मिले, यह भी सही, वह भी सही,
वरदान माँगूँगा नहीं” —
मानव जीवन में अदम्य साहस और स्वाभिमान का संदेश देता है।
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