रैदास के पद का भावार्थ ॥ Raidas Ke Pad Ka Bhavarth

रैदास के पद का भावार्थ ॥ Raidas Ke Pad Ka Bhavarth

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रैदास के पद का भावार्थ ॥ Raidas Ke Pad Ka Bhavarth

पद्यांश 1

प्रभु जी ! तुम चंदन हम पानी, जा की अंग-अंग बास समानी।
प्रभु जी ! तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी! तुम दीपक, हम बाती, जाकी जोति बरै दिन-राती।
प्रभु जी ! तुम मोती, हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।
प्रभु जी ! तुम स्वामी, हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।

शब्दार्थ

  • जाकी = जिसकी
  • बास = सुगंध
  • समानी = समा गई, बस गई
  • घन = बादल
  • बन = वन, जंगल
  • मोरा = मोर
  • चितवत = देखता है
  • चंद = चाँद
  • चकोरा = तीतर जाति का एक प्राणी जो चंद्रमा का परम प्रेमी माना जाता है
  • बाती = रूई की बत्ती
  • बरै = जलती है
  • सोनहिं = सोने से
  • सुहागा = सोने को शुद्ध करने के लिए प्रयुक्त भार
  • दासा = सेवक, दास

संदर्भ

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक पाठ संचयन में संकलित ‘रैदास के पद’ शीर्षक से लिया गया है। इसका रचनाकार भक्त कवि रैदास जी हैं।

प्रसंग

इस पद में कवि ने ईश्वर एवं जीव के अजन्य संबंधों की व्याख्या की है। उनके अनुसार जीव, ईश्वर का अंश है और दोनों के बीच मधुर और घनिष्ठ संबंध होना चाहिए।

व्याख्या

भक्त कवि संत रैदास जी ने इस पद में भक्त और भगवान के बीच के गहरे आध्यात्मिक संबंध को अत्यंत सुंदर और प्रतीकात्मक रूपकों के माध्यम से व्यक्त किया है। इस पद में रैदास जी ने ईश्वर के प्रति अपनी अनन्य भक्ति, आत्मसमर्पण और प्रेमभाव को बड़े सरल किंतु हृदयस्पर्शी शब्दों में प्रकट किया है।

वे कहते हैं — “हे प्रभु! तुम चंदन हो और मैं पानी।” जैसे चंदन के संपर्क से पानी में उसकी सुगंध समा जाती है, उसी प्रकार तुम्हारे संग से मेरे तन-मन में भी भक्ति और प्रेम की सुवास भर गई है। मैं तो मात्र जल हूँ, परंतु तुम्हारे सान्निध्य से ही मुझमें जीवन की पवित्रता और सौंदर्य उत्पन्न हुआ है। चंदन बिना पानी की कोई कीमत नहीं, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारी कृपा के बिना कुछ नहीं हूँ।

आगे वे कहते हैं — “प्रभु जी! तुम घन बन हम मोरा।” अर्थात् जैसे बादल के दर्शन से मोर आनंदित होकर नाच उठता है, उसी तरह तुम्हारे दर्शन मात्र से मेरा हृदय भी उल्लास और प्रेम से भर जाता है। जैसे मोर की नृत्य मुद्रा उसके भीतरी आनंद का प्रतीक है, वैसे ही मेरा मन तुम्हारे साक्षात्कार से झूम उठता है। इस रूपक के माध्यम से कवि ने अपनी अनंत भक्ति और भाव-विभोर प्रेम को दर्शाया है।

फिर वे कहते हैं — “प्रभु जी! तुम दीपक, हम बाती।” यह रूपक भक्त और भगवान के अभिन्न संबंध को दर्शाता है। दीपक बिना बाती के जल नहीं सकता और बाती दीपक के बिना प्रकाश नहीं दे सकती। उसी तरह मेरा अस्तित्व भी तुम्हारे बिना अधूरा है। मैं तुम्हारे प्रेम में सदा जलता रहता हूँ, और तुम्हारी ज्योति मेरे जीवन को आलोकित करती है। यह प्रतीक समर्पण और निर्भरता दोनों का प्रतीक है।

आगे वे कहते हैं — “प्रभु जी! तुम मोती, हम धागा।” जैसे धागे में पिरोया मोती और अधिक सुंदर दिखाई देता है, वैसे ही तुम्हारे साथ जुड़कर मेरा जीवन भी अर्थपूर्ण हो गया है। मैं तुम्हारे रूप, गुण और तेज से ही उज्ज्वल हूँ। तुम्हारे और मेरे संबंध में कोई भेद नहीं, परंतु फिर भी मैं तुम्हारा सेवक बनकर तुम्हारी शोभा बढ़ाता हूँ। यह भक्ति का सर्वोच्च रूप है, जिसमें अहंकार का सर्वथा लोप हो जाता है।

इसके बाद कवि कहते हैं — “जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।” सोना जब सुहागे के संपर्क में आता है तो और अधिक चमकदार और शुद्ध हो जाता है। उसी प्रकार तुम्हारे संपर्क में रहकर मेरा मन भी निर्मल, शुद्ध और पवित्र बन गया है। यह दर्शाता है कि ईश्वर के निकट रहना आत्मा की शुद्धि का कारण बनता है

अंत में रैदास जी कहते हैं — “हे प्रभु जी! तुम मेरे स्वामी हो और मैं तुम्हारा दास हूँ।” यहाँ कवि की दास्य भावना प्रकट होती है। वे स्वयं को पूर्ण रूप से ईश्वर को अर्पित कर देते हैं। वे यह मानते हैं कि सच्ची भक्ति वही है जिसमें अहंकार, अभिमान और स्वार्थ का लेश भी न हो।

इस प्रकार, इस पद में संत रैदास जी ने अपने जीवन का सार प्रस्तुत किया है। उन्होंने ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम, गहरा समर्पण, पूर्ण निष्ठा और दास्य भाव को सुंदर उपमाओं के माध्यम से व्यक्त किया है। उनके लिए ईश्वर केवल पूज्य नहीं, बल्कि आत्मा के साथी हैं — जो हर क्षण उनके भीतर विद्यमान हैं। रैदास जी के इन पदों से यह स्पष्ट होता है कि भक्ति केवल पूजा नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन का पवित्र मार्ग है।

विशेष

  • इस पद में हिन्दी के साथ ब्रज, अवधी और राजस्थानी भाषा का प्रयोग किया गया है।
  • अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश और विभिन्न अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
  • भाषा सुलभ, प्रवाहमयी और बोधगम्य है।
  • इसमें अधिक तद्भव शब्दों का उपयोग किया गया है।

पद्यांश 2 

नरहरि ! चंचल मति मोरी। कैसे भगति करों में तोरी।
तू मोहि देखै, हौं तोहिं देखूं , प्रीती परस्पर होई।
तू मोहि देखै, हौं तोहि न देखूं, इहि मति सब बुधि खोई।।
सब घटि अंतरि रमसि निरंतरि, मैं देखत हूँ नहीं जाना।
गुन सब तोर मोर सब औगुन, क्रित उपकार न माना।।
मैं तैं तोरि मोरी असमझ सों, कैसे करि निसतारा।
कहै ‘रैदास’ कृस्न करुणामैं, जै जै जगत अधारा।।

शब्दार्थ

  • मोरी = मेरी
  • तोरी = तुम्हारी
  • हौं = मैं
  • रमसि = उपस्थिति में होना
  • औगुन = अवगुण
  • निसतारा = निस्तार, उद्धार

संदर्भ

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक पाठ संचयन में संकलित “रैदास के पद” शीर्षक से लिया गया है। इसका रचनाकार भक्त कवि रैदास जी हैं।

प्रसंग

इस पद में संत कवि रैदास ने ईश्वर के निराकार रूप का वर्णन किया है और कहा है कि ईश्वर का आदि और अन्त नहीं है। भक्त माया के वश में चंचल बना रहता है। रैदास ने भक्त की सभी चंचलताओं का सुंदर विवरण इस पद में प्रस्तुत किया है।

व्याख्या

प्रस्तुत पद में संत कवि रैदास जी ने ईश्वर के निराकार और अनंत स्वरूप का सुंदर वर्णन किया है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि ईश्वर का कोई आरंभ और कोई अंत नहीं है। वे सब जगह व्याप्त हैं और समय और स्थान के बंधन से परे हैं। इस पद में रैदास जी ने भक्त की चंचलता और माया के वशीभूत होने की स्थिति का भी चित्रण किया है।

रैदास जी कहते हैं — “हे ईश्वर! आप ही बताएँ कि मैं आपकी भक्ति कैसे करूँ?” वे अपनी असहायता और विवशता प्रकट करते हैं। उनका मानना है कि मानव बुद्धि चंचल होती है और माया के प्रभाव में फँसकर वह स्थिर होकर भक्ति में लीन नहीं हो पाती। यानि भक्त चाहे कितना भी प्रयास करे, उसकी सोच और मन अक्सर विचलित रहते हैं।

कवि आगे ईश्वर से यह भी कहते हैं कि “हे प्रभु! आपकी दृष्टि सर्वव्यापी है, पर मैं आपको देख नहीं पा रहा हूँ।” इसका अर्थ यह है कि ईश्वर सभी जगह हैं और सब कुछ देख सकते हैं, लेकिन मनुष्य की सीमित बुद्धि और माया के प्रभाव के कारण उन्हें भली-भांति अनुभव नहीं कर पाता। रैदास जी इस विचार को एक भावपूर्ण प्रश्न में व्यक्त करते हैं — मैं आपसे बिना देखे भी प्रेम करना चाहता हूँ, पर मेरी मति विचलित हो जाती है।

वे स्वीकार करते हैं कि ईश्वर में अनेक गुण हैं, जबकि उनकी अपनी आत्मा अवगुणों से भरी हुई है। रैदास जी ईश्वर से पूछते हैं कि माया के द्वन्द्व से मुक्ति कैसे मिले। इसका अर्थ है कि मनुष्य अपने अहंकार, वासनाओं और सांसारिक बंधनों से जूझ रहा है और उसे ईश्वर से मार्गदर्शन की आवश्यकता है।

अंत में वे कहते हैं — “हे करुणामय कृष्ण! यह संपूर्ण संसार आपके सहारे ही चल रहा है और मैं आपकी जय-जयकार करता हूँ।” यह उनके पूर्ण समर्पण और श्रद्धा का प्रतीक है। वे मानते हैं कि जीवन का प्रत्येक पहलू ईश्वर की इच्छा और शक्ति पर निर्भर है।

विशेष

  • कवि ने जीवमात्र की विवशता और मूढ़ता को स्पष्ट किया है।
  • चंचल मन से भक्ति संभव नहीं है; भक्ति के लिए समर्पण और तन्मयता आवश्यक है।
  • भाषा बोधगम्य और प्रवाहपूर्ण है।
  • ब्रज, अवधी और राजस्थानी भाषा का प्रचुर प्रयोग हुआ है।
  • अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश और अलंकारों का सुंदर उपयोग किया गया है।

पद्यांश 3

अविगत नाथ निरंजन देवा, मैं का जानूं तुम्हारी सेवा।।
बांधू न बंधन छाऊँ न छाया, तुमहि सेॐ निरंजन राया।
चरन पताल सीस असमाना, सो ठाकुर कैसें संपटि समाना।
सिव सनकादिक अंत न पाया, खोजत ब्रह्मा जनम गंवाया।
तोडूँ न पाती पूजौं न देवा, सहज समाधि करौं हरि सेवा।
नख प्रसेद जाके सुरसुरी धारा, रोमावली अठारह भारा।
चारि बेद जाकै सुमृत सासा, भगति हेतु गावै रैदासा।

शब्दार्थ

  • अविगत = जिसे जाना न जा सके
  • निरंजन = आनंददायक, शुद्ध
  • सनकादिक = सनक आदि ऋषि
  • सांसा = सांस

संदर्भ

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक पाठ संचयन में संकलित ‘रैदास के पद’ शीर्षक से लिया गया है। इसका रचनाकार भक्त कवि रैदास जी हैं।

प्रसंग

इस पद्यांश में ईश्वर की व्यापकता, विराटता और जीव की सूक्ष्मता की ओर संकेत किया गया है। कवि के अनुसार, ईश्वर इतना विराट है कि उसे किसी भी सीमा में बांधा नहीं जा सकता।

व्याख्या

इस पद में संत रैदास जी ने ईश्वर के अव्यक्त, व्यापक और निरंजन स्वरूप का अत्यंत गहन चित्रण प्रस्तुत किया है। रैदास जी कहते हैं कि ईश्वर इतनी व्यापकता और विराटता वाले हैं कि उन्हें किसी सीमा, रूप या समय में बाँधना असंभव है। वह अनंत आनंद और परमानंद का स्रोत हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे गुड़ गूंगे के लिए मीठा है, परन्तु उनके अनुभव का पैमाना मानव बुद्धि से परे है।

कवि अपने आप को ईश्वर के सामने अत्यंत लघु और तुच्छ मानते हैं। उनके अनुसार जीव की अपनी सीमाएँ हैं और वह निःसहाय है। उसके पास कोई संरक्षक, बंधु-बांधव या भौतिक साधन नहीं हैं। इसलिए जीव का ईश्वर के अतिरिक्त कोई भरोसा नहीं। यही कारण है कि कवि अपनी पूर्ण निर्भरता और समर्पण के साथ ईश्वर की सेवा में रत रहता है।

रैदास जी बताते हैं कि ईश्वर इतना विराट हैं कि उनका पद पाताल तक और शिरोमणि आसमान तक फैला हुआ है। उनके विशाल स्वरूप को शिव, ब्रह्मा, सनकादिक, सुरेश, महेश और दिनेश जैसे देवता भी पूरी तरह नहीं समझ सके, तो उनकी सीमित बुद्धि वाला जीव इसे कैसे जान सकता है? इसलिए कवि स्वीकार करता है कि उसके पास पूजा के पारंपरिक साधन नहीं हैं, केवल अपनी शरीर, मन और आत्मा ही उनके लिए सेवा का साधन हैं। यही सहज समाधि और भावपूर्ण सेवा उनकी भक्ति का आधार बनती है।

रैदास जी ने आगे कहा है कि ईश्वर की काया और क्रियाएँ अत्यंत महिमामय हैं। उनके स्वास-प्रश्वास, रोमावलियाँ और नखों के स्वेद-बिंदु से ही वेद और पुराणों की उत्पत्ति हुई। इस विराटता और रहस्य को जीव भली-भांति नहीं समझ सकता।

अंततः, इस पद में रैदास जी ने अपनी अल्पता, दीनता और ईश्वर की विराटता का सुंदर वर्णन किया है। उन्होंने अपनी सीमित साधन-संपदा और निःसहायता के बावजूद ईश्वर की सेवा और भक्ति में पूर्ण समर्पण को प्रस्तुत किया है। यह पद हमें यह भी सिखाता है कि सच्ची भक्ति में ज्ञानी होना या भौतिक साधनों का होना आवश्यक नहीं, बल्कि केवल मन का समर्पण और सेवा की भावना पर्याप्त है।

विशेष

  • इस अंश में रैदास की परम पिता (ईश्वर) के प्रति समर्पण और भक्ति का वर्णन हुआ है।
  • भाषा प्रवाहमयी और बोधगम्य है।
  • हिन्दी के अतिरिक्त राजस्थानी, भोजपुरी और स्थानीय भाषाओं का प्रयोग किया गया है।
  • अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश और अन्य अलंकारों का सुंदर उपयोग किया गया है।

पद्यांश 4

राम बिन संसै गाँठि न छूटै।
काम क्रोध मोह मद माया, इन पंचन मिलि लूटै।।
हम बड़ कवि कुलीन हम पंडित, हम जोगी सन्यासी।
ग्यानी  गुनीं सूर हम दाता, यहु मति कदे न नासी।।
पढ़ें गुनें कछू समझि न परई, जौ लौ अनभै भाव न दरसै।
लोहा हर न होइ धूँ  कैसें, जो पारस नहीं परसै।।
कहै रैदास और असमझसि, भूलि परै भ्रम भोरे।
एक अधार नाम नरहरि कौ, जीवनि प्रान धन मोरै।

शब्दार्थ

  • संसे = संशय, भ्रम
  • दरसै = दिखाई देना
  • कदै = कब

संदर्भ

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक पाठ संचयन में संकलित ‘रैदास के पद’ शीर्षक से लिया गया है। इसका रचनाकार भक्त कवि रैदास जी हैं।

प्रसंग

इस पद में कवि ने जीव मात्र की समस्याओं का अपने प्रभु से वर्णन किया है। किस प्रकार पंच विकारों (काम, क्रोध, मोह, मद, माया) से ग्रस्त जीव अपने मूल उद्देश्य को भूलकर भ्रम के जाल में फँसा हुआ है। इस भ्रमजाल से मुक्ति का एकमात्र उपाय है प्रभु की कृपा

व्याख्या

इस पद में संत कवि रैदास जी ने जीवमात्र की असहायता और मानसिक द्वंद्व को बहुत ही मार्मिक तरीके से व्यक्त किया है। वे अपने प्रभु राम से निवेदन करते हैं कि “हे प्रभु! आपकी कृपा के बिना हम संशय और भ्रम से मुक्त नहीं हो सकते।” रैदास जी यह स्पष्ट करते हैं कि मानव मन पंच विकारों—काम, क्रोध, मोह, मद और माया के प्रभाव में फँसकर भ्रम और पाप के जाल में उलझ गया है। इन विकारों ने मानव को अपने नियंत्रण में ले लिया है और उसकी असली शक्ति और विवेक को छिपा दिया है।

कवि स्वीकार करते हैं कि अहंकार ने उनके मन को ढक लिया है। हम अपने आप को बहुत बड़े ज्ञानी, गुणी, योगी और सन्यासी समझते हैं, परंतु वास्तव में हम अज्ञानता और मोह-माया के अंधकार में फँसे हुए हैं। अच्छे विचार, नीति और नैतिकता की बातें हमारे लिए अस्पष्ट और समझ से बाहर हैं। रैदास जी यह उपमा देते हैं कि यह स्थिति लोहे को बिना पारस के स्पर्श कर सोना बनाने की कोशिश करने के समान है। केवल प्रभु की कृपा ही हमें इस मानसिक लोहे से आध्यात्मिक स्वर्ण बनाने में सक्षम है।

कवि आगे कहते हैं कि ईश्वर अंतर्यामी हैं, वे हमारे भीतर की स्थिति को भलीभांति जानते हैं। हम भूल-भूलैया के भंवर में फँसे हैं और अपने प्रयासों से राह नहीं खोज पा रहे। इसलिए प्रभु से यही प्रार्थना है कि वे हमें सही मार्ग दिखाएँ और हमारे अज्ञान, अहंकार और विकारों को दूर करें। रैदास जी यहाँ नाम-स्मरण और पूर्ण समर्पण को उद्धार का एकमात्र मार्ग बताते हैं।

अंततः इस पद में रैदास जी ने अपनी दीनता, निर्बलता और प्रभु की महाशक्ति का सुंदर चित्रण किया है। उन्होंने बताया कि जीव को पंच विकारों से मुक्त होने और आत्मा के उज्ज्वल पथ पर चलने के लिए केवल प्रभु की कृपा और नाम-स्मरण आवश्यक है। यह पद सिखाता है कि भक्ति, समर्पण और ईश्वर की कृपा ही मानव के उद्धार और मानसिक शांति का आधार है।

विशेष

  • भाषा प्रवाहमयी और बोधगम्य है।
  • तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग हुआ है।
  • हिन्दी के अतिरिक्त राजस्थानी और भोजपुरी भाषाओं का भी प्रयोग हुआ है।

पद्यांश 5 

रे चित चेति कहिं-अचेत काहे, बाल्मीकहिं देखि रे।
जाति थैं कोई पदि न पहुच्या, राम भगति बिसेषरे ।
षटक्रम सहित जे विप्र होते, हरि भगति चित दृढ़ नाहि रे।
हरिकथा सुहाय नांहीं, सुपच तुलै ताहिं रे।।
मित्र सत्रु अजाति सब ते, अंतरि लावै हेत रे।
लोग बाकी कहा जानैं, तीनि लोक पवित रे।।
अजामिल गज गनिका तारी, काटी कुंजर की पासि रे।
ऐसे दुरमति मुकति किये, तो क्यूँ न तिरै रैदास रे।।

शब्दार्थ

  • चित्त = मन
  • चेति = चेतना
  • अचेत = चेतना शून्य
  • पवित = पवित्र

संदर्भ

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक पाठ संचयन में संकलित ‘रैदास के पद’ शीर्षक से लिया गया है। इसका रचनाकार भक्त कवि रैदास जी हैं।

प्रसंग

इस पद्यांश में संत कवि रैदास ने अपने अचेत मन को चेतन बनाने का आह्वान किया है। उनके अनुसार जाति या कुल नहीं, बल्कि ज्ञान और प्रभु-कृपा ही चेतना और भक्ति के लिए आवश्यक हैं।

व्याख्या

इस पद में संत, समाज सुधारक और मानवीय संवेदना के कवि रैदास जी ने शिक्षा, भक्ति और समर्पण का महत्व बड़ी स्पष्टता से प्रतिपादित किया है। वे स्वयं के मूढ़ और अज्ञानी मन को संबोधित करते हुए कहते हैं — “रे मेरे मूरख मन! अब तो चेत जाओ, अज्ञानता के मोहपाश से मुक्त हो जाओ।” रैदास जी यहाँ यह सिखाते हैं कि जाति, पाँति या जन्म से किसी की भक्ति और योग्यता तय नहीं होती। सच्ची भक्ति और ईश्वर की कृपा ज्ञान, चेतना और समर्पण से प्राप्त होती है।

कवि ने अपने आदर्श कवि बाल्मीकि का उदाहरण देते हुए कहा है कि बाल्मीकि उच्च कुल के नहीं थे, फिर भी उन्हें राम भक्ति और प्रभु की कृपा प्राप्त हुई। वहीं उच्च कुल में जन्म लेने वाला, संस्कारहीन और अज्ञानी व्यक्ति ईश्वर की भक्ति और सच्चे गुणों तक नहीं पहुँच सकता। रैदास जी बताते हैं कि जब तक व्यक्ति ईश्वर के प्रति आदर और समर्पित भक्ति नहीं करता, तब तक वह भ्रम और माया के जाल में फँसा रहता है।

कवि आगे कहते हैं कि सच्चे भक्त जाति-पाँति, शत्रु-मित्र, त्याज्य-ग्राह्य के भेद से ऊपर उठकर भक्ति में लीन रहते हैं। ऐसे भक्त ज्ञान, चेतना और पवित्रता के बल पर तीनों लोकों में कीर्ति और यश प्राप्त करते हैं। रैदास जी बताते हैं कि प्रभु अंतर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उन्होंने समय-समय पर बड़े पापियों का उद्धार किया है — जैसे अजामिल, गज, गणिका और संकट में फँसे साह। प्रभु का नाम स्मरण करने मात्र से ही उनके पाप दूर हुए और उन्हें जीवनदान मिला।

इस पद से यह स्पष्ट होता है कि भक्त के भीतर तन्मयता, समर्पण और ईश्वर के प्रति आदर भाव होना चाहिए। रैदास जी यह सिखाते हैं कि ईश्वर हमारे दीन-बंधु और अशरण के शरणदाता हैं। उनका उद्धार हर जीव के लिए सुनिश्चित है, बस भक्त को ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और नाम स्मरण का भाव रखना होगा।

यह पद हमें यह भी शिक्षा देता है कि सच्ची भक्ति, ज्ञान और चेतना से ही सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति संभव है, न कि जन्म या सामाजिक स्थिति से।

विशेष

  • कवि ने पौराणिक घटनाओं का उदाहरण देकर ईश्वर की दीन-बंधुता और गुणों का वर्णन किया है।
  • जीव की दीनता और निर्भरता पर बल दिया है।
  • भाषा प्रवाहमयी और बोधगम्य है।
  • अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश और देशज शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है।

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