धावक कहानी का सारांश class 10 ।। Dhavak Kahani Ka Saransh
धावक कहानी का सारांश (संक्षेप में)
‘धावक’ कहानी केवल खेल की दुनिया की नहीं, बल्कि जीवन के वास्तविक मूल्यों की गहरी व्याख्या है। इसमें कथावाचक संजीव ने यह दर्शाया है कि सच्चा खिलाड़ी (स्पोर्ट्स मैन) वही है जो हार-जीत की परवाह किए बिना ईमानदारी, साहस और खेल-भावना को हर परिस्थिति में निभाता है। ऐसा खिलाड़ी केवल मैदान पर ही नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में आदर्श प्रस्तुत करता है।
कहानी का केन्द्रीय पात्र भंवल दा इसी आदर्श का प्रतीक है। खेल के मैदान में वह कभी छल-कपट नहीं करते, गिरकर उठ जाते हैं और दौड़ पूरी किए बिना ट्रैक नहीं छोड़ते। उनके लिए जीत-हार से अधिक महत्वपूर्ण खेल की मर्यादा और आत्मसम्मान है। यही कारण है कि वे छल से मिली सफलता को ठुकरा देते हैं।
भंवल दा का जीवन संघर्षों से भरा है। उनके बड़े भाई अशोक दा सुविधाओं और पद-प्रतिष्ठा की दौड़ में आगे निकल जाते हैं। वे बड़े अफसर बन जाते हैं, बंगले में रहते हैं और सुख-सुविधाओं का जीवन जीते हैं। इसके विपरीत भंवल दा सीमित वेतन में माँ और बहन की जिम्मेदारियाँ उठाते हैं, समाज के कामों में आगे रहते हैं और अपनी सच्चाई व स्वाभिमान पर कभी समझौता नहीं करते।
भंवल दा का त्याग, सरलता और आत्मसम्मान उन्हें समाज का सच्चा धावक बना देता है। वे दूसरों के लिए जीते हैं, हर दुख-सुख में साथ खड़े रहते हैं। यही कारण है कि पढ़ाई में पीछे रह जाने और पद न मिलने पर भी वे हताश नहीं होते। उनका कहना है – “मुझे शान नहीं, सम्मान की जिंदगी चाहिए।”
कहानी के अंत में जब भंवल दा दुनिया से विदा लेते हैं, तो उनके जीवन का संघर्ष और ईमानदारी सबको प्रेरित करती है। वे ऐसे चरित्र हैं जो केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि हर मेहनतकश, ईमानदार और जिम्मेदार इंसान का प्रतिनिधित्व करते हैं।
संक्षेप में, ‘धावक’ कहानी यह सिखाती है कि जीवन की असली जीत दूसरों को पीछे छोड़ने में नहीं, बल्कि ईमानदारी, त्याग और कर्तव्यनिष्ठा के साथ अपना रास्ता तय करने में है। भंवल दा जैसे लोग ही समाज को वास्तविक अर्थों में आगे बढ़ाते हैं।
धावक कहानी का सारांश (विस्तार से)
‘धावक’ कहानी का मूल भाव है – खेल-भावना, ईमानदारी और जीवन के संघर्षों में स्वाभिमान की रक्षा। कथाकार संजीव ने इसमें यह दिखाने का प्रयास किया है कि सच्चा खिलाड़ी केवल खेल के मैदान तक सीमित नहीं रहता, बल्कि अपने पूरे जीवन में आदर्श और मूल्यों को निभाता है।
कहानी का नायक भंवल दा एक साधारण व्यक्ति होते हुए भी असाधारण गुणों वाला चरित्र है। उसका जीवन हमें यह सिखाता है कि हार-जीत से ऊपर उठकर, ईमानदारी और आत्मसम्मान के साथ जीना ही सबसे बड़ी सफलता है।
खेल के मैदान का भंवल दा
भंवल दा का चरित्र सबसे पहले खेल के मैदान में सामने आता है। वे हर दौड़ को पूरी ईमानदारी से दौड़ते हैं। खेल में जीत-हार को वे बहुत बड़ा नहीं मानते। यदि कोई उन्हें गिरा भी देता है तो वे धूल झाड़कर फिर दौड़ना शुरू कर देते हैं। दर्शक जब उनके साथ हुए अन्याय पर आक्रोश जताते हैं तो भंवल दा उन्हें शांत कराते हैं। उनके लिए खेल की मर्यादा और स्पोर्ट्समैनशिप सबसे बड़ी चीज है।
एक बार द्वितीय स्थान प्राप्त करने पर प्रतिद्वन्द्वी ने उनसे माँ की कसम खाने को कहा। इस पर भंवल दा ने गुस्से में कहा – “शायद तुम्हारी माँ नहीं है, वरना ऐसे तुच्छ पुरस्कार के लिए माँ को दांव पर नहीं लगाते। मैं पुरस्कार के लिए नहीं, खुद को परखने के लिए दौड़ता हूँ।” इस कथन से भंवल दा का सच्चा चरित्र झलकता है।
परिवार और जिम्मेदारियाँ
भंवल दा का जीवन संघर्षों से भरा हुआ है। उनके बड़े भाई अशोक दा छात्रवृत्ति पाकर आगे बढ़ जाते हैं, बड़े अफसर बन जाते हैं और बंगलों में बस जाते हैं। लेकिन भंवल दा साधारण नौकरी करके भी माँ और बहन की जिम्मेदारी उठाते हैं। वे समाज के कामों में भी हरदम आगे रहते हैं – चाहे किसी को अस्पताल पहुँचाना हो, अंतिम संस्कार कराना हो या शादी का सामान जुटाना हो।
भंवल दा व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को त्यागकर दूसरों के लिए जीते हैं। उनकी यही विशेषता उन्हें समाज का सच्चा धावक बना देती है।
शिक्षा और नौकरी की कठिनाई
भंवल दा पढ़ाई में साधारण थे। बार-बार असफल होने के बावजूद उन्होंने पाँचवीं बार मैट्रिक पास किया। इसके बाद इंटर और प्राइवेट पढ़ाई भी की। लेकिन पढ़ाई से ज्यादा उनकी प्राथमिकता घर खर्च और जिम्मेदारियाँ थीं। वे मानते थे – “मुझे शान की नहीं, सम्मान की जिंदगी चाहिए।”
कथावाचक ने उन्हें नौकरी में प्रमोशन दिलाने की कोशिश की, लेकिन भंवल दा ने इसे बड़े भाई की कृपा समझकर ठुकरा दिया। उनका विश्वास था कि सफलता केवल योग्यता और परिश्रम से मिलनी चाहिए, न कि किसी की कृपा से।
विवाह और त्याग
माँ चाहती थीं कि भंवल दा शादी कर लें, लेकिन उन्होंने जीवन भर अविवाहित रहने का निर्णय लिया। इसके कई कारण थे – माँ की बीमारी, बहन की जिम्मेदारी, सीमित वेतन और भाभी के आचरण से उपजी विरक्ति। उन्होंने बहन की मदद के लिए हर माह पैसे भेजे और परिवार की जिम्मेदारी अकेले उठाई।
जीवन का अंत
भंवल दा ने पच्चीस वर्षों तक अपने ईमानदार रास्ते पर चलते हुए जीवन बिताया। उम्र बढ़ने के साथ उनके बाल सफेद हो गए, चेहरा झुर्रियों से भर गया। बड़े भाई ने मजाक में उन्हें “जोकर” का पुरस्कार देना चाहा, लेकिन भंवल दा ने शालीनता से कहा – “गलत पुरस्कार मैं नहीं लेता। तुम्हारी पुरस्कार-लालसा तुम्हें ही मुबारक।” उसी दिन उन्हें पहला स्ट्रोक आया।
कहानी के अंत में वे अपने भाई के लिए एक पत्र छोड़ जाते हैं, जिसमें उन्होंने जीवनभर की पीड़ा और संघर्ष को उकेरा है। उनकी मृत्यु के बाद भी कथावाचक को लगता है कि भंवल दा अब भी अपने रास्ते पर दौड़ रहे हैं – अनन्त के पथ पर, बिना थके, बिना रुके।
भंवल दा का प्रतीकात्मक रूप
भंवल दा केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं हैं, बल्कि वे उन तमाम मेहनतकश, ईमानदार और जिम्मेदार इंसानों के प्रतिनिधि हैं, जो बिना शोर किए समाज को संबल देते हैं। वे दिखाते हैं कि असली जीत पद, पुरस्कार या धन में नहीं, बल्कि स्वाभिमान और सच्चाई के साथ जीने में है।
निष्कर्ष
‘धावक’ कहानी हमें यह सिखाती है कि जीवन की दौड़ में छल-कपट से मिली जीत का कोई मूल्य नहीं। सच्चा विजेता वही है जो ईमानदारी, त्याग और कर्तव्यनिष्ठा से अपना रास्ता तय करता है। भंवल दा जैसे लोग ही समाज का आधार होते हैं, और यही कहानी का सबसे बड़ा संदेश है।
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