भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए, भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियां पर प्रकाश डालिए, भक्तिकाल को स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है
हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में बांटा गया है
आदिकाल
भक्ति काल
रीतिकाल
आधुनिक काल
भक्ति काल की निम्नलिखित प्रवृतियां हैै
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भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएं
(1) नाम का महत्व
(2) गुरु की महत्ता
(3) भक्तिभावना की प्रधानता
(4) व्यक्तिगत अनुभव की प्रधानता
(5) अंह भाव का अभाव
(6) साधु संगति का महत्व
(7) स्वान्त: सुखाई रचना
(8) लोक कल्याण की भावना
(9) भारतीय संस्कृति के आदर्शों की स्थापना
(10) समन्वयकारी साहित्य
(11) सम्मोहक संगीतात्मकता
(12) काव्यरूपों की विविधता
(13) भक्ति काल की भाषा
(14) अलंकार, रस एवं छन्द
(1) नाम का महत्व:-
जप भजन, कृतन आदि के रूप में भगवान के नाम के महता संतो, सूफियों और भक्तों ने स्वीकार की है, कभी कहते हैं:-“सभी रसायन हम करें, नहीं नाम सम कोई” सूफियों और कृष्णा भक्तों ने कीर्तन को बहुत महत्व नदिया है। सूरदास कहते हैं:-“भरोसो नाम को भारी।”तुलसी की तो धारना ही है कि उनके सर्वसंबंध राम का नाम महिमा का वर्णन ठीक से नहीं कर सकते।
(2) गुरु की महत्ता :-
ईश्वर अनुभवग्मय है। उसका अनुभव गुरु ही करा सकता है। इसलिए सभी भक्तों गुरु महिमा का गान किया है। कबीर ने कहा है:-“गुरु बड़े गोविंद के मन में देख विचार”, इसी प्रकार सूरदास, तुलसीदास ने भी गुरु की महिमा की है।
(3) भक्तिभावना की प्रधानता:-
भक्ति भावना की प्रधानता को भक्ति काल के सभी शाखाओं के कवियों ने स्वीकार किया है। कबीर कहते है:- “हरीभक्ति जाने बिना बड़ि मूआ संसार”सूफियों ने प्रेम को ही भक्ति का रूप माना है। सूरदास की गोपिया भक्ति की प्रशंसा करते हुए उधर से कहती है-“भक्ति विरोधी जान तिहारों।”तुलसीदास ने भक्ति को जान से भी बढ़कर माना है।
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(4) व्यक्तिगत अनुभव की प्रधानता:-
भक्ति काल के कवियों की रचनाओं में उनके व्यक्तिगत अनुभव की प्रधानता है। इस काल के प्राय: सभी कवि तीर्थ यात्रा या सत्संग कमना से प्रेरित हो देश भ्रमण करने वाले थे। कबीर कहते है:-“पेड़ गुने मत्ति होई मै सांझे पाया सोई” सूरदास के सूरसागर में व्यक्तिगत अनुभव की प्रधानता दी गई है। तुलसीदास पढ़े लिखे होने पर भी पुस्तक ज्ञान को महत्व नहीं देते। वे प्रेम और व्यक्तिगत साधना कोई प्रधानता देते है।
(5) अंह भाव का अभाव:-
मनुष्य के अंह भाव का जब तक विनाश नहीं होता तब तक वह भगवत प्राप्ति एवं मोक्ष से बहुत दूर रहता है। दीनता का आश्रय लेकर अन्य भाव से भगवान के शरण में जाने का उपदेश सभी भक्तों ने दिया है।
(6) साधु संगति का महत्व:-
शातसंग का गुणगान सभी शाखाओं के कवियों ने किया है। कबीर का कथन है- “कबीर संगति साधु की हरे और की व्यादी”
(7) स्वान्त: सुखाई रचना:-
भक्ति-साहित्य के प्रणेता संसार-त्यागी संत थे। वे आदिकाल या रीतिकाल के कवियों की तरह दरबारों में रहकर आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए नहीं लिखते थे। आत्मतृप्ति के लिए उनका लेखन था। इसीलिए संत कुंभन दास कहते हैं- ‘संतन को कहाँ सीकरी सो काम तथा सूरदास सम्राट अकबर से कहते हैं- ‘नाहि रह्यो चित में ठौर। संतो एवं भक्तों का काव्य स्वामिनः सुखाय न होकर स्वान्तः सुखाय और बहुजन हिताय है। वह किसी राजा की फरमाइश पर लिखा जाने वाला साहित्य नहीं है। उसमें निश्छल आत्माभिव्यक्ति है। भक्ति काल की रचनाएं स्वान्त सुखाई रची गई है। कृष्णा भक्त अष्टछाप के कवि-“शनतान का शिकारी कि काम घोषणा कर राज कृप्या से दूर रहने में ही अपना हित मानते है”।
ये उदाहरण यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि भक्तिकाल के कवियों के रचनाएं सर्वार्थ या यशलिप्सा से प्रेरित होकर नहीं वरन स्वान्ता सुखाई लिखी गई है।
(8) लोक कल्याण की भावना –
भक्तिकाल का साहित्य लोकमंगल के महान आदर्श द्वारा अनुप्राणित है। इसमें सत्य, उल्लास, आनन्द और युगनिर्माणकारिणी प्रेरणा है। भारतीय जनता उस युग में इस साहित्य से प्रेरणा और शक्ति पाती रही है, वर्तमान में भी उसे तृप्ति मिल रही है और भविष्य में भी यह उसका संबल बना रहेगा। तुलसीदास ने लोक कल्याण को ही साहित्य का मूल उद्देश्य माना है।
कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कर हित होई ।
तुलसी ने अपने इस आदर्श की रक्षा के लिए राम तथा सूर ने कृष्ण जी के लोक-रंजक, लोक ने रक्षक चरित्र को जनता के सामने प्रस्तुत किया। कबीर ने सभी सम्प्रदायों में एकता लाने का प्रयास किया। इन सब में लोककल्याण की भावना सर्वोपरि दृष्टिगोचर होती है।
(9) भारतीय संस्कृति के आदर्शों की स्थापना
इस काल के सभी कवियों में भारतीय संस्कृति और उसके आदशों के प्रति गहरी आस्था है। भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति और सभ्यता, आचार और विचार भक्ति साहित्य के सुन्दर कलेवर में सुरक्षित हैं। इसमें सगुण-निर्गुण, भक्ति, योग, दार्शनिकता, आध्यात्मिकता और आदर्श जीवन के भव्य चित्र सन्निहित हैं। कुल मिलाकर भक्ति साहित्य तत्कालीन जनता का उन्नायक, प्रेरक एवं उद्धारकर्ता है। वह भारतीय संस्कृति का सशक्त उपदेष्टा है। राम, कृष्ण,अलख निरंजन और ओंकार का स्मारक है जो आज भी हिन्दू जन-जीवन के लिए प्रातः स्मरणीय है।
(10) समन्वयकारी साहित्य
भक्ति साहित्य साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से ऊपर उठा हुआ महान साहित्य है जिसमें समन्वय की महान चेष्टा दिखाई पड़ती है। इस साहित्य में ऐसी भावनाओं का समावेश है जिनका इस्लाम धर्म से कोई विरोध नहीं है। रामचरितमानस में समन्वय का यह स्वरूप अत्यंत भव्य रूप में दिखाई देता है। तुलसीदासजी ने ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय करके तीर्थराज प्रयाग का निर्माण किया है। वे सबको सीता राममय मानकर प्रणाम करते हैं –
सीयराममय सब जगजानी। करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।
ज्ञानहि, भगतहिं नहिं कछु भेदा उभय हरहिं भव संभव खेदा।।
(11) सम्मोहक संगीतात्मकता
भक्तिकाल में भाव और भाषा, काव्य और संगीत का मणि कांचन योग है। काव्य में संगीतात्मकता के समावेश के लिए जिस आत्म-विश्वास, तीव्र अनुभूति, सहजस्फूर्ति और अन्तःप्रेरणा की आवश्यकता होती है, वह भक्ति काव्य में पर्याप्त मात्रा में है। सूर तुलसी, मीरा, कबीर और बानक के पद सबके हृदयों और कठों में आज तक बसे हैं।
(12) काव्यरूपों की विविधता
काव्य-रूपों की विविधता की दृष्टि से भी भक्तिकाल काफी समृद्ध है। इसमें प्रबन्धकाव्य, मुक्तक काव्य, सूक्तिकाव्य, संगीतकाव्य, जीवनचरित्र आदि सभी कुछ उपलब्ध होता है।
(13) भक्ति काल की भाषा –
भक्तिकाल के साहित्य की भाषायें अवधी और ब्रजभाषा हैं। तुलसी ने अवधी को और सूर ने ब्रजभाषा को टकसाली और शुद्ध रूप देकर चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया।
(14) अलंकार, रस एवं छन्द-
अलंकार, रस और छन्द इन तीनों के दृष्टिकोण से भी भक्तिकाल महान है। भक्तिकाल-साहित्य में विविध अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। उसमें रीतिकाल के समान अलंकारों को जबर्दस्ती ढूँसा नहीं गया है। रसों की तो इस साहित्य में धारा ही बह रही है। छन्दों के नपे-तुले प्रयोग हैं।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि विचारों की उदात्तता, भावनाओं एवं अनुभूतियों की उच्चता, कलापक्ष और भावपक्ष की श्रेष्ठता आदि की दृष्टि से भक्तिकालीन साहित्य अतुलनीय है। डॉ० श्यामसुन्दर दांस के शब्दों में, “जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्यवाणी उनके अन्तःकरणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे हिन्दी साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं। निश्चित ही वह हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग था।”
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भक्तिकाल का स्वर्ण युग/भक्तिकाल को स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है
१. साहित्य का स्वर्ण युग
भक्तिकाल हिंदी साहित्य के इतिहास में एक स्वर्णिम काल माना जाता है क्योंकि इस समय में अनेक महान संत-कवि जन्मे, जिन्होंने जनभाषा में अत्यंत प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी काव्य की रचना की। तुलसीदास, सूरदास, कबीर, मीराबाई, रैदास आदि संत कवियों ने भक्ति, प्रेम, करुणा और मानवता से ओतप्रोत रचनाएँ लिखीं जो आज भी प्रासंगिक हैं। उनका साहित्य न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से मूल्यवान है, बल्कि साहित्यिक रूप से भी अत्यंत समृद्ध है।
२. धार्मिक एकता और सामाजिक सुधार
भक्तिकाल में संत कवियों ने समाज में व्याप्त जातिवाद, धार्मिक कट्टरता और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई। कबीर, रैदास और दादू जैसे संतों ने हिंदू-मुस्लिम एकता, मानवतावाद और समता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि ईश्वर एक है और सभी मनुष्य उसके समान पुत्र हैं। इस प्रकार यह काल समाज में एकता, सहिष्णुता और भाईचारे की भावना का प्रचारक बना।
३. लोकभाषाओं का उत्थान
इस काल के कवियों ने संस्कृत जैसी कठिन भाषा के स्थान पर अवधी, ब्रज, भोजपुरी, राजस्थानी जैसी लोकभाषाओं में काव्य रचना की, जिससे उनकी रचनाएँ आम जनता तक सीधे पहुँच सकीं। इससे न केवल जनता में भक्ति और धार्मिक चेतना का विकास हुआ, बल्कि क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों को भी साहित्यिक स्वरूप प्राप्त हुआ। यही कारण है कि भक्तिकाल का साहित्य आज भी लोगों की जुबान और दिल में जीवित है।
४. आध्यात्मिक जागरण का युग
भक्तिकाल ने धर्म को कर्मकांडों और बाह्य आडंबरों से मुक्त कर आत्मा और परमात्मा के मिलन की सीधी साधना को प्राथमिकता दी। निर्गुण और सगुण भक्ति की दो धाराओं ने अलग-अलग रूपों में ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग सुझाया। कबीर जैसे संतों ने निर्गुण ईश्वर की भक्ति को अपनाया, जबकि तुलसीदास और सूरदास ने राम और कृष्ण जैसे सगुण देवताओं की भक्ति को लोकप्रिय बनाया। इससे समाज में आध्यात्मिक चेतना का प्रसार हुआ।
५. नारी चेतना और स्वतंत्रता
भक्तिकाल में मीराबाई जैसी कवियित्री ने सामाजिक बंधनों और रूढ़ियों को चुनौती देते हुए कृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाया। उनका जीवन और रचनाएँ नारी स्वतंत्रता, आत्मबल और समर्पण की मिसाल बनीं। मीराबाई ने दिखाया कि भक्ति का मार्ग न केवल पुरुषों के लिए, बल्कि महिलाओं के लिए भी समान रूप से खुला है। इसने नारी चेतना को एक नई दिशा दी।
६. संगीत और कला का विकास
इस काल में भक्ति संगीत, कीर्तन और भजन की परंपरा का विस्तार हुआ, जिसने लोगों के हृदय में भक्ति भाव जगाया। सूरदास के पद, तुलसीदास की चौपाइयाँ और मीराबाई के भजन आज भी संगीत में गाए जाते हैं। इससे भारतीय संगीत और कला को भी गहरी प्रेरणा मिली और एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का निर्माण हुआ।
निष्कर्ष
भक्तिकाल को स्वर्ण युग इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस काल में साहित्य, धर्म, समाज, संस्कृति और भाषा सभी क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई। यह काल धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक सुधार और आध्यात्मिक जागरण का प्रतीक बना। जनभाषा में लिखे गए भक्ति साहित्य ने न केवल जनमानस को जोड़ा, बल्कि भारतीय संस्कृति को भी समृद्ध किया। यही सब कारण हैं कि भक्तिकाल भारतीय इतिहास का एक अद्वितीय स्वर्णिम अध्याय बन गया।
भक्तिकाल की भाषाएं
भक्तिकाल, जिसे हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है, लगभग 14वीं से 17वीं शताब्दी के मध्य का समय है। इस युग की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इसमें साहित्य का माध्यम संस्कृत जैसी कठिन और सीमित भाषा न होकर जनभाषाएं बनीं। कवियों ने अपनी रचनाएं ऐसी भाषाओं में लिखीं जो आम जनता की बोली और समझ के अनुसार थीं। इससे न केवल भक्ति आंदोलन को गति मिली, बल्कि इन भाषाओं ने भी साहित्यिक पहचान और समृद्धि प्राप्त की।
आइए विस्तार से जानते हैं कि भक्तिकाल में कौन-कौन सी भाषाएं प्रचलित थीं और उनकी क्या विशेषताएं थीं।
१. अवधी – रामभक्ति की प्रमुख भाषा
अवधी भाषा उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों में बोली जाने वाली एक लोकभाषा है। भक्तिकाल में यह भाषा विशेष रूप से रामभक्ति शाखा के संत कवियों की प्रिय रही। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस, कवितावली, विनयपत्रिका जैसी प्रसिद्ध रचनाएं अवधी में लिखीं।
अवधी की मधुरता, सरलता और भावनात्मक गहराई ने इसे जनमानस के हृदय में स्थापित कर दिया। तुलसीदास की भाषा में गहरी धार्मिक आस्था, भक्ति भाव, नीति, और जन-कल्याण का दर्शन मिलता है। अवधी भाषा ने भक्ति साहित्य को आम लोगों की आत्मा से जोड़ दिया।
२. ब्रजभाषा – कृष्णभक्ति का रसपूर्ण माध्यम
ब्रजभाषा उत्तर भारत की एक प्रसिद्ध लोकभाषा है, जो मथुरा, वृंदावन और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में बोली जाती है। भक्तिकाल में यह कृष्णभक्ति शाखा के कवियों की मुख्य भाषा बनी।
सूरदास के सूरसागर, रसखान के कृष्ण पद, मीराबाई के भजन आदि ब्रजभाषा में रचित हैं। इस भाषा की सबसे बड़ी विशेषता इसकी भावनात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता है। वात्सल्य, श्रृंगार और भक्ति जैसे भावों को व्यक्त करने में ब्रजभाषा अतुलनीय है। इसने कृष्ण की लीलाओं को मानवीय और दिव्य दोनों रूपों में प्रस्तुत किया।
३. भोजपुरी – जनभाषा में भक्ति का संदेश
भोजपुरी भाषा बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड के क्षेत्रों में बोली जाती है। भक्तिकाल के समय में यह क्षेत्र निर्गुण भक्ति धारा के कवियों का केंद्र बना।
संत कबीर, संत रैदास, धन्ना, और अन्य अनेक संतों की रचनाएं भोजपुरी और खड़ी बोली मिश्रित भाषा में मिलती हैं।
भोजपुरी में लिखे गए दोहे और साखियाँ सीधे आम लोगों के जीवन से जुड़ी होती थीं – वे नीतिपरक, व्यंग्यात्मक और आध्यात्मिक ज्ञान से भरी होती थीं। यह भाषा अत्यंत प्रभावशाली और व्यावहारिक थी, जिससे संतों का संदेश बिना किसी बाधा के जन-जन तक पहुँच सका।
४. राजस्थानी – भक्ति और वीरता का संगम
राजस्थानी भाषा, जिसे कई उपबोलियों जैसे मारवाड़ी, मेवाड़ी, डिंगल आदि में विभाजित किया जाता है, ने भी भक्तिकालीन साहित्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
मीराबाई, जो मेवाड़ की राजकुमारी थीं, ने अपनी भक्ति को अभिव्यक्त करने के लिए राजस्थानी भाषा और ब्रजभाषा दोनों का प्रयोग किया।
राजस्थानी में लिखी गई रचनाएं भक्ति के साथ-साथ नारी स्वतंत्रता, सामाजिक जागरूकता और आत्मबल का प्रतीक भी हैं। मीराबाई की कविता में भक्ति और विद्रोह दोनों स्वर दिखाई देते हैं।
५. पंजाबी – गुरुवाणी का प्रकाश
भक्तिकाल के दौरान पंजाब क्षेत्र में गुरु नानक देव और उनके उत्तराधिकारी गुरुओं ने पंजाबी भाषा में धार्मिक और सामाजिक संदेश दिए।
गुरुग्रंथ साहिब में संकलित रचनाएं पंजाबी भाषा में हैं, जिनमें भक्ति, मानवता, सच्चाई, और न्याय का संदेश प्रमुखता से मिलता है।
पंजाबी भाषा की सरलता और जनसुलभता ने इसे एक प्रभावशाली धार्मिक भाषा बना दिया। गुरुवाणी ने सामाजिक एकता और सेवा भाव को बढ़ावा दिया।
६. खड़ी बोली – नई हिंदी का प्रारंभिक रूप
खड़ी बोली उस समय एक उभरती हुई भाषा थी, जिसे आज की आधुनिक हिंदी का आधार माना जाता है। भक्तिकाल में खड़ी बोली का प्रयोग सीमित रूप में हुआ, परंतु संत कबीर जैसे कवियों की भाषा में खड़ी बोली, भोजपुरी और ब्रजभाषा का मिश्रण मिलता है।
खड़ी बोली के माध्यम से कबीर ने अपने दोहों में सामाजिक कटाक्ष, धार्मिक सुधार और आत्मज्ञान की बातें कहीं, जिससे यह भाषा भी धीरे-धीरे साहित्यिक पहचान पाने लगी।
७. फारसी और उर्दू शब्दों का प्रभाव
भक्तिकाल में मुस्लिम संत कवियों और सूफी कवियों की रचनाओं में फारसी और प्रारंभिक उर्दू के शब्द भी दिखाई देते हैं।
कबीर, रहीम, रसखान आदि कवियों ने ऐसी भाषा का प्रयोग किया जिसमें संस्कृत, अरबी, फारसी और देशज शब्दों का अनूठा संगम था।
इस भाषायी मिश्रण ने भारतीय साहित्य में सांस्कृतिक समन्वय की मिसाल कायम की।
निष्कर्ष
भक्तिकाल की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें भाषा का माध्यम आम जनता की बोली बनी, न कि उच्च वर्ग की सीमित भाषा। इसने साहित्य को जनता से जोड़ा और समाज में व्यापक धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जागरूकता फैलाई। अवधी, ब्रज, भोजपुरी, राजस्थानी, पंजाबी जैसी भाषाओं ने न केवल भक्ति साहित्य को समृद्ध किया बल्कि इनकी साहित्यिक गरिमा को भी बढ़ाया। भक्तिकाल की ये भाषाएं आज भी जीवंत हैं और भारतीय संस्कृति की आत्मा को अभिव्यक्त करती हैं।
भक्तिकाल की परिस्थितियाँ
भक्तिकाल (1350 ई. – 1700 ई.) भारतीय इतिहास और हिंदी साहित्य दोनों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण युग था। यह वह समय था जब देश की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक स्थितियाँ गहरे परिवर्तन से गुजर रही थीं। इन जटिल परिस्थितियों में भक्ति आंदोलन ने जनमानस को एक नई दिशा दी और साहित्य के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया।
आइए एक-एक करके उस समय की प्रमुख परिस्थितियों को विस्तारपूर्वक समझते हैं:
१. राजनीतिक परिस्थितियाँ
भक्तिकाल के समय भारत में दिल्ली सल्तनत और बाद में मुग़ल साम्राज्य का शासन था। विदेशी आक्रमण, लगातार युद्ध, सत्ता संघर्ष और राजनीतिक अस्थिरता के कारण देश में चारों ओर अराजकता फैली हुई थी।
हिंदू और मुस्लिम शासकों के बीच संघर्ष, जबरन धर्म परिवर्तन, मंदिरों का विध्वंस और अत्याचार आम बात हो गई थी। इन परिस्थितियों में जनमानस व्याकुल और असुरक्षित महसूस कर रहा था।
ऐसे समय में भक्ति आंदोलन एक मानसिक शांति और आध्यात्मिक संबल का स्रोत बना।
२. सामाजिक परिस्थितियाँ
समाज में जातिवाद, ऊँच-नीच का भेद, अस्पृश्यता, अंधविश्वास, कर्मकांड और धार्मिक पाखंड अपने चरम पर थे। ब्राह्मणवाद का बोलबाला था और समाज में निचली जातियों को सम्मान नहीं मिलता था।
सामान्य जनता धार्मिक और सामाजिक शोषण से पीड़ित थी।
भक्ति संतों जैसे कबीर, रैदास, दादू, आदि ने इन सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई और समता, भाईचारा और मानवता का संदेश दिया।
३.धार्मिक परिस्थितियाँ
धर्म का स्वरूप उस समय अत्यधिक जटिल और कर्मकांडपूर्ण हो चुका था। लोगों को मोक्ष और ईश्वर तक पहुँचने के लिए पंडितों और मौलवियों पर निर्भर रहना पड़ता था।
हिंदू धर्म में मूर्ति पूजा, यज्ञ, हवन और ब्राह्मणों के वर्चस्व ने धर्म को केवल रस्मों तक सीमित कर दिया था, जबकि इस्लाम में सूफी संतों के अलावा कठोरता और कट्टरता का प्रभाव बढ़ रहा था।
ऐसे समय में भक्ति आंदोलन ने कहा कि ईश्वर तक पहुँचने के लिए कोई माध्यम या विशेष जाति आवश्यक नहीं है – बस प्रेम, श्रद्धा और भक्ति चाहिए।
४.आर्थिक परिस्थितियाँ
लगातार युद्धों, लूटमार और करों के बोझ ने आम जनता की आर्थिक स्थिति को अत्यंत दयनीय बना दिया था। किसान, कारीगर और मजदूर वर्ग शोषण का शिकार हो रहे थे।
सामंतवादी व्यवस्था और शासन की भ्रष्ट नीतियों ने गरीब और अमीर के बीच गहरी खाई बना दी थी।
भक्त कवियों ने इन सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध भी अपनी वाणी के माध्यम से आक्रोश प्रकट किया और समाज में समानता और न्याय की बात की।
५.सांस्कृतिक परिस्थितियाँ
उस समय भारत की सांस्कृतिक विविधता भी एक ओर जहाँ गर्व का विषय थी, वहीं दूसरी ओर अलग-अलग जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीय पहचान के कारण लोगों में एकता की कमी थी।
भक्तिकाल के संतों ने भाषाई विविधता को अपनी ताकत बनाया और अवधी, ब्रज, भोजपुरी, पंजाबी, राजस्थानी जैसी लोकभाषाओं में साहित्य रचकर जनमानस को जोड़ा।
इसने भारत की सांस्कृतिक एकता को मजबूत किया।
६.साहित्यिक परिस्थितियाँ
भक्तिकाल से पहले साहित्य मुख्यतः संस्कृत और दरबारी भाषाओं तक सीमित था। ये भाषाएं आम जन तक नहीं पहुँचती थीं।
भक्तिकाल के कवियों ने पहली बार जनभाषा को साहित्य का माध्यम बनाया। इससे साहित्य का लोकतंत्रीकरण हुआ और आम आदमी भी कविता, भक्ति और दर्शन से जुड़ सका।
यह समय साहित्य का जनजागरण काल था।
निष्कर्ष
भक्तिकाल की परिस्थितियाँ राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक विषमता, धार्मिक पाखंड और आर्थिक संकट से भरी हुई थीं। ऐसे कठिन समय में भक्ति आंदोलन एक सांस्कृतिक क्रांति बनकर उभरा।
इसने न केवल धर्म को सरल और सुलभ बनाया, बल्कि समाज को प्रेम, सहिष्णुता, समानता और एकता का मार्ग दिखाया।
इसीलिए भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग और सामाजिक चेतना का आधार स्तंभ माना जाता है।