धावक कहानी की समीक्षा ।। Dhavak Kahani Ki Samiksha Kijiye

धावक कहानी की समीक्षा ।। Dhavak Kahani Ki Samiksha Kijiye

धावक कहानी की समीक्षा

धावक” संजीव जी की एक मार्मिक एवं अविस्मरणीय रचना है। इसमें लेखक ने भंवल दा के चरित्र के माध्यम से जीवन के संघर्ष, मानवीय संवेदनशीलता और खेल भावना का सजीव चित्रण किया है। कहानी में भंवल दा के द्वारा यह बताया गया है कि सच्चा धावक केवल मैदान में ही नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में ईमानदारी, संघर्षशीलता और धैर्य के साथ आगे बढ़ता है। भंवल दा का चरित्र पाठकों के हृदय में गहरी छाप छोड़ता है और उन्हें प्रेरित करता है कि परिस्थितियाँ चाहे कैसी भी हों, आत्मसम्मान और मानवता से समझौता नहीं करना चाहिए। इस प्रकार समीक्षा के कुछ बिन्दुओं के आधार पर कथा को समझने का यह एक प्रयास है।

(1) शीर्षक :-

“धावक” शीर्षक अत्यंत आकर्षक एवं सार्थक है। शीर्षक देखते ही पाठक के मन में अनेक प्रश्न और जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती हैं—धावक कौन है? वह किस दिशा में दौड़ रहा है? उसकी जीवन-दौड़ का उद्देश्य क्या है? यही कौतूहल कहानी को पढ़ने की ओर प्रेरित करता है। कहानी में भंवल दा के संघर्ष, ईमानदारी और खेल भावना को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है, वह शीर्षक को और भी उपयुक्त बना देता है। वास्तव में यह केवल दौड़ने वाले खिलाड़ी का नहीं, बल्कि जीवन की दौड़ में संघर्षरत इंसान का प्रतीक है। इस दृष्टि से “धावक” शीर्षक पूरी तरह औचित्यपूर्ण और सार्थक है।

(2) कथावस्तु :-

‘धावक’ पाठ की कथावस्तु अत्यंत मार्मिक और भावनात्मक है। इसमें एक छोटे से परिवार का चित्रण किया गया है, जिसमें दो भाई, बूढ़ी माँ और बहन हैं। बड़ा भाई अशोक स्वार्थी, आत्मकेन्द्रित और संकीर्ण सोच वाला व्यक्ति है, जो छल-कपट और चाटुकारिता के सहारे ऊँचे पद पर पहुँचने में सफल होता है। इसके विपरीत छोटा भाई भंवल चटर्जी भावुक, संवेदनशील और कर्तव्यनिष्ठ है, जो न केवल गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियाँ निभाता है बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्वों का वहन भी करता है। बड़े भाई द्वारा परिवार और माँ-बहन की उपेक्षा उसे भीतर से कचोटती है, परंतु स्वाभिमानी होने के कारण वह सब कुछ सहता है। अंततः उसकी असमय मृत्यु हो जाती है। मृत्यु से पूर्व वह अपने बड़े भाई को एक पत्र लिखता है, जिसमें उसके जीवन की पीड़ा, संवेदनाएँ और संघर्ष झलक उठते हैं। यही पत्र उसकी संवेदनशील आत्मा का सजीव दस्तावेज बन जाता है।

(3) कथोपकथन :- 

कथोपकथन किसी भी रचना का प्राण माना जाता है और धावक में यह अत्यंत प्रभावशाली एवं मार्मिक है। इसमें दिए गए संवाद पात्रों के स्वभाव, उनके दृष्टिकोण और भावनाओं को जीवंत बना देते हैं। संवादों की संक्षिप्तता, यथार्थपरकता और गहनता ही इन्हें प्रभावी बनाती है। उदाहरण स्वरूप छोटे और बड़े भाई के बीच का संवाद – “किया तो बहुत कुछ है, चीफ पर्सनल अफसर के रूप में जायज को नाजायज और नाजायज को जायज” तथा “गलत पुरस्कार मैं नहीं लेता दादा” – उनके चरित्र-भेद को स्पष्ट करता है। कहानी के संवाद पात्रों की संवेदनाओं को मार्मिक ढंग से उजागर करते हैं, जिससे कथोपकथन की दृष्टि से यह कहानी पूर्णतः सार्थक सिद्ध होती है।

(4) पात्र एवं चरित्र चित्रण :- 

पात्र एवं चरित्र चित्रण किसी भी कहानी की आत्मा होते हैं और धावक में इनका विशेष महत्व है। इस रचना में पात्रों की संख्या अधिक नहीं है—भंवल दा, अशोक, माँ और कुछ पारिवारिक मित्र—परंतु संजीव जी ने इन सीमित पात्रों के माध्यम से गहरी संवेदनाएँ प्रकट की हैं। इनमें सबसे प्रभावी और आदर्श चरित्र भंवल दा का है, जिन्हें लेखक ने अत्यंत ईमानदारी और निष्पक्ष दृष्टिकोण से चित्रित किया है। वे संवेदनशील, त्यागी, कर्तव्यनिष्ठ और स्वाभिमानी व्यक्ति के रूप में उभरते हैं। दूसरी ओर अशोक का चरित्र स्वार्थ, छल और संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है। माँ और अन्य पात्र कथानक को पूर्णता प्रदान करते हैं। इस प्रकार, चरित्र-चित्रण की दृष्टि से यह कहानी अत्यंत सफल और जीवन्त प्रतीत होती है।

(5) देश काल एवं वातावरण :- 

देश, काल एवं परिस्थिति किसी भी कहानी की वास्तविकता और प्रभाव को गहराई प्रदान करते हैं। धावक पाठ में इनका चित्रण अत्यंत प्रभावशाली ढंग से हुआ है। लेखक ने सम-सामयिक परिस्थितियों, स्टेडियम का वातावरण, खेल-प्रतियोगिताओं की उत्तेजना और दर्शकों की भावनाओं को बड़े ही जीवंत ढंग से प्रस्तुत किया है। खेल का माहौल इतना सजीव प्रतीत होता है कि पाठक के सामने मानो आँखों देखा दृश्य उपस्थित हो जाता है। देश और समय की पृष्ठभूमि के साथ-साथ सामाजिक यथार्थ भी कथा में उभरकर सामने आता है, जिससे कहानी की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता और अधिक बढ़ जाती है।

(6) भाषा-शैली :-

भाषा-शैली किसी भी रचना की आत्मा होती है और धावक की भाषा-शैली इसे प्रभावशाली और जीवंत बनाती है। इस पाठ की भाषा सरल, सहज और सम-सामयिक है, जो पाठकों को तुरंत आकर्षित करती है। लेखक का संबंध बंगाल की धरती से होने के कारण इसमें हिन्दी, अंग्रेज़ी और बंगला शब्दों का स्वाभाविक मिश्रण देखने को मिलता है। यही मिश्रण कहानी को यथार्थपरक बनाता है और “जैसा देश वैसा भेष” की कहावत को चरितार्थ करता है। भाषा में कहीं-कहीं संवादात्मक शैली, तो कहीं वर्णनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है, जिससे कथा में विविधता और प्रवाह उत्पन्न होता है। कुल मिलाकर, भाषा-शैली कहानी की संवेदनशीलता को और अधिक गहराई प्रदान करती है।

(7) उद्देश्य  :-

उद्देश्य किसी भी रचना का मूल तत्त्व होता है और धावक में लेखक संजीव जी ने अपने कथ्य को बड़ी ही सार्थकता से प्रस्तुत किया है। इस कहानी का मुख्य उद्देश्य यह दिखाना है कि संवेदनशीलता ही मनुष्य का सबसे बड़ा आभूषण है। भंवल दा के चरित्र के माध्यम से लेखक यह संदेश देते हैं कि परिवारिक दायित्वों और वैयक्तिक जीवन के बीच संतुलन स्थापित करने वाला ही सच्चा और आदर्श पुरुष कहलाता है। साथ ही, यह भी स्पष्ट होता है कि सच्चा धावक वही है जो जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और मानवीय मूल्यों से समझौता नहीं करता। इस प्रकार, कहानी का उद्देश्य पाठकों को जीवन में संवेदनशील, नैतिक और आदर्शवादी बनने के लिए प्रेरित करना है।

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