1. निर्गुण भक्ति का समर्थन कबीर ने ईश्वर को निराकार, अजन्मा और सर्वव्यापी बताया। उनके अनुसार ईश्वर को मंदिर, मस्जिद या किसी मूर्ति में खोजने की आवश्यकता नहीं, वह प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करता है। उनका प्रसिद्ध दोहा है: “मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।”
सामाजिक समानता और जातिवाद का विरोध कबीर की भक्ति भावना जाति-पाति, ऊँच-नीच और धार्मिक भेदभाव के विरुद्ध थी। उन्होंने कहा कि सब मनुष्य एक समान हैं और ईश्वर की दृष्टि में किसी की जाति का कोई महत्व नहीं। उन्होंने कहा: “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।”
आडंबर और पाखंड का विरोध कबीर ने तीर्थयात्रा, व्रत, पूजा, हवन आदि बाह्य आडंबरों की आलोचना की। उनका मानना था कि सच्चे हृदय से प्रेम और भक्ति ही ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग है। वे कहते हैं: “पढ़ि पढ़ि पंडित मूढ़ भया, पंडित भया न कोय।”
प्रेम और भाव की भक्ति कबीर की भक्ति भावना प्रेम के आधार पर टिकी है। उन्होंने कहा कि ईश्वर को पाने के लिए प्रेम ही सबसे बड़ा साधन है। उनका दोहा है: “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”
गुरु की महिमा कबीर के अनुसार गुरु की कृपा से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है। उन्होंने गुरु को ईश्वर से भी बड़ा बताया: “गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥”