काशी को संस्कृति की पाठशाला क्यों कहा जाता है॥ काशी की सांस्कृतिक विरासत का उल्लेख कीजिए  

काशी को संस्कृति की पाठशाला क्यों कहा जाता है॥ काशी की सांस्कृतिक विरासत का उल्लेख कीजिए

काशी को संस्कृति की पाठशाला क्यों कहा जाता है॥ काशी की सांस्कृतिक विरासत का उल्लेख कीजिए

भारत की प्राचीन और समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का सबसे बड़ा केंद्र काशी है। इसे विश्व की सबसे प्राचीन नगरी भी कहा जाता है। काशी केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि कला, साहित्य, संगीत और अध्यात्म के क्षेत्र में भी अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। यहाँ की गलियों, घाटों और मंदिरों में आज भी हजारों वर्षों पुरानी परंपराओं का जीवन्त अनुभव किया जा सकता है।

काशी की सबसे बड़ी विशेषता इसकी संगीत परंपरा है। संकट मोचन मंदिर में प्रतिवर्ष हनुमान जयंती के अवसर पर भव्य संगीत समारोह आयोजित होता है। इस आयोजन में देश-विदेश के कलाकार भाग लेते हैं। इस उत्सव में वर्षों तक भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ अपनी शहनाई से वातावरण को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे। उनके कारण यह परंपरा और भी प्रसिद्ध हो गई। बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई काशी की पहचान और गौरव बन गई।

काशी को शास्त्रों में “आनंद कानन” कहा गया है। इसका अर्थ है कि यह स्थल आनंद, ज्ञान और संस्कृति का बाग है। यहाँ कला और अध्यात्म का जो संगम है, वह अद्वितीय है। इसी मिट्टी ने पंडित कंठी महाराज, विद्याधारी, बड़े रामदास जी, मौजूद्दीन खाँ जैसे अनेक महान कलाकारों को जन्म दिया। इन कलाकारों की साधना और योगदान ने न केवल काशी बल्कि पूरे भारत को समृद्ध किया।

काशी केवल एक शहर नहीं, बल्कि एक तहज़ीब है। यहाँ की गंगा-जमुनी संस्कृति हिंदू और मुस्लिम दोनों को एक समान जोड़ती है। यहाँ की बोली, यहाँ के लोग, यहाँ की मिठास और यहाँ के उत्सव इस तहज़ीब को और भी खास बनाते हैं। यहाँ पर कजरी, चैती, सेहरा, नौहा, बन्ना-बन्नी के गीत, भक्ति-संकीर्तन और शास्त्रीय धुनें—सब मिलकर एक अद्भुत सांस्कृतिक रंग प्रस्तुत करते हैं।

काशी में धर्म और कला को कभी अलग नहीं माना गया। यहाँ संगीत को भक्ति से और भक्ति को संगीत से अलग नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार बाबा विश्वनाथ और बिस्मिल्ला खाँ की पहचान एक-दूसरे से जुड़ी मानी जाती है, उसी प्रकार यहाँ के त्यौहार भी एक-दूसरे के पूरक हैं। मुहर्रम का ताजिया और होली का गुलाल यहाँ की गंगा-जमुनी एकता को दर्शाते हैं।

एक और विशेष बात यह है कि काशी में जीवन और मृत्यु दोनों को महोत्सव की तरह देखा जाता है। यहाँ मृत्यु भी मोक्ष और उत्सव का प्रतीक मानी जाती है। यह दृष्टिकोण भी काशी की संस्कृति की महानता को दर्शाता है।

काशी का जीवन स्वर और लय से भरा हुआ है। यहाँ सुबह की शुरुआत गंगा आरती की ध्वनि से होती है और रात सांझ के भजनों, कजरी-चैती के गीतों और शहनाई की मीठी गूँज के साथ समाप्त होती है। यही कारण है कि कहा जाता है—काशी संगीत की थाप पर जगती है और उसी की ताल पर सोती है।

काशी को उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा महान कलाकार मिला, जो केवल शहनाई के माहिर ही नहीं थे बल्कि उन्होंने अपने जीवन से यह संदेश दिया कि कला किसी एक धर्म तक सीमित नहीं होती। उन्होंने हमेशा लोगों को एक दूसरे के करीब लाने और भाईचारे की भावना जगाने का कार्य किया। इसी वजह से आज भी काशी उनकी ध्वनि और उनकी यादों से जुड़ी हुई है।

निष्कर्ष यह है कि काशी की संस्कृति भारत की साझा विरासत का प्रतीक है। यहाँ अध्यात्म और कला, भक्ति और संगीत, होली और मुहर्रम, मंदिर और मजार—सब एक साथ मिलकर वह अनूठी पहचान बनाते हैं जिसे काशी की तहज़ीब कहते हैं। यही काशी की सबसे बड़ी धरोहर है, और यही उसकी सच्ची पहचान भी है।

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