शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप(shaishav avastha mein shiksha ka swaroop)


shaishav avastha mein shikshak ki bhumika(शैशवावस्था में शिक्षा का क्या स्वरूप होना चाहिए?)

शिक्षा की दृष्टि से मानव जीवन में शैशव काल का बहुत महत्व है। वैलेंटाइन ने इसे सीखने का आदर्श काल कहा है।


वाटसन
ने भी अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि शैशवावस्था में किसी बालक के सीखने की सीमा और तीव्रता विकास की ओर किसी अवस्था की तुलना में इस अवस्था में बहुत अधिक होती है।
शैशवावस्था में शिक्षा के परिपेक्ष्य में निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए:-

१. स्नेहपूर्ण व्यवहार:-

इस अवस्था में बालक दूसरों पर निर्भर रहता है। दूसरों के स्नेह का भूखा आता है। अतः माता-पिता जा अध्यापक को को उन्हें मारना डांटना नहीं चाहिए तथा उन्हें भय दिखाना चाहिए और न ही क्रोध। बालक के प्रति प्रेम दया सहानुभूति और शिष्टता का व्यवहार करना चाहिए इससे उनमें सीखने के लिए रुचि उत्पन्न होगी और उचित दिशा में विकास होगा।

२. जिज्ञासा के संतुष्टि:-

शैशवावस्था में शिशु शीघ्र ही अपने आसपास की वस्तुओं के संबंध में अपनी जिज्ञासा व्यक्त करने लगता है। वह अपने विषय में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासा को शांत करना चाहता है। उसके माता पिता और अध्यापक को उसकी जिज्ञासा को संतुष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए।

३. वास्तविकता का ज्ञान:-

शैशवावस्था में बच्चों को कहानियां सुनना अच्छा लगता है और वे उन कहानियों को ही वास्तविक मान बैठते हैं अतः बच्चों को या शिशु को उनके काल्पनिक जगत से निकालकर वास्तविक जगत से परिचित कराना चाहिए और उनके ज्ञान में वृद्धि करना चाहिए उन्हें परियों या नाना नानी की कहानियां में ही वास्तविक लगता है लेकिन अगर उन्हें वास्तविकता से परिचित कराया जाए तो उनके ज्ञान में वृद्धि होगी।

४. व्यक्तिगत स्वच्छता की शिक्षा:-

जब हम छोटे थे तो हमारे मम्मी पापा हमें हाथ पकड़ कर चलना फिरना सिखाते थे हम कुछ बड़े हो जाते हैं तो हम उन कार्यों को खुद से करना चाहते हैं शिशु अनुकरण के माध्यम से ही सीखता है अतः शिशु को हमें कुछ बड़े हो जाने पर उनके व्यक्तिगत स्वच्छता के बारे में बताना चाहिए जैसे कि दांत साफ करना, नहाने, अच्छे कपड़े पहने आदि अच्छी आदतों से परिचित कराना चाहिए।

५. मूल प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन:-

हर बालक या शिशु के मूल प्रवृत्तियां अलग-अलग होती है अगर हम उन प्रवृत्तियों को दबाने का प्रयास करते हैं तो शिशु पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है और उनके शारीरिक और मानसिक विकास में को भी इसका प्रभाव झेलना पड़ता है अतः हमें शिशु की मूल प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर उनका प्रोत्साहन करना चाहिए।

६. पालन-पोषण:-

पशु या मनुष्य उनके शारीरिक विकास के लिए अच्छे पोषण की आवश्यकता होती हैं अगर हम शिशु के पालन पोषण पर ध्यान नहीं देते हैं तो इसका प्रभाव उनके मानसिक बौद्धिक समाजिक और संवेगात्मक विकास पर प्रभाव पड़ता है एक अच्छे परिवार में जन्मे शिशु का भरण पोषण अच्छे होने के कारण उनकी बुद्धि लब्धि भी अधिक होती है और वही एक निर्धन व्यक्ति के शिशु में कुछ पालन-पोषण की कमी के कारण उनके शारीरिक उनकी मानसिक, संवेगात्मक विकास ठीक प्रकार से नहीं हो पाती है अतः हमें शिशु के भरण पोषण पर भी ध्यान देना पड़ता है।

७. आत्मनिर्भरता का विकास:-

हर शिशु को आत्म निर्भर बनाना चाहिए जिससे कि वह खुद ही अपने प्रयासों के द्वारा उन चीजों को जाने और समझे अगर हम ऐसा करने से इन्हें रोकते हैं तो उनमें हीनता की भावना उत्पन्न होने लगती हैं और पे कमजोर होने लगते हैं उन्हें हमेशा प्रेरणा देकर आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करना चाहिए ऐसा हम घर और स्कूलों में भी करते हैं ताकि बच्चे स्वयं पर भरोसा कर अपना संपूर्ण विकास कर सकें।

८. सामाजिक भावना का विकास:-

वैसे शिशु शैशवावस्था में अधिक सामाजिक भावना से परिपूर्ण होता है उनके अंदर भावना की कमी होती है पर वह सभी के साथ घुल मिलकर रहना चाहते हैं उनके अंदर पशु पक्षी छुआछूत की भावना आदि बिल्कुल भी नहीं होती है।

९. आत्म-प्रदर्शन के लिए आवश्यक:-

माता-पिता तथा अभिभावकों को शिशु को ऐसे कार्य कराने चाहिए जिससे उसमें आत्म प्रदर्शन का अवसर प्राप्त हो क्योंकि ऐसा करने से बालक के बौद्धिक विकास, चिंतन शक्ति आदि विकसित होता है।

१०. आत्माभिव्याक्ति के लिए अवसर:-

शिशु को अपनी अभिव्यक्तियों को प्रकट करने का अवसर देना चाहिए। चाहे वह किसी भी भाषा में क्यों न हो लेकिन शिशु अपनी मातृभाषा में ही अभिव्यक्ति पूर्ण रूप से कर पाता है अतः अभिभावकों और शिक्षकों को चाहिए कि शिशु को छोटी-छोटी कहानियां छोटी-छोटी कविताएं सुनाने के लिए प्रेरित करें ताकि उनके बातचीत करने का तरीका या अभिव्यक्ति का माध्यम में विकास हो सके।

११. क्रिया तथा खेल द्वारा शिक्षा:-

शिशु जन्म से ही क्रियाशील होते हैं उन्हें खेल में रुचि होती है किसी भी कार्य को खेलों के माध्यम से ही सीखता है फ्रोबेल भी शिशु को खेल विधि के द्वारा शिक्षा देने की बात कही है क्योंकि इसे शिशु में सीखने की प्रवृत्ति में वृद्धि दिखाएं देता है। और मैं रूचि लेकर उस कार्य को करने लगते हैं शिशु को ऐसी शिक्षा देने के लिए अध्यापकों को सबसे पहले प्लेइन स्कूल में दाखिला दिलाना चाहिए।

१२. मानसिक क्रियाओं के अवसर:-

जिस प्रकार से शिशु खेल विधि के द्वारा सीखते हैं ठीक उसी प्रकार से शिशु करके भी सीखते हैं या क्रियाओं को करते हुए सीखते हैं उन्हें उन क्रियाओं को करने का पूर्ण अवसर देना चाहिए जिससे बालक को सोचना, विचारना, समझना, पहचाना आदि क्रियाएं शामिल हो जिसे बालक के ज्ञान इंद्रियों में वृद्धि होती है।

१३. अच्छी आदतों का निर्माण:

कौन व्यक्ति नहीं चाहता कि उनके संपूर्ण गुण समृद्धि हो। लेकिन इनका दायित्व सबसे पहले उनका परिवार होता है फिर बाद में स्कूल का जहां से बच्चे अच्छी आदतों को सीखते हैं अतः उनके भावी जीवन के निर्माण के लिए उन्हें अच्छी आदतों का आदत दिलाना उचित है। शिशु को प्रारंभ से ही दैनिक व्यवहार और सामाजिक शिष्टाचार के लिए प्रेरित करना चाहिए।

१४. संवेगात्मक सुरक्षा:-

शिशु के विकास में सबसे महत्वपूर्ण तत्व स्नेह या प्यार ही होता है जब किसी शिशु को दूसरे से स्नेह मिलता है तो वह भी दूसरों को स्नेही करता है और अगर कोई उसे तंग करता है या परेशान करता है तो उन व्यक्ति से वह नफरत करने लगते हैं या डरने लगते हैं अतः अभिभावकों को या अध्यापकों को चाहिए कि वे शिशुओं में स्नेह देकर उनके साथ इस तरह का व्यवहार करें कि वह दूसरों से भी स्नेह रख पाए।

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