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हिन्दी की आदि जननी ‘संस्कृत’ है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी का रूप लेती है। विशुद्धतः, हिन्दी भाषा के इतिहास का आरंभ अपभ्रंश से माना जाता है।
हिन्दी भाषा का विकास hindi ka vikas kaise hua |
हिन्दी का विकास क्रम
संस्कृत →पालि → प्राकृत → अपभ्रंश → अवहट्ट प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी ->
हिन्दी भाषा के विकास को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
१.प्राचीन काल
२.मध्यकाल
३.आधुनिककाल
1. प्राचीनकाल/आदिकाल (1100 ई. से 1400 ई.)
हिन्दी भाषा का यह शैशवकाल था। साधारण बोलचाल की भाषा में हिन्दी का प्रयोग आरम्भ हो गया था तथा अपभ्रंशों का प्रभाव समाप्त हो रहा था। अपभ्रंश की रचनाओं में हिन्दी की विभिन्न बोलियों और खड़ी बोली के बिम्ब उभरने लगे थे।
2. मध्यकाल (1400 ई. से 1850 ई.)
मध्यकाल में अपभ्रंशों का प्रभाव नगण्य हो गया हिन्दी खड़ी बोली के साथ-साथ अन्य उपबोलियों के रूप में स्थापित होने लगी अमीर खुसरो ने हिन्दी के शुद्ध स्वरूप को लेखन शैली में प्रयोग किया। उधर निर्गुण धारा के कवि कबीर, दादू, नानक, रैदास आदि भी खड़ी बोली का प्रयोग करने लगे इस काल में ब्रज और अवधी ने भी साहित्य के क्षेत्र में अपना अधिकार जमा लिया।
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3. आधुनिककाल (1850 ई. से अब तक)
आधुनिककाल को हम पाँच प्रमुख भागों में बाँट सकते हैं
(i) पूर्व भारतेन्दु युग, (ii) भारतेन्दु युग, (iii) द्विवेदी युग, (iv) प्रेमचन्द युग, (v) स्वातन्त्र्योत्तर युग।
(i) पूर्व भारतेन्दु युग-
सन् 1800 से खड़ी बोली का यह काल आरम्भ हुआ। हिन्दी खड़ी बोली में गद्य साहित्य का सृजन हुआ काव्य के क्षेत्र में खड़ी बोली का स्वरूप उर्दू प्रभावित था। इस युग में ब्रजभाषा का प्रभाव स्थायी था।
(ii) भारतेन्दु युग–
सन् 1850 तक खड़ी बोली का स्वरूप निखरने लगा था। भारतेन्दु के प्रभाव से खड़ी बोली का गद्य व पद्य दोनों साहित्य समर्थ होने शुरू हो गए थे। इस काल में भारतेन्दु के अतिरिक्त प्रतापनारायण मिश्र, श्रीधर पाठक एवं अन्य साहित्यकार भी खड़ी बोली को दिशा प्रदान कर रहे थे।
(iii) द्विवेदी युग (महावीर प्रसाद) –
खड़ी बोली के विकास का यह तृतीय चरण था 1900 से 1925 तक द्विवेदीजी ने खड़ी बोली को स्थिरता प्रदान की। द्विवेदी जी ने भाषा की अशुद्धियों को दूर किया, उसे परिमार्जित किया इस युग में महावीर प्रसाद द्विवेदी के अतिरिक्त बाबू श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा आदि के सद् प्रयासों से खड़ी बोली का परिमार्जित रूप निकलकर आया।
(iv) प्रेमचन्द युग-
इस युग में संस्कृत में निष्ठ हिन्दी का प्रचलन आरम्भ हुआ। प्रेमचन्द के अतिरिक्त भगवतीचरण वर्मा, राहुल सांस्कृत्यायन, नागार्जुन, सुभद्रा कुमारी चौहान, केदारनाथ अग्रवाल, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, डॉ० नगेन्द्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० धीरेन्द वर्मा आदि साहित्य सृजन में तल्लीन थे।
(v) स्वातन्त्र्योत्तर युग –
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान में हिन्दी राजभाषा के रूप में आरूढ़ हुई। विभिन्न सरकारी कार्यालयों, आकाशवाणी, दूरदर्शन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का माध्यम हिन्दी हो गई। आज भी हिन्दी का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। विभिन्न शोध-प्रबन्ध, गद्य-पद्य लेखन हिन्दी के विकास हेतु विश्वविद्यालयों की स्थापना आदि कार्य चल रहे हैं। निश्चय ही हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है।