भक्तिकाल की परिस्थितियाँ
भक्तिकाल (1350 ई. से 1700 ई.) भारतीय इतिहास और साहित्य का वह महत्वपूर्ण दौर था, जिसमें भक्ति आंदोलन के माध्यम से सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक परिवर्तन की एक जबरदस्त लहर उठी। यह काल उस समय सामने आया, जब भारतवर्ष विभिन्न संकटों से जूझ रहा था – राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक अन्याय, धार्मिक पाखंड और सांस्कृतिक विखंडन जैसे हालातों में जनता मानसिक रूप से व्यथित थी।
ऐसे परिप्रेक्ष्य में भक्ति आंदोलन ने समाज को एक नई चेतना, ऊर्जा और दिशा दी। इसे समझने के लिए आवश्यक है कि उस काल की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और आर्थिक परिस्थितियों का क्रमबद्ध और गहराई से अध्ययन किया जाए।
1. राजनीतिक परिस्थितियाँ – अस्थिर शासन और विदेशी आक्रमणों का युग
भक्तिकाल की शुरुआत उस समय हुई जब दिल्ली सल्तनत का शासन था, और विभिन्न तुर्क, अफगान तथा लोधी वंशों के सुल्तान भारत पर शासन कर रहे थे। इसके बाद 1526 में बाबर ने पानीपत का प्रथम युद्ध जीतकर मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की।
इस काल की प्रमुख विशेषताएँ:
- लगातार हो रहे विदेशी आक्रमण (मंगोल, तैमूर, बाबर आदि)।
- राजनीतिक सत्ता के लिए चल रहे संघर्ष और अस्थिर शासन व्यवस्था।
- हिंदू समाज पर धार्मिक अत्याचार, मंदिरों का विध्वंस और जबरन धर्म परिवर्तन।
- प्रशासन में जनता की कोई भागीदारी नहीं, केवल सुल्तानों और नवाबों का प्रभुत्व।
इन हालातों ने आम लोगों को भय, असुरक्षा और अराजकता की स्थिति में धकेल दिया। राजा-प्रजा के संबंध टूट चुके थे और जनता को मानसिक व भौतिक शांति की तलाश थी। यही कारण था कि भक्ति आंदोलन को इस काल में व्यापक समर्थन मिला।
2. सामाजिक परिस्थितियाँ – छुआछूत और जातिवाद का बोलबाला
भक्तिकाल में भारत की सामाजिक संरचना जातिवादी व्यवस्था पर आधारित थी। वर्ण व्यवस्था ने ऊँच-नीच और भेदभाव को जन्म दिया:
- ब्राह्मणवाद का वर्चस्व – धार्मिक क्रियाकलाप केवल ब्राह्मणों के अधीन।
- शूद्र और दलितों की उपेक्षा – उन्हें मंदिरों में प्रवेश, शिक्षा और धार्मिक अधिकार से वंचित किया गया।
- नारी की स्थिति – स्त्रियों को भी शिक्षा, स्वतंत्रता और अधिकारों से वंचित रखा गया। पर्दा प्रथा और सती प्रथा जैसी कुरीतियाँ प्रचलित थीं।
इन स्थितियों के विरुद्ध कबीर, रैदास, दादू, और अन्य संतों ने कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा:
“जाति ना पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।” — कबीर
भक्ति आंदोलन ने समता, बंधुत्व और प्रेम का संदेश देकर समाज में एक समानाधिकार की भावना का संचार किया।
3. धार्मिक परिस्थितियाँ – पाखंड और कर्मकांड की चरम सीमा
भक्तिकाल में धर्म का मूल स्वरूप पूरी तरह विकृत हो चुका था:
- हिंदू धर्म में यज्ञ, पूजा, हवन, मंत्रोच्चार आदि कर्मकांड ही मुख्य साधन रह गए थे।
- धार्मिक गुरु धर्म के नाम पर जनता का शोषण कर रहे थे।
- इस्लाम धर्म में भी कट्टरपंथ और कठोर नियमों का बोलबाला था।
- ईश्वर और मोक्ष को केवल कुछ विशिष्ट जातियों और माध्यमों से ही प्राप्त करने की संकल्पना थी।
इसी पृष्ठभूमि में भक्ति संतों ने घोषणा की कि ईश्वर न तो मूर्ति में है, न मंदिर में, वह तो हर जीव में समाहित है। भक्ति का मार्ग सरल है – प्रेम, सुमिरन और सेवा।
“पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार,
ताते तो चाकी भली, पीस खाय संसार।” — कबीर
4. सांस्कृतिक परिस्थितियाँ – खंडितता से एकता की ओर
भारत एक सांस्कृतिक विविधताओं से भरा देश था – अनेक जातियाँ, धर्म, भाषा, रीति-रिवाज़। लेकिन इसी विविधता में एकता का अभाव था। लोग अपने-अपने संप्रदायों में सीमित हो गए थे।
भक्ति आंदोलन ने:
- भाषाई सीमाएँ तोड़ीं – ब्रज, अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, पंजाबी जैसी भाषाओं को साहित्य का माध्यम बनाया।
- धार्मिक समन्वय को बढ़ावा दिया – हिंदू और मुस्लिम संतों ने एकता, मानवता और प्रेम का प्रचार किया।
- लोक परंपराओं को अपनाया – रचनाएँ आम जन की भाषा और भावनाओं से जुड़ी थीं।
इससे संपूर्ण भारतवर्ष में एक समरस सांस्कृतिक चेतना का उदय हुआ, जो क्षेत्रीयता और संप्रदायवाद से ऊपर थी।
5. आर्थिक परिस्थितियाँ – करों और लूट से त्रस्त जनजीवन
भक्तिकाल में जनता की आर्थिक स्थिति भी अत्यंत दयनीय थी:
- युद्धों और प्रशासनिक खर्चों के कारण करों का बोझ बढ़ गया था।
- किसानों को अपनी उपज का बड़ा भाग कर के रूप में देना पड़ता था।
- कारीगर, व्यापारी और मजदूर वर्ग भी आर्थिक अस्थिरता से ग्रस्त थे।
- प्राकृतिक आपदाएँ और युद्धों की लूटमार ने स्थिति को और बदतर बना दिया।
इस पृष्ठभूमि में भक्ति आंदोलन ने मानवता और सेवा के मूल्य स्थापित किए, जिससे लोगों को मानसिक संबल मिला।
6. साहित्यिक परिस्थितियाँ – संस्कृत से जनभाषा की ओर बदलाव
भक्तिकाल से पूर्व साहित्य संस्कृत, फारसी या दरबारी भाषा में होता था, जो आम जनता की समझ से बाहर थी। लेकिन भक्तिकाल के कवियों ने:
- जनभाषाओं (अवधी, ब्रज, भोजपुरी आदि) में रचनाएँ कीं।
- लोकगीतों, भजनों और दोहों को माध्यम बनाकर ज्ञान और भक्ति का प्रचार किया।
- साहित्य को जन-जन का साहित्य बनाया – जिसमें हर वर्ग, जाति, धर्म और लिंग के लोग सहभागी हो सके।
यह साहित्य केवल मनोरंजन या ज्ञान नहीं, बल्कि मानव कल्याण और सामाजिक जागरण का उपकरण बना।
निष्कर्ष
भक्तिकाल की परिस्थितियाँ भारत के इतिहास का एक अत्यंत संकटग्रस्त और उथल-पुथल वाला समय थीं। राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक विषमता, धार्मिक कट्टरता, आर्थिक शोषण और सांस्कृतिक विखंडन से पीड़ित भारत को उस समय एक ऐसे आंदोलन की आवश्यकता थी जो लोगों को जोड़ सके, सांत्वना दे सके, दिशा दिखा सके।
भक्ति आंदोलन और इसके संतों ने इस आवश्यकता को पूर्ण किया। उन्होंने ईश्वर के प्रति निःस्वार्थ प्रेम, सामाजिक समानता, और मानवता को केंद्र में रखकर एक आध्यात्मिक और सामाजिक क्रांति की शुरुआत की। यही कारण है कि भक्तिकाल न केवल हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहलाया, बल्कि भारतीय समाज के निर्माण का आधार भी बना।
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