भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए

भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए, भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियां पर प्रकाश डालिए, भक्तिकाल को स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है

भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए

हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में बांटा गया है
आदिकाल
भक्ति काल
रीतिकाल
आधुनिक काल
भक्ति काल की निम्नलिखित प्रवृतियां हैै

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भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएं

(1) नाम का महत्व

(2) गुरु की महत्ता 

(3) भक्तिभावना की प्रधानता

(4) व्यक्तिगत अनुभव की प्रधानता

(5) ‌ अंह भाव का अभाव

(6) साधु संगति का महत्व

(7) स्वान्त: सुखाई रचना

(8) लोक कल्याण की भावना 

(9) भारतीय संस्कृति के आदर्शों की स्थापना

(10) समन्वयकारी साहित्य

(11) सम्मोहक संगीतात्मकता

(12) काव्यरूपों की विविधता

(13) भक्ति काल की भाषा 

(14) अलंकार, रस एवं छन्द

(1) नाम का महत्व:-

 जप भजन, कृतन आदि के रूप में भगवान के नाम के महता संतो, सूफियों और भक्तों ने स्वीकार की है, कभी कहते हैं:-“सभी रसायन हम करें, नहीं नाम सम कोई‌” सूफियों और कृष्णा भक्तों ने कीर्तन को बहुत महत्व नदिया है। सूरदास कहते हैं:-“भरोसो नाम को भारी।”तुलसी की तो धारना ही है कि उनके सर्वसंबंध राम का नाम महिमा का वर्णन ठीक से नहीं कर सकते।

(2) गुरु की महत्ता :-

ईश्वर अनुभवग्मय है। उसका अनुभव गुरु ही करा सकता है। इसलिए सभी भक्तों गुरु महिमा का गान किया है। कबीर ने कहा है:-“गुरु बड़े गोविंद के मन में देख विचार”, इसी प्रकार सूरदास, तुलसीदास ने भी गुरु की महिमा की है।

(3) भक्तिभावना की प्रधानता:-

 भक्ति भावना की प्रधानता को भक्ति काल के सभी शाखाओं के कवियों ने स्वीकार किया है। कबीर कहते है:- “हरीभक्ति जाने बिना बड़ि मूआ संसार”सूफियों ने प्रेम को ही भक्ति का रूप माना है। सूरदास की गोपिया भक्ति की प्रशंसा करते हुए उधर से कहती है-“भक्ति विरोधी जान तिहारों।”तुलसीदास ने भक्ति को जान से भी बढ़कर माना है।

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(4) व्यक्तिगत अनुभव की प्रधानता:-

 भक्ति काल के कवियों की रचनाओं में उनके व्यक्तिगत अनुभव की प्रधानता है। इस काल के प्राय: सभी कवि तीर्थ यात्रा या सत्संग कमना से प्रेरित हो देश भ्रमण करने वाले थे। कबीर कहते है:-“पेड़ गुने मत्ति होई मै सांझे पाया सोई” सूरदास के सूरसागर में व्यक्तिगत अनुभव की प्रधानता दी गई है। तुलसीदास पढ़े लिखे होने पर भी पुस्तक ज्ञान को महत्व नहीं देते। वे प्रेम और व्यक्तिगत साधना कोई प्रधानता देते है।

(5) ‌ अंह भाव का अभाव:-

मनुष्य के अंह भाव का जब तक विनाश नहीं होता तब तक वह भगवत प्राप्ति एवं मोक्ष से बहुत दूर रहता है। दीनता का आश्रय लेकर अन्य भाव से भगवान के शरण में जाने का उपदेश सभी भक्तों ने दिया है।

(6) साधु संगति का महत्व:-

 शातसंग का गुणगान सभी शाखाओं के कवियों ने किया है। कबीर का कथन है- “कबीर संगति साधु की हरे और की व्यादी”

(7) स्वान्त: सुखाई रचना:-

  भक्ति-साहित्य के प्रणेता संसार-त्यागी संत थे। वे आदिकाल या रीतिकाल के कवियों की तरह दरबारों में रहकर आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए नहीं लिखते थे। आत्मतृप्ति के लिए उनका लेखन था। इसीलिए संत कुंभन दास कहते हैं- ‘संतन को कहाँ सीकरी सो काम तथा सूरदास सम्राट अकबर से कहते हैं- ‘नाहि रह्यो चित में ठौर। संतो एवं भक्तों का काव्य स्वामिनः सुखाय न होकर स्वान्तः सुखाय और बहुजन हिताय है। वह किसी राजा की फरमाइश पर लिखा जाने वाला साहित्य नहीं है। उसमें निश्छल आत्माभिव्यक्ति है। भक्ति काल की रचनाएं स्वान्त सुखाई रची गई है। कृष्णा भक्त अष्टछाप के कवि-“शनतान का शिकारी कि काम घोषणा कर राज कृप्या से दूर रहने में ही अपना हित मानते है”।

ये उदाहरण यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि भक्तिकाल के कवियों के रचनाएं सर्वार्थ या यशलिप्सा से प्रेरित होकर नहीं वरन स्वान्ता सुखाई लिखी गई है।

(8) लोक कल्याण की भावना –

भक्तिकाल का साहित्य लोकमंगल के महान आदर्श द्वारा अनुप्राणित है। इसमें सत्य, उल्लास, आनन्द और युगनिर्माणकारिणी प्रेरणा है। भारतीय जनता उस युग में इस साहित्य से प्रेरणा और शक्ति पाती रही है, वर्तमान में भी उसे तृप्ति मिल रही है और भविष्य में भी यह उसका संबल बना रहेगा। तुलसीदास ने लोक कल्याण को ही साहित्य का मूल उद्देश्य माना है।

कीरति भनिति भूति भलि सोई।

सुरसरि सम सब कर हित होई ।

तुलसी ने अपने इस आदर्श की रक्षा के लिए राम तथा सूर ने कृष्ण जी के लोक-रंजक, लोक ने रक्षक चरित्र को जनता के सामने प्रस्तुत किया। कबीर ने सभी सम्प्रदायों में एकता लाने का प्रयास किया। इन सब में लोककल्याण की भावना सर्वोपरि दृष्टिगोचर होती है।

(9) भारतीय संस्कृति के आदर्शों की स्थापना

इस काल के सभी कवियों में भारतीय संस्कृति और उसके आदशों के प्रति गहरी आस्था है। भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति और सभ्यता, आचार और विचार भक्ति साहित्य के सुन्दर कलेवर में सुरक्षित हैं। इसमें सगुण-निर्गुण, भक्ति, योग, दार्शनिकता, आध्यात्मिकता और आदर्श जीवन के भव्य चित्र सन्निहित हैं। कुल मिलाकर भक्ति साहित्य तत्कालीन जनता का उन्नायक, प्रेरक एवं उद्धारकर्ता है। वह भारतीय संस्कृति का सशक्त उपदेष्टा है। राम, कृष्ण,अलख निरंजन और ओंकार का स्मारक है जो आज भी हिन्दू जन-जीवन के लिए प्रातः स्मरणीय है।

(10) समन्वयकारी साहित्य

भक्ति साहित्य साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से ऊपर उठा हुआ महान साहित्य है जिसमें समन्वय की महान चेष्टा दिखाई पड़ती है। इस साहित्य में ऐसी भावनाओं का समावेश है जिनका इस्लाम धर्म से कोई विरोध नहीं है। रामचरितमानस में समन्वय का यह स्वरूप अत्यंत भव्य रूप में दिखाई देता है। तुलसीदासजी ने ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय करके तीर्थराज प्रयाग का निर्माण किया है। वे सबको सीता राममय मानकर प्रणाम करते हैं –

सीयराममय सब जगजानी। करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।

ज्ञानहि, भगतहिं नहिं कछु भेदा उभय हरहिं भव संभव खेदा।।

(11) सम्मोहक संगीतात्मकता

भक्तिकाल में भाव और भाषा, काव्य और संगीत का मणि कांचन योग है। काव्य में संगीतात्मकता के समावेश के लिए जिस आत्म-विश्वास, तीव्र अनुभूति, सहजस्फूर्ति और अन्तःप्रेरणा की आवश्यकता होती है, वह भक्ति काव्य में पर्याप्त मात्रा में है। सूर तुलसी, मीरा, कबीर और बानक के पद सबके हृदयों और कठों में आज तक बसे हैं।

(12) काव्यरूपों की विविधता

 काव्य-रूपों की विविधता की दृष्टि से भी भक्तिकाल काफी समृद्ध है। इसमें प्रबन्धकाव्य, मुक्तक काव्य, सूक्तिकाव्य, संगीतकाव्य, जीवनचरित्र आदि सभी कुछ उपलब्ध होता है।

(13) भक्ति काल की भाषा –

भक्तिकाल के साहित्य की भाषायें अवधी और ब्रजभाषा हैं। तुलसी ने अवधी को और सूर ने ब्रजभाषा को टकसाली और शुद्ध रूप देकर चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया।

(14) अलंकार, रस एवं छन्द-

 अलंकार, रस और छन्द इन तीनों के दृष्टिकोण से भी भक्तिकाल महान है। भक्तिकाल-साहित्य में विविध अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। उसमें रीतिकाल के समान अलंकारों को जबर्दस्ती ढूँसा नहीं गया है। रसों की तो इस साहित्य में धारा ही बह रही है। छन्दों के नपे-तुले प्रयोग हैं।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि विचारों की उदात्तता, भावनाओं एवं अनुभूतियों की उच्चता, कलापक्ष और भावपक्ष की श्रेष्ठता आदि की दृष्टि से भक्तिकालीन साहित्य अतुलनीय है। डॉ० श्यामसुन्दर दांस के शब्दों में, “जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्यवाणी उनके अन्तःकरणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे हिन्दी साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं। निश्चित ही वह हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग था।”

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