उसने कहा था कहानी का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ॥ Usne Kaha Tha Kahani Ka Saransh

उसने कहा था कहानी का सारांश अपने शब्दों में लिखिए॥ Usne Kaha Tha Kahani Ka Saransh

उसने कहा था कहानी का सारांश अपने शब्दों में लिखिए॥ Usne Kaha Tha Kahani Ka Saransh

उत्तर –
प्रसिद्ध लेखक चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कालजयी रचना ‘उसने कहा था’ हिंदी साहित्य की सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से एक है। यह कहानी प्रेम, निष्ठा, त्याग और कर्तव्य की ऐसी अद्भुत गाथा है, जिसमें एक सामान्य से प्रतीत होने वाले युवक का प्रेम किसी व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं, बल्कि बलिदान और वचन-पालन के सर्वोच्च उदाहरण के रूप में सामने आता है। कहानी की शुरुआत अमृतसर के भीड़-भरे बाजार से होती है, जहाँ एक किशोर लड़का लहना सिंह और एक सुंदर, चंचल और हंसमुख लड़की होरों (जो बाद में सूबेदार हजारा सिंह की पत्नी बनती है) की अकस्मात भेंट होती है। पहली ही मुलाकात में लहना सिंह उस लड़की के प्रति आकर्षित हो जाता है और उसकी सुरक्षा के प्रति भी सजग रहता है। संयोग से एक बार ताँगेवाले का घोड़ा बेकाबू होकर बाजार में दौड़ पड़ता है और उस मासूम लड़की की जान खतरे में पड़ जाती है। तभी साहसी और निर्भीक लहना सिंह अपनी जान जोखिम में डालकर उस लड़की की प्राण-रक्षा करता है। यह घटना दोनों के बीच एक अव्यक्त भावनात्मक रिश्ता कायम कर देती है। समय-समय पर दोनों की मुलाकातें होती रहती हैं और हर बार लहना सिंह नटखट अंदाज़ में उससे पूछ बैठता है – “तेरी कुड़माई हो गई?”। प्रायः लड़की हँसकर या झुंझलाकर “धत्” कहकर भाग जाती, किंतु एक दिन उसने धीमे स्वर में स्वीकार किया – “हाँ, हो गई। देखते नहीं ये रेशमी कढ़ाई वाले सालू।” यह उत्तर सुनते ही लहना सिंह का हृदय घायल हो उठता है और उसका बचपन का निश्छल प्रेम यहीं ठहर जाता है। निराश और आहत होकर वह बाजार से घर लौट आता है और इस प्रकार उसका प्रेम अधूरा रह जाता है।

इस घटना के लगभग पच्चीस वर्ष बाद वही नटखट किशोर अब परिपक्व, अनुभवी और साहसी सैनिक बन चुका था। प्रथम विश्व युद्ध के समय वह 77वीं सिख राइफल में जमादार के पद पर कार्यरत था और जर्मनी के मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहा था। संयोग से उसकी ही टुकड़ी में सूबेदार हजारा सिंह भी शामिल था, जिसकी पत्नी वही लड़की होरों थी और उनका जवान बेटा बोधा सिंह भी उसी रेजिमेंट में भर्ती था। युद्धभूमि पर जाने से पहले जब लहना सिंह सूबेदार हजारा सिंह के गाँव पहुँचता है तो वर्षों बाद उसकी भेंट सूबेदारनी होरों से होती है। यह मिलन दोनों को बचपन की स्मृतियों में ले जाता है। सूबेदारनी भावुक होकर लहना सिंह से कहती है कि जैसे एक समय उसने ताँगेवाले के घोड़े से उसके प्राण बचाए थे, वैसे ही इस बार उसके पति और पुत्र की रक्षा करे, यही उसकी भिक्षा है। यह बात सुनकर लहना सिंह का हृदय द्रवित हो उठता है और वह संकल्प लेता है कि किसी भी परिस्थिति में वह अपने बचपन की सखी का यह वचन पूरा करेगा।

युद्धभूमि पर हालात बेहद कठिन थे। ठंड, भूख, प्यास और लगातार हो रही गोलाबारी से सैनिक टूट रहे थे। ऐसे समय लहना सिंह ने सभी का हौसला बढ़ाया। जब सूबेदार हजारा सिंह का बेटा बोधा सिंह बीमार पड़ गया तो लहना सिंह ने बिना सोचे-समझे अपने सारे गर्म कपड़े उतारकर उसे पहना दिए ताकि उसकी जान बच सके। एक दिन एक नकली अंग्रेज अफ़सर (जर्मन सैनिक ब्रिटिश अफ़सर की वर्दी पहनकर आया था) ने सूबेदार हजारा सिंह को आदेश दिया कि वह अपनी टुकड़ी लेकर आगे बढ़ें। सूबेदार आदेश का पालन करने लगे, किंतु लहना सिंह को संदेह हुआ। जब नकली अफ़सर ने उसे सिगरेट ऑफर की तो उसकी शंका और गहरी हो गई और शीघ्र ही वह समझ गया कि यह शत्रु का षड्यंत्र है। लहना सिंह ने अपनी जान की परवाह न करते हुए अपनी बुद्धिमत्ता और साहस से सूबेदार हजारा सिंह और उनकी पूरी टुकड़ी को इस षड्यंत्र से बचा लिया। हालांकि इस संघर्ष में नकली अफ़सर ने उस पर वार किया और वह गंभीर रूप से घायल हो गया। फिर भी उसने अंतिम क्षण तक अपने कर्तव्य का पालन किया और दुश्मन को मार गिराया।

गंभीर चोट लगने के बावजूद लहना सिंह ने अपनी पीड़ा को छुपाए रखा। वह अस्पताल में भर्ती नहीं हुआ क्योंकि उसके लिए सबसे बड़ा सुख अपने बचपन की सखी को दिया गया वचन निभाना था। जब सूबेदार हजारा सिंह युद्ध से लौट रहे थे, तब लहना सिंह ने उनसे कहा – “घर जाकर सूबेदारनी होरों को मेरा मत्था टेकना और कहना कि उसने जो कहा था, वह मैंने कर दिया।” धीरे-धीरे जब उसकी साँसें टूटने लगीं, तब उसके सामने जीवन की सभी घटनाएँ चलचित्र की भाँति घूम गईं। और अंततः अपने अंतिम शब्द – “उसने कहा था… जिसे मैंने पूरा किया” – के साथ उसने प्राण त्याग दिए।

इस प्रकार ‘उसने कहा था’ केवल एक अधूरी प्रेम कहानी नहीं, बल्कि वचनबद्धता, निष्ठा और त्याग की अमर गाथा है। यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम केवल पाने का नाम नहीं, बल्कि निभाने और दूसरों के सुख के लिए अपने प्राण न्योछावर करने का नाम है। लहना सिंह ने यह सिद्ध कर दिया कि जीवन का वास्तविक अर्थ त्याग और बलिदान में ही है। यही कारण है कि यह कहानी आज भी हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि मानी जाती है और पाठकों के हृदय को गहराई तक स्पर्श करती है।

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