बिस्मिल्लाह खान का चरित्र चित्रण लिखिए॥ बिस्मिल्ला खाँ की चारित्रिक विशेषताओं को लिखें

‘नौबतखाने में इबादत’ पाठ के आधार पर बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालें॥ बिस्मिल्ला खाँ की चारित्रिक विशेषताओं को लिखें॥ बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देख सकते” – इस कथन के आधार पर बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व की विशेषताएँ लिखिए ॥  बिस्मिल्लाह खान का चरित्र चित्रण लिखिए

‘नौबतखाने में इबादत’ पाठ के आधार पर बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालें॥ बिस्मिल्ला खाँ की चारित्रिक विशेषताओं को लिखें॥ बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देख सकते” – इस कथन के आधार पर बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व की विशेषताएँ लिखिए ॥  बिस्मिल्लाह खान का चरित्र चित्रण लिखिए

उत्तर –

बिस्मिल्ला खाँ भारत के महान शहनाई वादक थे। उनके जीवन और व्यक्तित्व को समझने के लिए यतीन्द्र मिश्र की रचना “नौबतखाने में इबादत” बहुत महत्त्वपूर्ण है। लेखक ने इसमें न सिर्फ बिस्मिल्ला खाँ के संगीत प्रेम को दर्शाया है, बल्कि उनके पूरे व्यक्तित्व को भी सरल और सुंदर भाषा में प्रस्तुत किया है।

उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि कैसे एक व्यक्ति संगीत, सादगी, धर्मनिरपेक्षता और परंपराओं से जुड़े रहकर भी विश्व प्रसिद्ध बन सकता है।

 बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ:

(1) संपूर्ण और प्रेरणादायक व्यक्तित्व के धनी:

बिस्मिल्ला खाँ सिर्फ शहनाई वादक नहीं थे, बल्कि वे एक ऐसे इंसान थे जो सभी धर्मों और संस्कृतियों का सम्मान करते थे।
उन्होंने अपने जीवन में कभी भी धर्म, जाति या वर्ग का भेद नहीं किया।
उन्होंने शहनाई का अभ्यास काशी के बालाजी मंदिर में शुरू किया था। यह बात बताती है कि वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक थे।

उनके अंदर एक संवेदनशील, समझदार और खुला हुआ मन था, जो सभी को समान भाव से देखता था।

(2) सादगी और विनम्रता की मिसाल:

इतने बड़े कलाकार होने के बाद भी बिस्मिल्ला खाँ का जीवन बेहद सादा और जमीन से जुड़ा हुआ था।
वे कभी दिखावा नहीं करते थे। वे साधारण लुंगी पहनते थे और आम जीवन जीते थे।

एक बार जब उनकी शिष्या ने उन्हें फटी लुंगी पहनने पर टोका, तो उन्होंने हँसते हुए कहा –
“ई भारत रत्न हमको शहनाईया पर मिला है, लुंगिया पर नाहीं।”

इस वाक्य से उनकी विनम्रता, व्यवहारिकता और सादगी साफ झलकती है।

(3) सच्चे संगीत साधक और सुर के उपासक:

बिस्मिल्ला खाँ का जीवन पूरी तरह से संगीत को समर्पित था।
वे शहनाई को सिर्फ एक वाद्य यंत्र नहीं, बल्कि पूजा का माध्यम मानते थे।

वे रोज़ सुरों के अभ्यास में घंटों बिताते और भगवान से प्रार्थना करते –
“मेरे मालिक! एक सुर ऐसा दे कि आँखों से सच्चे आँसू निकल जाएँ।”

उनका यह भाव बताता है कि वे संगीत को भक्ति का रूप मानते थे।
उनके लिए सुर ही ईश्वर था और संगीत ही पूजा।

(4) काशी से गहरा और आत्मीय जुड़ाव:

बिस्मिल्ला खाँ को काशी (वाराणसी) से अपार प्रेम था।
वे हमेशा कहते –
“काशी छोड़े के ना… गंगा मइया यहाँ हैं, बाबा विश्वनाथ यहाँ हैं, बालाजी का मंदिर यहाँ है… और मेरे पुरखों ने यहीं शहनाई बजाई है।”

उनके लिए काशी सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक घर था।
वे कहते थे –
“काशी और शहनाई से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर।”
इस बात से स्पष्ट होता है कि उनका जीवन, कला और भावना तीनों काशी से गहराई से जुड़े थे।

(5) धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे के प्रतीक:

बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व की एक और खास बात थी – धर्म और जाति से ऊपर उठकर सभी को एक समान देखना।
वे मुसलमान थे, लेकिन उन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं और परंपराओं का भी पूरा सम्मान किया।
वे मंदिरों में शहनाई बजाते थे और काशी की धार्मिक संस्कृति का हिस्सा बन गए थे।

लेखक ने भी कहा है –
“यहाँ आप बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देख सकते, जैसे आप भक्ति को संगीत से अलग नहीं कर सकते।”
यह वाक्य इस बात का प्रमाण है कि उनका व्यक्तित्व सांप्रदायिक सौहार्द और एकता की मिसाल था।

(6) संगीत के सच्चे सेवक और गौरव:

बिस्मिल्ला खाँ ने 80 साल से भी अधिक समय तक संगीत को समर्पित जीवन जिया।
उनके संगीत को पहचान मिली और उन्हें कई सम्मान भी मिले, जैसे –

  • संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार
  • पद्मभूषण
  • भारत रत्न (देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान)

इसके अलावा उन्हें कई विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधियाँ भी मिलीं।
इन सबके बावजूद वे हमेशा जमीन से जुड़े और नम्र बने रहे।

बिस्मिल्ला खाँ का जीवन एक प्रेरणा है। वे एक ऐसे कलाकार थे जिनके अंदर सच्चा समर्पण, विनम्रता, धार्मिक सौहार्द, भक्ति और देशभक्ति थी।
उनका व्यक्तित्व हमें सिखाता है कि कला धर्म से ऊपर होती है, और सच्चा कलाकार सभी के दिलों को जोड़ता है।

उनकी सादगी, ईमानदारी और संगीत प्रेम के कारण वे हमेशा लोगों के दिलों में जीवित रहेंगे।
सच में, बिस्मिल्ला खाँ को न काशी से और न ही गंगाद्वार से अलग किया जा सकता है।

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