सुभान खाँ कहानी का सारांश ॥ Subhan Khan Kahani Ka Saransh
इस कहानी में लेखक ने सुभान खाँ के चरित्र के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम एकता को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। सुभान खाँ एक नेकदिल और अच्छे राज मिस्त्री थे। उनका शरीर मजबूत था, लंबी सफेद दाढ़ी थी और वे टोपी, कुर्ता, धोती तथा चमड़े के जूते पहनते थे। वे हमेशा भले लोगों की तरह व्यवहार करते थे। उनकी वाणी मधुर थी और चेहरा तेज से भरा रहता था। बचपन में लेखक और सुभान खाँ के बीच गहरा लगाव हो गया था।
सुभान खाँ लेखक से बहुत स्नेह करते थे। उन्होंने लेखक को बताया कि वे मक्का की तीर्थ यात्रा पर जाना चाहते हैं और वहाँ से लेखक के लिए छुआरे जरूर लाएँगे। वे नमाज बहुत ध्यान से पढ़ते थे और ऐसा लगता था जैसे वे अल्लाह से सीधे बात कर रहे हों। उन्होंने लेखक को मक्का के बारे में भी बताया, जहाँ रसूल के दाढ़ी के बाल सुरक्षित हैं।
सुभान खाँ लेखक को कहानियाँ सुनाते, कंधे पर बिठाते और फिर अपने काम में लग जाते। उनके जीवन में दो चीजें सबसे जरूरी थीं – अल्लाह को याद करना और मेहनत करना।
एक बार लेखक को उनकी नानी ने मुहर्रम के मौके पर सुभान खाँ के साथ ताजिये के जुलूस में भेजा। वहाँ लेखक ने दूसरे बच्चों की तरह सज-धजकर हिस्सा लिया। ईद और बकरीद पर सुभान खाँ लेखक को याद करते थे, और दीवाली-होली पर लेखक की नानी उन्हें मिठाइयाँ खिलाती थीं। होली पर लेखक उनकी दाढ़ी में रंग भी लगा देता था।
कुछ समय बाद सुभान खाँ हज करके लौटे और लेखक के लिए छुआरे लेकर आए। अब वे संपन्न हो गए थे, लेकिन उनमें पहले जैसी सादगी और विनम्रता थी। लेखक ने उनके चरणों में अपने प्रेम और श्रद्धा के आँसू अर्पित किए।
सुभान खाँ को एक सुंदर मस्जिद बनवानी थी। आखिरकार उनकी देखरेख में एक सुंदर सी मस्जिद बनकर तैयार हुई, जिसकी लकड़ी लेखक के मामा के बगीचे से गई थी। मस्जिद के उद्घाटन पर उन्होंने सभी हिंदू और मुस्लिम लोगों को बुलाया। मुसलमानों ने नमाज पढ़ी और हिंदुओं के लिए मिठाइयाँ, पान-इलायची की व्यवस्था की गई। लोग आज भी उस दिन की सुभान दादा की मेहमाननवाज़ी को याद करते हैं।
यह कहानी हमें सिखाती है कि प्रेम, आपसी सम्मान और एकता से समाज को सुंदर बनाया जा सकता है।
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