मनुष्य और सर्प कविता का सारांश ।। Manushya Aur Sarp Kavita Ka Saransh

मनुष्य और सर्प कविता का सारांश ।। Manushya Aur Sarp Kavita Ka Saransh

मनुष्य और सर्प कविता का सारांश ।। Manushya Aur Sarp Kavita Ka Saransh

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित ‘मनुष्य और सर्प’ कविता उनके प्रसिद्ध महाकाव्य ‘रश्मिरथी’ से ली गई है, जिसका आधार महाभारत का युद्ध है। इस कविता के माध्यम से कवि ने युद्ध की भीषणता, मानवीय मूल्यों और नैतिकता का गहरा संदेश दिया है। इसमें कर्ण और सर्प (अश्वसेन) के संवाद के माध्यम से यह दिखाया गया है कि एक सच्चा योद्धा छल-कपट की जगह धर्म, ईमानदारी और परिश्रम को महत्व देता है।

कविता की शुरुआत महाभारत के भीषण युद्ध दृश्य से होती है। कवि ने कुरुक्षेत्र की धरती को रक्तरंजित बताते हुए युद्ध की विभीषिका का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। वह बताते हैं कि मनुष्य और पशु दोनों का रक्त युद्धभूमि में मिलकर बह रहा है। यह बताना मुश्किल हो गया है कि खून किसका है – मनुष्य का या पशु का। घोड़ों और हाथियों के अंग कट-कट कर गिर रहे हैं और उनके ऊपर मनुष्यों के अंग गिर रहे हैं। यह भयानक दृश्य युद्ध की निष्ठुरता और क्रूरता को उजागर करता है।

कवि का मानना है कि यह सब मनुष्य की अंतर्निहित ईर्ष्या, अहंकार और कपट के कारण हो रहा है, जो अब एक भयंकर युद्ध के रूप में सामने आया है। मनुष्य अपनी ही बनाई हुई आग में जल रहा है।

कविता में आगे बढ़ते हुए कवि उस समय का वर्णन करते हैं जब युद्ध के मैदान में कर्ण और अर्जुन एक-दूसरे से भिड़ रहे हैं। दोनों ही वीर योद्धा तेज़ी से अपने घोड़ों और रथों के साथ युद्धभूमि में घूमते हुए बाण चला रहे हैं। उनके शौर्य और पराक्रम से आकाश गूंज रहा है। दोनों के बाण इतने शक्तिशाली हैं कि एक-दूसरे को पूरी तरह पराजित कर सकते हैं, लेकिन युद्ध बराबरी का हो रहा है।

इसी बीच कर्ण के तरकस से एक विषैला साँप अश्वसेन निकलता है। यह वही साँप है जिसकी माँ खांडव वन दहन के समय अर्जुन द्वारा लगाई गई आग में मारी गई थी। अश्वसेन कर्ण से प्रार्थना करता है कि वह उसे अपने बाण पर चढ़ाकर अर्जुन तक पहुँचने दे, ताकि वह अपने विष से अर्जुन को मार सके और अपनी माँ की मृत्यु का बदला ले सके।

जब अश्वसेन कर्ण से सहायता माँगता है, तो कर्ण मुस्कराकर साफ मना कर देता है। वह कहता है – “क्या मैं एक मनुष्य होकर, एक सर्प की सहायता से युद्ध जीतूँगा?” कर्ण मानता है कि मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत उसका परिश्रम और बाहुबल होता है। उसे किसी चालाकी या विष की मदद की जरूरत नहीं है।

कर्ण यह भी कहता है कि अगर वह सर्प की सहायता से अर्जुन को मारता है, तो आने वाली पीढ़ियाँ उसे कायर और अधर्मी समझेंगी। लोग यह कहेंगे कि उसने अर्जुन को धोखे और विष से मारा। वह चाहता है कि उसकी वीरता, उसकी निष्ठा और उसकी ईमानदारी ही उसकी पहचान बने।

कर्ण अश्वसेन से कहता है कि अब सर्प केवल जंगलों में नहीं रहते, बल्कि वे मनुष्यों के भीतर भी बसते हैं। कई लोग बाहर से इंसान दिखते हैं, लेकिन उनके भीतर छल, कपट, द्वेष और पाप का विष भरा होता है। ऐसे लोग मानवता के लिए ख़तरा हैं।

वह कहता है कि वह ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे उसके ऊपर कलंक लगे या जिससे लोग यह सोचें कि जीत के लिए उसने पाप का सहारा लिया। कर्ण मानता है कि मनुष्य का संघर्ष केवल इस जीवन तक सीमित होता है – इसलिए वह सांपों जैसा बनकर अर्जुन को नहीं मारना चाहता।

कर्ण, अश्वसेन को स्पष्ट शब्दों में कहता है कि अर्जुन उसका शत्रु है, पर वह भी एक मनुष्य है, न कि कोई सर्प। इसलिए वह किसी पशु की मदद से उसे नहीं मारेगा। वह केवल वीरता और धर्म के रास्ते पर चलकर ही लड़ना चाहता है।

अंत में, वह अश्वसेन को यह कहकर फटकारता है कि वह स्वभाव से ही मनुष्यता का शत्रु है, और ऐसे व्यक्ति से उसकी कोई मित्रता नहीं हो सकती।

‘मनुष्य और सर्प’ कविता केवल महाभारत के युद्ध का दृश्य नहीं है, बल्कि यह एक गहरा नैतिक संदेश भी देती है। यह कविता सिखाती है कि सच्चा बल केवल शक्ति में नहीं, बल्कि चरित्र, निष्ठा और सच्चाई में होता है। कर्ण का चरित्र हमें बताता है कि हमें जीत के लिए कभी भी छल, कपट या अनुचित साधनों का सहारा नहीं लेना चाहिए। यह कविता आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है, क्योंकि आज भी कई लोग बाहरी रूप से इंसान होकर भीतर से ‘सर्प’ जैसे विषैले होते हैं।

कविता का मूल संदेश यही है –
“मनुष्य बनो, सर्प मत बनो। वीरता दिखाओ, विष मत उगलो।”

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