छायावाद की विशेषताएं लिखिए: अर्थ, उद्भव और विकास, समय सीमा, महत्व,प्रमुख विशेषताएँ, पृष्ठभूमि, चार स्तंभ

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छायावाद क्या है

छायावाद: हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग

छायावाद हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली काव्य आंदोलन है, जो मुख्य रूप से 1918 से 1936 के बीच विकसित हुआ। यह हिंदी कविता के इतिहास में एक स्वर्णयुग के रूप में जाना जाता है, क्योंकि इस युग ने हिंदी काव्य को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया। छायावादी काव्य में व्यक्तिवाद, रहस्यवाद, प्रकृति-प्रेम, सौंदर्यबोध और आत्माभिव्यक्ति की प्रधानता देखने को मिलती है।

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छायावाद का अर्थ

छायावाद शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – “छाया” और “वाद”

  • “छाया” का अर्थ है अस्पष्टता, रहस्य, कोमलता और आंतरिक अनुभूति।
  • “वाद” का अर्थ किसी विशेष विचारधारा या शैली से होता है।

इस प्रकार, छायावाद का अर्थ हुआ – एक ऐसी काव्य-शैली, जिसमें भावनाओं, कल्पना और आत्मानुभूति का समावेश हो। इसमें कवि अपने निजी अनुभवों, संवेदनाओं और मनःस्थितियों को अत्यंत कोमल और भावुक रूप में अभिव्यक्त करता है।

डॉ. रामचंद्र शुक्ल के अनुसार:

“छायावाद व्यक्ति की आत्मा और उसके आंतरिक संघर्षों का काव्य है।”

अर्थात, छायावादी कविता मुख्य रूप से व्यक्ति के आंतरिक संसार, उसकी अनुभूतियों और आध्यात्मिक खोज को व्यक्त करती है। यह भावनाओं की गहराइयों को छूने वाली और कल्पना प्रधान काव्य-शैली है, जिसमें प्रकृति, प्रेम, रहस्य और आध्यात्मिकता की झलक मिलती है।

छायावाद का उद्भव और विकास

छायावाद का उद्भव

छायावाद का उद्भव बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में हुआ। यह हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण काव्य आंदोलन था, जो मुख्य रूप से 1918 से 1936 के बीच फला-फूला। यह युग हिंदी कविता का स्वर्णयुग माना जाता है, क्योंकि इसने हिंदी साहित्य को नए आयाम दिए।

छायावाद का जन्म भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग के बाद हुआ। जहाँ भारतेन्दु युग में देशप्रेम और सामाजिक चेतना, तथा द्विवेदी युग में तथ्यपरकता और तर्कशीलता थी, वहीं छायावाद ने व्यक्तिवाद, भावनाओं की गहराई, प्रकृति-प्रेम और रहस्यवाद को अपनाया।

छायावाद के उद्भव के प्रमुख कारण

  1. रोमांटिक आंदोलन का प्रभाव – छायावाद यूरोपीय रोमांटिक काव्यधारा से प्रभावित था, जिसमें कल्पना, भावनात्मक अभिव्यक्ति और प्रकृति का महत्व दिया गया था।
  2. भारतीय आध्यात्मिकता और रहस्यवाद – इस युग की कविताओं में भारतीय संस्कृति, दर्शन और उपनिषदों की झलक मिलती है।
  3. व्यक्तिवाद की भावना – इस काल में व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना, आत्माभिव्यक्ति और मनोवैज्ञानिक संवेदनाओं को महत्व दिया गया।
  4. प्रकृति और सौंदर्यबोध – प्रकृति को कवियों ने न केवल सौंदर्य के प्रतीक के रूप में देखा, बल्कि उसे मानवीय भावनाओं का दर्पण भी बनाया।
  5. राष्ट्रीय आंदोलन और स्वाधीनता की भावना – इस युग में भारत स्वतंत्रता संग्राम से गुजर रहा था, जिससे साहित्य में भी स्वाभिमान और राष्ट्रीय चेतना का भाव आया।

छायावाद का विकास

छायावाद का विकास चार प्रमुख कवियों – जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा – के योगदान से हुआ।

  • 1918 में जयशंकर प्रसाद की “आँसू” के प्रकाशन के साथ छायावाद की शुरुआत हुई।
  • 1920 के दशक में छायावाद अपने चरम पर पहुँचा और हिंदी कविता में एक नई संवेदनशीलता और कल्पनाशीलता को स्थापित किया।
  • 1936 के बाद छायावाद का प्रभाव धीरे-धीरे कम होने लगा, और इसे प्रगतिवाद ने स्थान देना शुरू कर दिया।

छायावाद के प्रमुख योगदान

  • हिंदी कविता को कोमलता, लयात्मकता और भावनात्मकता प्रदान की।
  • भाषा में संस्कृतनिष्ठता के साथ-साथ चित्रात्मकता को बढ़ावा दिया।
  • हिंदी काव्य को कल्पनाशीलता और दार्शनिकता से जोड़ा।
  • व्यक्तिवाद और आत्मानुभूति को महत्व देकर हिंदी साहित्य को अधिक संवेदनशील बनाया।

छायावाद हिंदी साहित्य में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लेकर आया। यह सिर्फ एक काव्य प्रवृत्ति नहीं थी, बल्कि एक संपूर्ण चेतना और नई शैली थी, जिसने हिंदी कविता को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, कोमलता, रहस्यवाद और सौंदर्यबोध से समृद्ध किया। यह युग हिंदी काव्य के स्वर्णयुग के रूप में हमेशा स्मरणीय रहेगा।

छायावाद की समय सीमा और उसका विस्तार

छायावाद हिंदी साहित्य का एक प्रमुख काव्य आंदोलन था, जिसकी समय सीमा 1918 से 1936 तक मानी जाती है। यह हिंदी कविता के स्वर्णयुग के रूप में प्रतिष्ठित हुआ और इसने हिंदी काव्य को एक नया आयाम प्रदान किया। इस अवधि के दौरान, हिंदी कविता ने व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों, रहस्यवाद, सौंदर्यबोध, आत्माभिव्यक्ति और प्रकृति-प्रेम को अभिव्यक्ति दी। छायावाद ने हिंदी कविता को एक नई दिशा और गहराई प्रदान की, जिसमें कवि की अंतःचेतना और भावनाओं को महत्वपूर्ण स्थान मिला।

छायावाद की समयावधि का विभाजन

छायावाद को तीन प्रमुख चरणों में विभाजित किया जा सकता है:

1. प्रारंभिक चरण (1918-1925) – छायावाद की भूमिका और उद्भव

यह काल हिंदी साहित्य में छायावाद के जन्म और उसकी पृष्ठभूमि को तैयार करने का था। इस समय तक हिंदी कविता में भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग का प्रभाव था, जहाँ देशभक्ति, सामाजिक चेतना और यथार्थवाद पर अधिक बल दिया जाता था। लेकिन इसी दौरान हिंदी कवियों ने व्यक्तिवाद, आत्माभिव्यक्ति और कल्पनाशीलता को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता महसूस की।

इस चरण में जयशंकर प्रसाद की काव्य रचनाएँ छायावादी आंदोलन की आधारशिला बनीं।

  • 1918 में “आँसू” के प्रकाशन के साथ हिंदी साहित्य में छायावाद का उदय हुआ।
  • 1922 में “झरना” (सुमित्रानंदन पंत) और “अनामिका” (सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’) जैसी कृतियाँ सामने आईं।
  • इस समय छायावाद अभी पूरी तरह परिपक्व नहीं हुआ था, लेकिन इसमें व्यक्तिवाद और सौंदर्यबोध की झलक दिखने लगी थी।
2. उत्कर्ष या स्वर्णकाल (1925-1935) – छायावाद का पूर्ण विकास

यह काल छायावाद के विकास और उसके उत्कर्ष का समय था। इस समय तक छायावादी काव्य अपनी संपूर्ण विशेषताओं के साथ हिंदी साहित्य में स्थापित हो चुका था। इस दौर में छायावादी कवियों ने अपनी श्रेष्ठ रचनाएँ प्रस्तुत कीं, जो हिंदी कविता के इतिहास में अमर हो गईं।

इस चरण की प्रमुख विशेषताएँ थीं:

  • रहस्यवाद और आध्यात्मिकता का गहरा प्रभाव
  • प्रकृति और आत्मा के बीच संबंधों की सुंदर अभिव्यक्ति
  • नारी-स्वतंत्रता और समाज सुधार की झलक

इस दौर की प्रमुख कृतियाँ:

  • जयशंकर प्रसादकामायनी (1936)
  • सुमित्रानंदन पंतपल्लव (1926)
  • महादेवी वर्मानीरजा (1934), दीपशिखा (1939)
  • सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’परिमल (1930), गीतिका (1936)
3. अवसान काल (1936 के बाद) – छायावाद का पतन और प्रगतिवाद का उदय

1936 के बाद हिंदी साहित्य में छायावाद का प्रभाव धीरे-धीरे कम होने लगा। इसका प्रमुख कारण यह था कि हिंदी कविता में एक नया साहित्यिक आंदोलन, प्रगतिवाद, उभरने लगा था।

प्रगतिवाद में समाज की वास्तविकता, आर्थिक विषमता, श्रमिक वर्ग की स्थिति और राजनीतिक आंदोलनों को प्रमुखता दी गई। छायावाद जहाँ कल्पनाशीलता, भावुकता और आत्माभिव्यक्ति पर केंद्रित था, वहीं प्रगतिवाद ने सामाजिक यथार्थवाद को अपनाया।

इस चरण की प्रमुख विशेषताएँ:

  • व्यक्तिगत अनुभूतियों की जगह सामाजिक चेतना का प्रवेश
  • साहित्य में यथार्थवाद की प्रधानता
  • जनसाधारण की समस्याओं को केंद्र में रखना

छायावाद की समय सीमा 1918 से 1936 तक मानी जाती है, हालाँकि इसके प्रभाव को इससे आगे भी देखा जा सकता है। इस आंदोलन ने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी और कविता को कोमलता, गहराई, सौंदर्यबोध, प्रकृति-प्रेम और आत्माभिव्यक्ति से समृद्ध किया।

1936 के बाद प्रगतिवाद का आगमन हुआ, जिसने छायावाद के स्थान पर सामाजिक यथार्थवाद को अपनाया, लेकिन छायावादी कविता अपनी उत्कृष्टता और काव्यात्मक सौंदर्य के कारण आज भी हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

छायावाद का महत्व

छायावाद हिंदी साहित्य में एक क्रांतिकारी काव्य आंदोलन था, जिसने कविता को नई दिशा और अभिव्यक्ति के नए आयाम दिए। यह 1918 से 1936 के बीच विकसित हुआ और हिंदी काव्य के स्वर्णयुग के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। छायावाद ने हिंदी कविता को केवल देशभक्ति और सामाजिक सुधार तक सीमित न रखकर व्यक्तिवाद, भावनाओं की गहराई, कल्पनाशीलता, सौंदर्यबोध और आत्मानुभूति को प्रमुख स्थान दिया।

छायावाद का हिंदी साहित्य में महत्व

  1. व्यक्तिवाद और आत्माभिव्यक्ति को बढ़ावा
    • छायावाद से पहले हिंदी कविता में सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना अधिक थी, लेकिन छायावाद ने पहली बार व्यक्ति के मनोभावों, संवेदनाओं और कल्पनाओं को केंद्र में रखा।
    • इसने कविता को बाहरी जगत से हटाकर अंतर्मन की गहराइयों की ओर मोड़ा।
  2. हिंदी भाषा का परिष्कार और समृद्धि
    • छायावादी कवियों ने हिंदी को एक मधुर, कोमल और काव्यात्मक भाषा के रूप में विकसित किया।
    • संस्कृतनिष्ठ और साहित्यिक हिंदी का सुंदर प्रयोग हुआ।
    • नवीन उपमानों, प्रतीकों और अलंकारों की भरमार से हिंदी काव्य अधिक समृद्ध हुआ।
  3. प्रकृति-प्रेम और कल्पनाशीलता का विकास
    • छायावाद में प्रकृति केवल बाहरी सौंदर्य का माध्यम नहीं रही, बल्कि कवि की भावनाओं का दर्पण बन गई।
    • प्रकृति का चित्रण मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से किया गया, जिससे हिंदी कविता अधिक गहराईपूर्ण हो गई।
  4. रहस्यवाद और आध्यात्मिकता का प्रसार
    • छायावादी कवियों ने आत्मा, ब्रह्मांड, ईश्वर और जीवन के रहस्यों पर गहन चिंतन किया।
    • कविताओं में रहस्य, दर्शन और आध्यात्मिकता के तत्व प्रबल रूप से उभरकर आए।
  5. नारी की स्वतंत्र पहचान
    • छायावाद ने नारी को एक नई दृष्टि दी।
    • महादेवी वर्मा की कविताओं में नारी के अंतर्मन की व्यथा, उसकी भावनाओं और स्वतंत्र अस्तित्व को अभिव्यक्ति मिली।
    • नारी को केवल प्रेमिका या मातृत्व के प्रतीक के रूप में न देखकर, एक संवेदनशील और स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया गया।
  6. कला और सौंदर्यबोध की प्रधानता
    • छायावाद ने कविता को केवल संदेश देने का माध्यम न रखकर, एक कलात्मक आनंद का स्रोत बनाया।
    • इसमें कल्पनाशीलता, लय, संगीतात्मकता और गूढ़ता का सुंदर समावेश किया गया।
  7. नई पीढ़ी के कवियों को प्रेरणा
    • छायावाद के प्रभाव से ही प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता जैसी काव्य प्रवृत्तियाँ विकसित हुईं।
    • छायावाद ने हिंदी साहित्य को एक नवीन दृष्टि दी, जिसका प्रभाव आगे आने वाले काव्य आंदोलनों पर स्पष्ट रूप से पड़ा।

छायावाद ने हिंदी कविता को भावनात्मक गहराई, भाषाई सौंदर्य और कल्पनाशीलता से समृद्ध किया। यह भारतीय काव्य परंपरा में व्यक्तिवाद, रहस्यवाद, प्रकृति-प्रेम और सौंदर्य चेतना को स्थापित करने वाला युग था। छायावाद न केवल हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग था, बल्कि उसने आने वाली साहित्यिक धाराओं को भी प्रेरित किया, जिससे हिंदी कविता का निरंतर विकास संभव हुआ।

छायावाद की प्रमुख विशेषताएँ

छायावाद हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी काव्य आंदोलन था, जिसका समय 1918 से 1936 के बीच माना जाता है। इस युग में हिंदी कविता ने एक नई दिशा प्राप्त की, जहाँ व्यक्तिवाद, रहस्यवाद, प्रकृति-प्रेम, सौंदर्यबोध और आत्मानुभूति जैसे तत्व प्रमुखता से उभरकर आए। छायावादी कवियों ने हिंदी कविता को एक नया आयाम और सौंदर्यपरक दृष्टि प्रदान की।

1. व्यक्तिवाद (Individualism)

छायावादी कविता के केंद्र में व्यक्ति की आत्म-अभिव्यक्ति थी। पहले की कविताएँ समाज, धर्म और नीति पर केंद्रित थीं, लेकिन छायावाद में व्यक्ति के आंतरिक मनोभावों, संघर्षों, स्वप्नों और अनुभूतियों को प्रमुखता दी गई। महादेवी वर्मा अपनी कविता “मैं नीर भरी दुख की बदली” में स्वयं को पीड़ा और संघर्ष से भरी बदली के रूप में प्रस्तुत करती हैं—

मैं नीर भरी दुख की बदली,
स्पंदन में चिर-विरह-जीवन की मौन व्यथा बेकली!

सुमित्रानंदन पंत व्यक्तिवाद को इस रूप में प्रस्तुत करते हैं—

तेरे गाने को स्वर कहाँ से लाऊँ?

इन पंक्तियों में आत्माभिव्यक्ति की तीव्रता स्पष्ट रूप से झलकती है।

2. रहस्यवाद और आध्यात्मिकता (Mysticism and Spiritualism)

छायावाद में रहस्यवाद का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। कवियों ने जीवन, आत्मा, ईश्वर और प्रकृति के रहस्यों की खोज की। इस प्रवृत्ति में सूफी और वेदांत दर्शन का प्रभाव भी देखा जा सकता है।

महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध कविता जो तुम आ जाते एक बार!” में ईश्वर या प्रियतम के प्रतीक्षा भाव का रहस्यवादी रूप प्रस्तुत किया गया है—

जो तुम आ जाते एक बार!

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता “वह आता – दो टूक कलेजे को करता, पछताता पथ पर जाता!” रहस्य और दार्शनिकता का सुंदर उदाहरण है।

3. प्रकृति-प्रेम (Love for Nature)

छायावादी कवियों ने प्रकृति को केवल बाहरी सौंदर्य का साधन नहीं माना, बल्कि उसे कवि के मनोभावों का दर्पण बनाया। प्रकृति के माध्यम से कवियों ने अपने अंतर्मन के भाव, संवेदनाएँ और आध्यात्मिक विचार व्यक्त किए।

जयशंकर प्रसाद की कविता में प्रकृति का दिव्य चित्रण मिलता है—

बरसि गई उनकी मधुरिमा, विकस गए भावों के कुसुम!

सुमित्रानंदन पंत प्रकृति को एक सजीव प्रेमिका के रूप में देखते हैं—

नवीन प्रभात आता, रवि का रथ लहराता!

निराला की कविता “बादल को घिरते देखा है!” में भी प्रकृति और भावनाओं का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है—

बादल को घिरते देखा है!

4. नारी-भावना और नारी-सौंदर्य (Feminine Sensitivity and Beauty)

छायावाद ने नारी को केवल प्रेम और सौंदर्य का प्रतीक मानने की पुरानी धारणाओं को बदला और उसे संवेदनशील, विचारशील और स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया।

महादेवी वर्मा की कविताएँ नारी के अंतर्मन की व्यथा और आत्मसंघर्ष को गहराई से उकेरती हैं—

मैं नीर भरी दुख की बदली!

जयशंकर प्रसाद ने नारी के कोमल और संवेदनशील रूप को व्यक्त किया—

सरल छवि, कोमल जीवन, किस मधु विधि से सजीव हो उठे!

5. सौंदर्यबोध (Aesthetic Sensibility)

छायावाद ने कविता को कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। छायावादी कविताएँ कल्पना, प्रतीकात्मकता, बिंबात्मकता और मधुर भाषा से परिपूर्ण होती हैं।

सुमित्रानंदन पंत प्रकृति और सौंदर्य का अद्भुत चित्रण करते हैं—

झर-झर झरते पात, कुछ कहते से चुपचाप!

जयशंकर प्रसाद का यह चित्र भी सौंदर्यबोध को दर्शाता है—

किसी ने फूल बिखेर दिए, उषा के अधरों से झर-झर!

6. प्रतीकात्मकता और बिंब विधान (Symbolism and Imagery)

छायावादी कवियों ने संकेतों, प्रतीकों और बिंबों का अत्यधिक प्रयोग किया।

महादेवी वर्मा की यह पंक्तियाँ प्रतीकात्मकता का सुंदर उदाहरण हैं—

दीप जलते रहें! (दीप संघर्ष, आशा और आत्मा के प्रकाश का प्रतीक है)

निराला की कविता में बादल संघर्ष और पीड़ा का प्रतीक बन जाता है—

बादल को घिरते देखा है!

7. भाषा और शैली (Language and Style)

छायावाद की भाषा संस्कृतनिष्ठ, कोमल, लयबद्ध और भावनात्मक थी। इसमें प्रतीकात्मकता, बिंबात्मकता और दार्शनिकता का अद्भुत समावेश हुआ। छायावादी कवियों ने व्यक्तिगत अनुभूतियों, प्रकृति-प्रेम और रहस्यवाद को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया।

  • संस्कृतनिष्ठ और कोमल भाषा“सरल छवि, कोमल जीवन…” (जयशंकर प्रसाद)
  • अलंकारों और छंदों का प्रयोग“मैं नीर भरी दुख की बदली…” (महादेवी वर्मा)
  • गूढ़ता और दार्शनिकता“जो तुम आ जाते एक बार!”
  • प्रतीकात्मकता और बिंबात्मकता“बादल को घिरते देखा है!” (निराला)
  • मुक्त छंद और नवीन प्रयोग“वह तोड़ती पत्थर!”

छायावाद की भाषा ने हिंदी कविता को नया सौंदर्यबोध, आत्म-अभिव्यक्ति और गहराई प्रदान की, जिससे यह युग हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग बन गया।

जयशंकर प्रसाद की यह पंक्ति छायावादी भाषा की मधुरता को दर्शाती है—

सरल छवि, कोमल जीवन, किस मधु विधि से सजीव हो उठे!

8. देशभक्ति और स्वतंत्रता चेतना (Patriotism and Freedom Awareness)

छायावादी काव्य मुख्य रूप से व्यक्तिवादी था, फिर भी इसमें देशभक्ति के भाव भी देखने को मिलते हैं।

सुमित्रानंदन पंत की कविता “अरुण यह मधुमय देश हमारा!” में राष्ट्र प्रेम प्रकट होता है।

निराला की “वह तोड़ती पत्थर!” में श्रमिक वर्ग की पीड़ा को उकेरा गया है।

निष्कर्ष

छायावाद हिंदी साहित्य में एक क्रांतिकारी परिवर्तन था, जिसने हिंदी कविता को भावनात्मक गहराई, सौंदर्यबोध, आत्मानुभूति और प्रकृति प्रेम से समृद्ध किया। इस युग की कविताएँ व्यक्तिवाद, रहस्यवाद, सौंदर्यबोध, कल्पनाशीलता और प्रतीकात्मकता से भरपूर थीं।

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छायावाद की पृष्ठभूमि 

छायावाद का उदय हिंदी साहित्य के द्विवेदी युग (1893-1918) के बाद हुआ, जब हिंदी काव्य में नए भावबोध और अभिव्यक्ति शैली की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। छायावाद का विकास मुख्य रूप से 1918 से 1936 के बीच हुआ, और यह हिंदी साहित्य के स्वर्णयुग के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। इस युग की पृष्ठभूमि में राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

1. सामाजिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि
(i) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव
  • 19वीं और 20वीं शताब्दी के आरंभ में भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय चेतना का विकास हो रहा था।
  • स्वदेशी आंदोलन (1905), असहयोग आंदोलन (1920) और सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) ने भारतीय जनमानस को प्रभावित किया।
  • इस दौरान कवियों में राष्ट्रप्रेम, आत्मसम्मान और स्वतंत्रता की ललक बढ़ी, जिससे उनकी काव्यधारा भी प्रभावित हुई।
  • जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध पंक्तियाँ इसका उदाहरण हैं—
    अरुण यह मधुमय देश हमारा, जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा!
(ii) सामाजिक चेतना और व्यक्तिवाद
  • समाज में पारंपरिक रूढ़ियों और बंधनों के विरुद्ध एक नई जागरूकता उत्पन्न हो रही थी।
  • स्त्री-शिक्षा, स्वाधीनता और समानता जैसे मुद्दे उभरने लगे।
  • छायावादी काव्य में स्त्री केवल श्रृंगार की वस्तु न होकर संवेदना, संघर्ष और सशक्तिकरण का प्रतीक बनी।
  • महादेवी वर्मा ने अपनी कविताओं में नारी के संघर्ष को व्यक्त किया—
    मैं नीर भरी दुख की बदली!
2. साहित्यिक पृष्ठभूमि
(i) द्विवेदी युग की सीमाएँ और नई काव्य-चेतना का विकास
  • महावीर प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में हिंदी काव्य सामाजिक सुधारों और नैतिकता पर केंद्रित था।
  • इस दौर में काव्य बुद्धिवादी और शिक्षाप्रद था, जिसमें कल्पनाशीलता और भावनात्मकता की कमी थी।
  • छायावाद ने इस यथार्थवादी काव्य से हटकर आंतरिक अनुभूतियों, रहस्यवाद और सौंदर्यबोध को अपनाया।
  • जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने इस नई काव्यधारा को आगे बढ़ाया।
(ii) पाश्चात्य साहित्य का प्रभाव
  • छायावादी काव्य यूरोपीय रोमांटिसिज्म (Romanticism) से प्रभावित था।
  • वर्ड्सवर्थ, शैली, कीट्स और टेनीसन जैसे पश्चिमी कवियों के प्रकृति-प्रेम, आत्मानुभूति और भावुकता ने हिंदी कवियों को प्रेरित किया।
  • हिंदी कवियों ने भी व्यक्तिवाद, स्वच्छंदता और कल्पनाशीलता को अपने काव्य का आधार बनाया।
(iii) बंगाल पुनर्जागरण और भारतीय साहित्य का प्रभाव
  • रवींद्रनाथ टैगोर की रहस्यवादी और आत्मानुभूति से भरी कविताओं ने हिंदी छायावाद को गहराई दी।
  • बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और श्री अरविंद के विचारों का भी छायावादी कवियों पर प्रभाव पड़ा।
  • जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत की कविताओं में यह रहस्यवाद और दार्शनिकता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
3. सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि
(i) रहस्यवाद और भारतीय आध्यात्मिकता
  • भारतीय संस्कृति में उपनिषदों, गीता और भक्ति आंदोलन की गहरी छाप रही है।
  • छायावाद ने इन तत्वों को अपनाकर काव्य को एक अध्यात्मिक ऊँचाई दी।
  • रहस्यवाद और आध्यात्मिकता को स्व और ब्रह्म की खोज के रूप में प्रस्तुत किया गया।
  • महादेवी वर्मा की ये पंक्तियाँ इस रहस्यवाद को दर्शाती हैं—
    जो तुम आ जाते एक बार!
(ii) प्रकृति-प्रेम और काव्य में प्रकृति का मानवीकरण
  • छायावादी कवियों ने प्रकृति को केवल एक दृश्यात्मक तत्व न मानकर भावनाओं का जीवंत रूप दिया।
  • प्रकृति को व्यक्तिगत अनुभूतियों, प्रेम और आध्यात्मिक चिंतन से जोड़ा गया।
  • सुमित्रानंदन पंत की यह पंक्तियाँ इसका उदाहरण हैं—
    छोटे-छोटे तरुओं में अरुण-किरण की सोनेहरी जाली!

निष्कर्ष

छायावाद का उदय एक साहित्यिक क्रांति थी, जिसने हिंदी कविता को नई दिशा, गहराई और सौंदर्य प्रदान किया। इसकी पृष्ठभूमि में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सामाजिक जागरण, पश्चिमी साहित्य का प्रभाव और भारतीय आध्यात्मिकता मुख्य रूप से कार्यरत थे।

मुख्य कारण:

  • राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता संग्राम की भावना
  • व्यक्तिवाद और स्वछंदता का उदय
  • पाश्चात्य रोमांटिसिज्म और बंगाल पुनर्जागरण का प्रभाव
  • रहस्यवाद, प्रकृति-प्रेम और सौंदर्यबोध

इन्हीं कारकों ने छायावाद को हिंदी साहित्य के स्वर्णयुग के रूप में प्रतिष्ठित किया।

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छायावाद के चार स्तंभ

छायावाद हिंदी साहित्य के स्वर्णयुग का प्रतिनिधि काव्य आंदोलन था, जिसमें रहस्यवाद, आत्माभिव्यक्ति, प्रकृति-प्रेम, सौंदर्यबोध और राष्ट्रीय चेतना प्रमुख तत्व थे। इस आंदोलन को चार प्रमुख कवियों ने सशक्त आधार दिया, जिन्हें “छायावाद के चार स्तंभ” कहा जाता है। ये चार कवि हैं:

  1. जयशंकर प्रसाद – रहस्यवाद और दार्शनिकता के कवि
  2. सुमित्रानंदन पंत – प्रकृति और कोमल भावनाओं के कवि
  3. महादेवी वर्मा – नारी वेदना और करुणा की कवयित्री
  4. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ – विद्रोह और समाज सुधार के कवि

इन चारों कवियों ने हिंदी कविता को नवीन दृष्टि, गहराई और स्वतंत्रता प्रदान की। इन्होंने काव्य को केवल बाहरी सौंदर्य तक सीमित न रखकर आंतरिक अनुभूति, रहस्य और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी समृद्ध किया।

1. जयशंकर प्रसाद (1889-1937) – रहस्यवाद और दर्शन के कवि

विशेषताएँ:
  • जयशंकर प्रसाद को छायावाद का प्रवर्तक कहा जाता है।
  • उनकी कविताओं में रहस्यवाद, दार्शनिकता, राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक गौरव का अद्भुत मेल मिलता है।
  • संस्कृतनिष्ठ भाषा, कोमलता और बिंबात्मक शैली उनकी कविता की विशेषता है।
  • उनकी काव्य-रचनाओं में प्रकृति, प्रेम और आध्यात्मिकता का गहरा प्रभाव दिखाई देता है।
  • छायावादी सौंदर्यबोध का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण उनकी महाकाव्यात्मक रचना “कामायनी” मानी जाती है।
प्रमुख रचनाएँ:

कामायनी (महाकाव्य)
लहर, झरना, आंसू (काव्य-संग्रह)

प्रसिद्ध पंक्ति:
“अरुण यह मधुमय देश हमारा, जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा!”

2. सुमित्रानंदन पंत (1900-1977) – प्रकृति के सौंदर्य और कल्पना के कवि

विशेषताएँ:
  • सुमित्रानंदन पंत को “प्रकृति का सुकुमार कवि” कहा जाता है।
  • उनकी कविताओं में प्रकृति का सजीव मानवीकरण और कोमल कल्पनाएँ दिखाई देती हैं।
  • वे पाश्चात्य रोमांटिक कवियों जैसे वर्ड्सवर्थ और कीट्स से प्रभावित थे।
  • छायावादी भावना के साथ उन्होंने आदर्शवादी और मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाया।
  • भाषा अत्यंत संगीतात्मक, लयबद्ध और सौंदर्य से परिपूर्ण है।
प्रमुख रचनाएँ:

पल्लव, ग्रंथी, चिदंबरा, स्वर्ण किरण

प्रसिद्ध पंक्ति:
“छोटे-छोटे तरुओं में अरुण-किरण की सोनेहरी जाली!”

3. महादेवी वर्मा (1907-1987) – नारी वेदना और करुणा की कवयित्री

विशेषताएँ:
  • महादेवी वर्मा छायावाद की “मीराबाई” कही जाती हैं।
  • उनकी कविताओं में नारी वेदना, करुणा, विरह, आध्यात्मिक प्रेम और आत्म-अभिव्यक्ति प्रमुख हैं।
  • उनकी काव्य-शैली संवेदनशील, भावुक और अत्यंत कोमल है।
  • उन्होंने अपनी रचनाओं में नारी स्वतंत्रता, प्रेम और आत्म-निर्भरता को भी उजागर किया।
  • उनकी भाषा में कोमलता, संगीतमयता और रहस्यात्मकता का सुंदर मेल मिलता है।
प्रमुख रचनाएँ:

नीरजा, रश्मि, दीपशिखा, यामा

प्रसिद्ध पंक्ति:
“मैं नीर भरी दुख की बदली!”

4. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ (1896-1961) – विद्रोह और नवचेतना के कवि

विशेषताएँ:
  • निराला छायावाद के विद्रोही कवि माने जाते हैं।
  • वे हिंदी साहित्य में मुक्त छंद के प्रवर्तक थे।
  • उनकी कविताओं में सामाजिक जागरूकता, स्वतंत्रता संग्राम की भावना और आत्मसम्मान का अद्भुत चित्रण है।
  • उनकी भाषा स्वतंत्र, ओजस्वी और लयबद्ध है, जो हिंदी कविता को एक नई दिशा प्रदान करती है।
  • उन्होंने न केवल छायावाद, बल्कि प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की ओर भी हिंदी काव्य को अग्रसर किया।
प्रमुख रचनाएँ:

परिमल, गीतिका, तुलसीदास, सरोज स्मृति

प्रसिद्ध पंक्ति:
“वह तोड़ती पत्थर!”

छायावाद के चार स्तंभों की तुलना
कवि का नाम प्रमुख विशेषता प्रमुख रचनाएँ शैली और भाषा
जयशंकर प्रसाद रहस्यवाद और दर्शन कामायनी, लहर संस्कृतनिष्ठ, गंभीर और प्रतीकात्मक
सुमित्रानंदन पंत प्रकृति और कल्पना पल्लव, ग्रंथी कोमल, लयबद्ध और चित्रात्मक
महादेवी वर्मा नारी वेदना और करुणा नीरजा, रश्मि आत्माभिव्यंजक, संगीतमय और भावनात्मक
निराला विद्रोह और नवचेतना परिमल, सरोज स्मृति स्वतंत्र, ओजस्वी और मुक्त छंद

निष्कर्ष

छायावाद हिंदी कविता का एक महत्वपूर्ण युग था, जिसमें भावुकता, आत्मानुभूति, सौंदर्यबोध और दार्शनिकता को प्रमुखता दी गई।

  1. जयशंकर प्रसाद – रहस्यवाद और सांस्कृतिक चेतना के कवि
  2. सुमित्रानंदन पंत – प्रकृति और कल्पनाशीलता के कवि
  3. महादेवी वर्मा – नारी वेदना और करुणा की कवयित्री
  4. निराला – विद्रोह, स्वतंत्रता और नवचेतना के कवि

इन चार कवियों ने हिंदी काव्य को नई दिशा, भावनात्मक गहराई और कलात्मक उत्कृष्टता प्रदान की। इसलिए, ये हिंदी साहित्य में “छायावाद के चार स्तंभ” के रूप में जाने जाते हैं।

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