कबीर की भक्ति भावना का वर्णन कीजिए (kabir ki bhakti bhavna ka vishleshan kijiye)

कबीर की भक्ति भावना (kabir ki bhakti bhavna ka vishleshan kijiye)

Contents hide
1 कबीर की भक्ति भावना (kabir ki bhakti bhavna ka vishleshan kijiye)
कबीर की भक्ति भावना का वर्णन कीजिए

प्रस्तावना

कबीर दास भक्ति काल के निर्गुण काव्यधारा के प्रमुख कवियों में से एक है उन्होंने राम को निर्गुण रूप में स्वीकार किया है तथा वह निर्गुण की उपासना का संदेश देते हैं उनकी राम भावना ब्रह्म भावना से सर्वथा मिलती है। कबीर पहले भक्त हैं फिर कवि है। उन्होंने जाति-पाती, काम-धाम, चमक-दमक, दिखावा,पहनावा, अंधविश्वास, मूर्तिपूजा, हिंसा, माया, छुआछूत, आदि पर विद्रोह भावना प्रकट की हैं। इन सब से दूर होकर भक्ति की भावना में लीन होने के लिए कबीरदास जी कहते हैं कबीर की भक्ति भावना को हम निम्नलिखित रुप में देख सकते हैं-

इसे भी पढ़े : कबीर की रहस्यवाद

१.कबीर की निर्गुण उपासना

उन्होंने राम को निर्गुण रूप में स्वीकार किया है तथा वह निर्गुण राम की उपासना का संदेश देते हैं-

“निर्गुण राम जपहुं रे भाई”

उनके अनुसार राम फूलों की सुगंध से भी पतला अजन्मा और निर्विकार है वह विश्वा के कण-कण में स्थित है। उसे कहीं बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा है की मिल की नाभि में कस्तूरी छिपी रहते हैं और मेरे उस सुगंध का स्रोत बाहर ही ढूंढता फिरता है जबकि व उसके भीतर ही विद्यमान होता है।

“कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढे वन माहिं।
ऐसे घट-घट राम हैं दुनिया देखे नाहिं।”

 

कबीर के अनुसार ईश्वर हर जगह मौजूद है वे कहते है कि ईश्वर कण-कण में समाया है हर इंसान के शरीर में, हर मन में, हर आंखों में ईश्वर का निवास है इसलिए उसे हमें ढूंढने की आवश्यकता नहीं है बल्कि उसे एकाग्र मन से स्मरण करने की आवश्यकता है।

”प्रियतम को पतिया लिखूं, को कहीं होय विदेस।
तन में, मन में, नैन में, ताकौं कहा सन्देश।”

इसे भी पढ़े : कबीरदास की विद्रोही भावना

२.कबीर  एकेश्वरवाद

कबीर ने बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध किया और एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया ब्राह्म नहीं ब्राह्म, विष्णु, महेश आदि को बनाया है। इसलिए उन्होंने निराकार ब्रह्म कोही महत्वपूर्ण स्थान दिया और अवतार को जन्म-मरण  के बंधन से ग्रसित बताया।

“अक्षय पुरुष इक पेड है, निरंजन बाकी बार।
त्रिदेवा शाखा भयें पात भया संसार।”

इसे भी पढ़े : कबीर  एक समाज सुधारक

३.कबीर की अलौकिक प्रणयानूभूति

कबीर के काव्य में परमात्मा के प्रति अलौकिक प्रणयानूभूति की अभिव्यक्ति की गई हैकबीर वैसे तो खंडन मंडन की राह पर चलते रहे हैं और हिंदू मुसलमानों को खरी-खोटी सुनाते रहे पर अपनी रहस्यवादी रचनाओं में से वे अत्यंत मष्दुल और कोमल दिखाई देते हैं कबीर के रहस्यवाद शंकर के अद्वैतवाद का प्रभाव है-

“जल में कुंभ कुंभ में जल है भीतर बाहर पानी।
फूटा कुंभ जल जलाहें समाना, यह तत का हो गयानी।”

Related: कबीर की भाषा की विशेषता

४.कबीर की अद्वैतवाद

ब्रह्मा, जीव, जगत माया आदि तत्वों का निरूपण उन्होंने भारतीय अद्वैतवाद के अनुसार किया है उनके अनुसार जगत में जो कुछ भी है वह ब्रह्म ही है। अंत में सब ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है।

“पाणी ही ते भाया, हिम है गया बिलाय।
जो कुछ था सोई भाया अब कुछ कहा ना जाए।”

संसार की मिथ्या व माया के भ्रम का आख्यान भी कबीर ने अद्वैतवादी विचारधारा के अनुरूप किया है।

“कबीर माया पापणी हरि सूं करै हराम।
मुखि कड़ियाली कुमति की कहण न देई राम।”

इसे भी पढ़े : कबीर के दोहे का अर्थ या व्याख्या

५.राम नाम की महिमा

कबीर ने विभिन्न नामों में राम नाम को पूरी गंभीरता से और बार-बार लिया है। उन्होंने अपने आराध्य के लिए विभिन्न नामों का प्रयोग किया है – राम, साईं, हरि, रहीम, खुदा, अल्लाह आदि प्रमुख है। यह सर्वविदित तथ्य है कि कभी निर्गुण राम के उपासक हैं। वह बार-बार नाम स्मरण की प्रेरणा देते हुए कहते हैं।

“कबीर निर्भय राम जपु, जब लागे दीवा बाति।
तेल धटा बाती मुझे, तब सोवो दिन राति।”

६.कबीर की वात्सल्य की भावना

कबीर के काव्य में यत्र तत्र वात्सल्य का मनभावन रूप सामने आता है कभी स्वर को बालक और ईश्वर को जननी के रूप में मान्यता देते हुए कहते हैं

“हरि जननी मैं बालक तोरा
काहे ना अवगुन बकसहु मेरा।”

७.कबीर की कांता भाव

ईश्वर की कांता भाव से स्मरण करते हुए स्वयं को उनकी जननी के रूप में प्रस्तुत किया है अपने पति ईश्वर को याद करते हुए कवि की आत्मा आवाज देती है

“दुलहिन गावहु मंगलचार
हम घर आयहु राजा राम भरतार।”

८.कबीर की माधुर्य भाव की भक्ति

माधुरी भाव की भक्ति को मधुराभक्ति या प्रेम लक्ष्णा भक्ति कहा जाता है भक्त स्वय को जीवात्मा एवं भगवान को परमात्मा मन मान कर दांपत्य प्रेम की अभिव्यक्ति जहां करता है वहां मधुरा भक्ति मानी जाती है माधुर्य भाव की भक्ति कबीर दास के दोहे में  बखूबी देखने को मिलता है।माधुरी भाव कबीर किस पंक्ति में देखने को मिलता है-

“आंखड़ियां झांई पड़ी पंथ निहारि निहारि।
जीभड़ियां छाला पड़्या राम पुकारि पुकारि।।”

आत्मा का जीव आत्मा के प्रति विरह भाव कबीर ने बड़े मनोयोग से व्यक्त किया है। प्रियतम परमात्मा की बाट जोहते-जोहते आंखों में झांई पड़ गई , राम को पुकारते हुए जीभ में छाला पड़ गया है।

९.कबीर की दास्य भाव की भक्ति

कबीर भले ही निर्गुण मार्गी भक्त कवि हो किंतु उनमें दस्य भाव की भक्ति दिखाई देती है।तुलसी की भक्ति जिस प्रकार दास्य भाव की है उसी प्रकार कबीर की भक्ति भावना में भी दस्य भाव दिखाई पड़ता है। वह प्रभु को स्वामी एवं स्वयं को दास सेवक या गुलाम कहते हैं

मैं गुलाम मोही बेची गोसाई।

१०.कबीर की वैराग्य भावना

कबीर के अनुसार वैराग्य का तात्पर्य संसार को छोड़कर जंगल में निवास करना नहीं है। संसार में रहते हुए भी मन में संतोष वृत्ति लाना, विषय भोगों के प्रति अनासत्त होना, आशा तृष्णा से मुक्त होना वैराग्य है। कभी संसार के रिश्ते नाते को क्षणभंगुर मानते हैं ये सारे संबंध स्वार्थमय है ऐसा कह कर कबीर वैराग्य जगाने का प्रयास करते हैं।

११.कबीर की प्रपत्ति भाव

प्रपति का अर्थ है शरणागति एवं आत्मनिवेदन। कबीर भगवान को सर्वशक्तिमान मानकर उसकी शरण में जाकर अपनी रक्षा की प्रार्थना करते हैं।

कबीर तेरी सरनि आया, राखि लेहु भगवान।

१२.आचरण की शुद्धता

कबीर ने आचरण की शुद्धता के लिए कुसंग का त्याग करने एवं सत्संग करने पर बल दिया है। कबीर का मत है कि जब तक मन में काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकार भरे हैं तब तक हृदय में भगवान की भक्ति नहीं आ सकती भक्ति मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को अहंकार एवं  कपट का भी परित्याग करना पड़ता है।

१३.नाम स्मरण:

कबीर दास के अनुसार केवल नाम मात्र से ही ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है इसलिए वे कहते हैं कि हमें सच्चे मन से ईश्वर को स्मरण करते रहना चाहिए। जब हम एकाग्रचित्त होकर ईश्वर के नाम का जप करते है, तभी वह फलदायी होता है। वे ऐसे नाम स्मरण का विरोध करते हैं जिसमें मन दसों दिशाओं में घूमता रहता है –

माला तो कर में फिरै जीभ फिरै मुख माहि।
मनुवा तो दस दिसि फिरै सो तो सुमिरन नाहि ॥

१४.ईश्वर में विश्वास

कबीर को ईश्वर की महत्ता का पता है इसलिए वे पूरी श्रद्धा और विश्वास से से अपने ईश्वर की आराधना करते हैं। कबीर को पूरा विश्वास है कि परमात्मा पूर्ण समर्थ है। वह राई को पर्वत एवं पर्वत को राई करने की सामर्थ्य रखता है-

सांई सूं सब होत है बन्दे थै कछु नांहि।
राई थे परबत करै, परबत राई मांहि ॥

१५.कबीर की तन्मयता रूप

कबीर अपने प्रियतम के प्रति पूरी तरह समर्पित है वह अपने प्रियतम के साथ जुड़ना चाहते हैं। यारों भक्ति के चरम उत्कर्ष को प्रकट करता है

”आंखिन की करि कोठरि, पुतरी पलग बिछाय।
पलकन की चिक डारि के, पिय को लिया रिझाया।”

कबीर की उपासना में अनन्यता और अटल भक्ति का स्वरूप प्रकट होता है।

१६.भक्त रूपी कबीर

भक्त के रूप में कबीर निर्गुण ब्रह्म केक उपासक थे। निर्गुण ब्रह्म की उपासना में बिना किसी बाहरी आडंबर के भक्त ईश्वर में अपने को समाहित कर देता है। निर्गुण ब्रह्म के उपासक के लिए ब्राह्म उपकरण व्यर्थ प्रतीत होते हैं। निर्गुण ब्रह्म के उपासक को किसी खास पत्थर (मूर्ति पूजा) या खास उपकरण (माला) मिस्र की सत्ता के दर्शन नहीं होते हैं, उसके लिए तो प्रत्येक कण में ईश्वर के उपस्थिति दिखाई देती है। भक्त के रूप में कबीर कहते हैं-

कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लकुटिया हाथ।
जे घर फूंके आपना, सो चले हमारे साथ।।

कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। उनके ईश्वर का कोई रूप नहीं इसलिए उन्होंने भगवान की तुलना कस्तूरी से की है कस्तूरी की गंध का अनुभव किया जा सकता है पर उसका रूप नहीं होता।

१७.ईश्वर की प्राप्ति के लिए मार्ग प्रस्थान: 

कबीर दास ईश्वर प्राप्ति का सच्चा मार्ग पहचाने हुए पहुंचे सन्त थे। उनका मानना है कि ईश्वर दिखावे से नहीं प्राप्त हो सकते हैं। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उनमें पूर्ण समर्पण की आवश्यकता है। कबीर कहते हैं कि लोग ईश्वर की प्राप्ति के लिए बाह्य आडंबर करते हैं पर पूर्ण समर्पण नहीं करते। इस पर कबीर कहते हैं कि माला फेरना तब तक व्यर्थ है जब तक ईश्वर में चित्त को पूर्ण रूप से न लगा दिया जाए तब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

कबीर माला काठ की, कहिए समझावै  तोहि।
मन न फिरावै आपणां, कहा फिरावै मोंहि।।

निष्कर्ष

कबीर की भक्ति भावना में प्रेम को आकर्षक और प्रभावी महत्व दिया गया है उनका मानना है कि मानव प्रेम में भी ईश्वर की कृपा होती है कन कन में समाया राम ही मानवतावादी दृष्टिकोण का प्रेरणाधार है कबीर के सच्चे भक्त थे विभक्ति की महिमा गाते नहीं अघाते।भक्ति ही जीवन को व्यर्थ बताते हैं ऐसा व्यक्ति बार-बार जन्म लेकर संसार में आता जाता रहता है। कबीर की भक्ति सहज है। वे ऐसे मंदिर के पुजारी है जिसकी फर्ष हरी हरी घास जिस की दीवारें दसों दिशाएं हैं जिसकी छत नीले आसमान की छतरी है या साधना स्थान सभी मनुष्य के लिए खुला है। कबीर की भक्ति में एकग्र मन, सतत साधना, मानसिक पूजा अर्चना, मानसिक जाप और सत्संगति को विशेष महत्व दिया गया है। इस प्रकार कबीर की भक्ति भावना बहुत ही अद्भुत है।

 

इन्हें भी पढ़े : कृष्ण काव्याधारा की प्रमुख विशेषता।।   सूरदास का वात्सल्य वर्णन।।   बिहारी को गागर मे सागर भरने वाला कवि क्यों कहा जाता है।।   द्विवेदी युग की प्रमुख विशेषता।।   मीरा की काव्यागत विशेषता ।। भारतेन्दु युग की विशेषता।।  प्रगतिवाद की विशेषता।।  भक्तिकाल की प्रमुख विशेषता ।। कबीर की काव्य भाषा शैली की विशेषता ।।  कबीर के रहस्यवाद ।। कबीर दास की विद्रोही भावना ।। कबीर एक समाज सुधारक ।। राम भक्ति काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएँ ।।   हिंदी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन और नामकरण

2 thoughts on “कबीर की भक्ति भावना का वर्णन कीजिए (kabir ki bhakti bhavna ka vishleshan kijiye)”

Leave a Comment