विनय के पद कविता का सारांश, vinay ke pad summary in hindi, vinay ke pad kavita ka saransh
‘विनय के पद’ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘विनय पत्रिका’ से लिया गया है। विनय पत्रिका तुलसीदास की एक प्रमुख रचना है। इसे संवत 1639 के आस-पास लिखा गया था। इसमें 279 पद है। यह मूलतः स्तुति, वंदना और भक्ति का काव्य है। सम्पूर्ण ग्रंथ में भगवान राम की वंदना है। इस ग्रंथ का मूल विषय रांभक्ति है। इसमें तुलसी दास की दास्य भाव की भक्ति दिखाई देती है। इस ग्रंथ में तुलसीदास जी ने मुसीबतों से मुक्ति पाने के लिए राम के पास निवेदन के रूप में लिखा है। हर पद में उन्होनें दीन तुलसी, दास तुलसी, पतित तुलसी कहकर अपनी हीनता व्यक्त की है।
प्रस्तुत पाठ ‘विनय के पद’ में तुलसीदास के मूर्खता, उनकी विवशता, अहंकार के कारण ईश्वर से कैसे दूर हुए है उसे प्रस्तुत पद के माध्यम से उजागर करने की कोशिश किये है तथा प्रत्येक पद में ईश्वर से प्रार्थना करते हुए तुलसीदास अपना तथा समस्त जीवों का उद्धार चाहते है।
पहला पद में, तुलसीदास अपने आप को तथा समस्त प्राणियों को अज्ञानी कहते हुए कहते है कि समस्त प्राणी अपनी अज्ञानता के कारण थोड़े से सुख के लिए ईश्वर से दूर हो कर इधर-उधर भटकता रहता है और अपने आप को संकट में डालते हुए खुद का नुकसान कर देता है तुलसीदास जी उदाहरण देते हुए कहते है जिस प्रकार चातक पक्षी अपनी अज्ञानता के कारण धुएं के समूह को बादल समझ बैठता है और जैसे ही अपनी प्यास बुझाने के लिए उस धुएं के समूह में जाता है तो उस धुएं के समूह से अपनी ही आंखे जला डलता है तुलसीदास दूसरा उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार एक भूखा बाज़ अपनी मूर्खता के कारण शीशे में अपनी ही परछाई को देख दूसरा पक्षी समझ के उसके जैसे ही उस पर प्रहार करता है वैसे ही उसके चोंच टूट जाता है। बाज़ अपनी ही मूर्खता के कारण अपना नुकसान कर बैठता है। ठीक उसी प्रकार हम मनुष्य भी अपनी अज्ञानता और मूर्खता के कारण ईश्वरीय भक्ति को छोड़ कर सांसारिक सुख में अपनी खुशी खोजने लगते है और खुद को संकट डालकर नुकसान कर देते है अतः तुलसीदास ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहते है कि हे प्रभु इनकी अज्ञानता को दूर करें और अपने शरण में ले लीजिए।
दूसरे पद में, तुलसीदास जी कहते है कि बिना ईश्वर का सही मार्ग जानकर हमें सिध्दि की प्राप्ति नहीं हो सकता है वे उदाहरण देते हुए कहते है कि यदि तुम मन को शुद्ध बनाने के साधनों को छोड़कर काया के शुद्ध करने के साधन अपनाते हो तो उससे मन कभी शुद्ध नहीं हो सकता है। तुलसीदास विभिन्न उदाहरण देते हुए कहते है घी से भरे हुए कड़ाई में जो चंद्रमा का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है उसे लाख ईधन से औटाने से भी वह नाश नहीं होता जब तक कि कड़ाई में से घी खत्म नहीं हो जाता है तब तक चंद्रमा का प्रतिबिम्ब कड़ाई में दिखता ही रहेगा। ठीक उसी प्रकार जब तक मन में मोह का फँदा रहेगा तब तक मन शुद्ध नहीं हो सकता। वे कहते है कि जब तक मन अशुद्ध है तब तक चाहे जितना भी बाहर से जप , तप, यम, नियम क्यों न करो बिना आत्म ज्ञान के मन शुद्ध नहीं हो सकता। तुलसीदास जी कहते है कि बिना आत्मज्ञान के मोह के बंधन से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता और आत्मज्ञान की प्राप्ति भगवान और गुरु की कृपा के बिना संभाव नहीं है और न ही बिना ज्ञान के कोई संसार रूपी दुस्तर समुद्र को पार कर सकता है इसलिए वे कहते है कि ईश्वरीय भक्ति ही मन को शुद्ध कर सकता है।
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तीसरे पद में, तुलसीदास जी कहते है कि बिना ईश्वरीय कृपा से केवल और केवल शास्त्रीय ज्ञान से हमें न ही वास्तविक सुख की और न ही ब्रह्मानन्द की प्राप्ति हो सकती है। वे उदाहरण देते हुए कहते है कि अगर कोई व्यक्ति बाते करने में चाहे कितना भी निपूर्ण क्यों न हो वो सांसारिक भाव सागर को पार नहीं कर सकता। ठीक उसी प्रकार अगर कोई व्यक्ति केवल और केवल सिर्फ भोजन की बाते ही करे तो उससे उसका पेट नहीं भर सकता। तुलसीदास जी कहते है की जब तक अंतर्मन शुद्ध नहीं होगा तब तक चाहे कितना भी राम नाम की रट लगा लो तुम्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। जब तक मन विषय सुख की आशा में ही लगा रहेगा तब तक तुम इस सांसारिक मोह माया में ही फँस कर भटकते रहोगे तुम्हें सपने में भी सुख और ब्रह्मानन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती।
चौथे पद में, तुलसीदास जी अपने भगवान राम से प्रार्थना करते हुए कहते है कि उनका जीवनचक्र संतों जैसे बना दे। वे चाहते है कि उनका जीवन संतों के समान संतोषी स्वभाव के हो, दूसरों के हित चाहने वाला हो, क्रोध पर विजय प्राप्त करने वाला हो, मन, वचन, कर्म से नियम का पालन करने वाला, सुख दुख को समझ से ग्रहण करने वाला जीवन क्रम प्रदान करने की कामना तुलसीदास अपने प्रभु राम से करते है यही उनकी प्रार्थना है।