प्रयोगवाद की विशेषताएं: परिचय, अर्थ, पृष्ठभूमि, उदय और कारण, नामकरण, स्वरूप, प्रवृत्तियां, प्रमुख कवि, समय सीमा
प्रयोगवाद का परिचय
हिंदी साहित्य के विकास में प्रयोगवाद एक अत्यंत महत्वपूर्ण काव्य-आंदोलन के रूप में सामने आया। यह साहित्यिक प्रवृत्ति मुख्यतः 1943 के आसपास उभरकर आई और धीरे-धीरे हिंदी कविता में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली। प्रयोगवाद केवल एक काव्य शैली नहीं, बल्कि एक संपूर्ण दृष्टिकोण था, जिसने हिंदी कविता को पारंपरिक रूढ़ियों और सीमाओं से बाहर निकालकर एक नया मार्ग दिया।
इस आंदोलन का मूल उद्देश्य साहित्य में नवीन संवेदनाओं, अनुभवों, विचारों और प्रयोगों को स्थान देना था। यह आंदोलन अपने प्रारंभिक दौर में प्रगतिवाद से प्रभावित था, लेकिन धीरे-धीरे इसने अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई और नई कविता के रूप में विकसित हुआ।
प्रयोगवाद ने हिंदी कविता को नई भाषा, नए प्रतीकों, नए शिल्प और नए विषयों से समृद्ध किया। इसने परंपरागत छंद, अलंकार और बंधनों को तोड़ते हुए कविता को अधिक स्वतंत्र और प्रभावी बनाने की कोशिश की।
डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त ने प्रयोगवादी कविता के बारे में कहा था:
“नई कविता, नए समाज के नए मानव की नई वृत्तियों की नवीन अभिव्यक्ति है, जो नए पाठकों के नए विचारों पर नए ढंग से प्रभाव डालती है।”
प्रयोगवाद का अर्थ
प्रयोगवाद एक साहित्यिक आंदोलन है, जिसका मूल अर्थ “नए प्रयोग करने की प्रवृत्ति” से है। यह हिंदी काव्य की एक आधुनिक धारा है, जिसमें भाषा, शिल्प, विषय-वस्तु और अभिव्यक्ति के नए-नए तरीकों को अपनाया गया।
शब्दार्थ:
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प्रयोग = नवीनता या नवाचार की प्रक्रिया
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वाद = किसी विशेष विचारधारा या दर्शन की स्थापना
अतः प्रयोगवाद का अर्थ हुआ – “साहित्य और काव्य में नए विचारों, शैलियों और संवेदनाओं का सृजनात्मक प्रयोग।”
साहित्यिक परिभाषा:
प्रयोगवाद हिंदी साहित्य में एक काव्य प्रवृत्ति के रूप में 1943 ई. के बाद उभरा, जिसमें कवियों ने पारंपरिक साहित्यिक नियमों से हटकर नए भावबोध, नए शिल्प, और नए प्रयोगों को प्राथमिकता दी।
डॉ. नगेंद्र के अनुसार:
“प्रयोगवाद वस्तुगत, मूर्त और ऐंद्रिय चेतना का विकास है, जिसमें कविता को अधिक यथार्थवादी और कलात्मक बनाने का प्रयास किया गया है।”
प्रयोगवाद की पृष्ठभूमि
प्रयोगवाद हिंदी साहित्य में 1943 ईस्वी के बाद उभरी काव्य प्रवृत्ति है, जिसने छायावाद और प्रगतिवाद की सीमाओं और रूढ़ियों की प्रतिक्रिया स्वरूप जन्म लिया। यह साहित्य में नये प्रयोगों, शैलियों और संवेदनाओं की खोज का परिणाम था।
1. छायावाद से असंतोष
छायावाद (1918-1936) हिंदी कविता का स्वर्णयुग माना जाता है, लेकिन इसकी कुछ सीमाएँ थीं—
- छायावादी काव्य में रहस्यवाद, आत्मानुभूति, प्रकृति प्रेम और कोमल भावनाएँ अधिक थीं।
- यह यथार्थ जीवन और सामाजिक समस्याओं से कटा हुआ था।
- इसकी भाषा अत्यंत अलंकारिक, लाक्षणिक और प्रतीकात्मक थी, जो सामान्य पाठकों के लिए कठिन थी।
प्रयोगवादी कवियों ने इन सीमाओं को तोड़कर व्यक्ति और समाज के वास्तविक संघर्षों और अनुभवों को अधिक स्पष्टता से व्यक्त करने की कोशिश की।
2. प्रगतिवाद से मतभेद
छायावाद के बाद हिंदी कविता में प्रगतिवाद (1936-1943) आया, जो समाजवाद और मार्क्सवाद से प्रभावित था।
- यह आंदोलन सामाजिक यथार्थ, वर्ग-संघर्ष, क्रांति और श्रमिक जीवन को केंद्र में रखता था।
- इसमें कविता को एक सामाजिक और राजनीतिक हथियार की तरह देखा गया।
- इसमें व्यक्तिगत अनुभूतियों के बजाय सामूहिक दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी गई।
हालाँकि, प्रयोगवादी कवियों को लगा कि कविता केवल सामाजिक या राजनीतिक परिवर्तन का माध्यम नहीं हो सकती। उन्होंने इसे अधिक स्वतंत्र और बहुआयामी बनाने का प्रयास किया।
3. वैश्विक प्रभाव और आधुनिकतावाद
प्रयोगवाद के उदय के समय पश्चिमी साहित्य में आधुनिकतावाद (Modernism) का प्रभाव बढ़ रहा था।
- टी.एस. इलियट, एज़रा पाउंड, रॉबर्ट फ्रॉस्ट और पाब्लो नेरुदा जैसे कवियों ने साहित्य में नए प्रयोग किए।
- इन कवियों ने पुरानी परंपराओं को चुनौती दी और नई भाषा, नए प्रतीक, और नए शिल्प विकसित किए।
- हिंदी के प्रयोगवादी कवियों ने भी इन प्रवृत्तियों को अपनाया और नवीन बिंब, प्रतीक, और शैलियों का विकास किया।
4. द्वितीय विश्वयुद्ध और सामाजिक बदलाव
- द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के कारण पूरी दुनिया में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक उथल-पुथल थी।
- भारतीय समाज में भी स्वतंत्रता संग्राम, औद्योगीकरण और सांस्कृतिक परिवर्तन हो रहे थे।
- इस बदलते माहौल में नई पीढ़ी के कवियों ने परंपरागत सोच से हटकर नए विचारों को अपनाया।
5. ‘तार सप्तक’ और प्रयोगवाद का औपचारिक आरंभ
- 1943 में अज्ञेय के संपादन में ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन हुआ, जिसने प्रयोगवाद को एक संगठित रूप दिया।
- इसमें सात कवियों (अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, नेमिचंद जैन, भारत भूषण अग्रवाल आदि) की कविताएँ संकलित थीं।
- यह संग्रह प्रयोगवाद की पहली औपचारिक अभिव्यक्ति बना और इसके बाद इस आंदोलन ने हिंदी साहित्य में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की।
प्रयोगवाद की पृष्ठभूमि में छायावाद की भावुकता से असंतोष, प्रगतिवाद की सीमाएँ, वैश्विक साहित्यिक प्रभाव, द्वितीय विश्वयुद्ध की उथल-पुथल, और स्वतंत्रता संग्राम के सामाजिक बदलाव प्रमुख कारक थे।
इसका मुख्य उद्देश्य कविता को अधिक स्वतंत्र, प्रयोगशील और नवीन बनाना था, जिससे यह व्यक्ति और समाज दोनों के अनुभवों को नई शैली और नए शिल्प में व्यक्त कर सके।
प्रयोगवाद का उदय और कारण
प्रयोगवाद का जन्म हिंदी काव्य के दो प्रमुख काव्य आंदोलनों—छायावाद और प्रगतिवाद—की सीमाओं और रूढ़ियों की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ।
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार:
“छायावाद की अतिन्द्रियता और आदर्शवादी सौंदर्य चेतना के विपरीत, प्रयोगवाद ने एक ठोस, मूर्त और ऐन्द्रिय चेतना को विकसित किया, जिसमें सुंदरता की परिधि में सहज, अनगढ़ और भौतिक तत्वों को भी स्थान मिला।”
छायावादी कविता में वैयक्तिकता तो थी, लेकिन वह एक उदात्त भावना से ओत-प्रोत थी। इसके विपरीत, प्रगतिवाद में यथार्थ का चित्रण तो था, परंतु वह पूर्णतः सामाजिक समस्याओं और राजनीतिक विषयों तक सीमित था।
इन्हीं दोनों धाराओं की प्रतिक्रिया के रूप में प्रयोगवाद का उद्भव हुआ, जिसमें ‘घोर अहंमवादी’, ‘वैयक्तिकता’ एवं ‘नग्न-यथार्थवाद’ को अभिव्यक्ति दी गई।
श्री लक्ष्मीकांत वर्मा ने इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा:
“छायावाद ने अपने शब्दाडंबर में कविता की गतिशीलता को बाधित किया, जबकि प्रगतिवाद ने सामाजिकता के नाम पर कविता की भावनात्मक गहराई को सपाट कर दिया। ऐसे में, नए भाव-बोध की अभिव्यक्ति के लिए न केवल नए शब्दों की जरूरत थी, बल्कि एक नई शैली और शिल्प की भी आवश्यकता थी।”
प्रयोगवाद का उदय के कारण
1. छायावाद से असंतोष
छायावाद हिंदी कविता का एक अत्यंत सृजनात्मक और भावप्रधान युग था, जिसमें सौंदर्य, प्रकृति, कल्पना और रहस्यवाद का गहरा प्रभाव था। हालांकि, इस शैली की कविता में अधिकतर आत्मा, प्रेम, सौंदर्य और रहस्य को ही स्थान दिया गया था। इस कारण, यह धीरे-धीरे वास्तविक जीवन और आधुनिक समाज की चुनौतियों से कटती चली गई।
प्रयोगवादी कवियों ने छायावाद के इस अतिन्द्रिय (अलौकिक) और भावुक स्वभाव को अस्वीकार किया और अधिक ठोस, वास्तविक और मूर्त विषयों की ओर ध्यान केंद्रित किया।
2. प्रगतिवाद से मतभेद
प्रगतिवाद हिंदी कविता में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया, जिसने सामाजिक यथार्थ, संघर्ष, शोषण और क्रांति को मुख्य विषय बनाया। प्रगतिवादी कविताएँ समाज के मुद्दों और राजनीतिक विचारधाराओं पर केंद्रित थीं। हालांकि, इस आंदोलन की एक बड़ी कमी यह थी कि इसमें व्यक्तिगत भावनाओं और आत्म-अनुभवों के लिए बहुत कम स्थान बचा था।
प्रयोगवादी कवियों को लगा कि कविता को केवल सामाजिक समस्याओं और राजनीतिक विचारधाराओं तक सीमित रखना उसकी रचनात्मकता को बाधित कर सकता है। इसलिए, उन्होंने सामाजिक विषयों के साथ-साथ व्यक्तिगत भावनाओं और आंतरिक संवेदनाओं को भी महत्व दिया।
3. नए विचारों और वैश्विक प्रभाव
प्रयोगवाद केवल छायावाद और प्रगतिवाद की प्रतिक्रिया मात्र नहीं था, बल्कि यह एक नए तरह की बौद्धिक चेतना और वैश्विक साहित्यिक प्रभावों का परिणाम भी था। इस दौरान पश्चिमी साहित्य में आधुनिकतावाद (Modernism) का प्रभाव बढ़ रहा था, जिसने हिंदी साहित्यकारों को भी प्रेरित किया।
4. वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति का प्रभाव
20वीं शताब्दी विज्ञान और तकनीक के अभूतपूर्व विकास का युग था। औद्योगीकरण, बिजली, संचार क्रांति, रेडियो, टेलीविजन और विज्ञान के अन्य आविष्कारों ने जीवन को पूरी तरह बदल दिया। विज्ञान ने मनुष्य को यह सिखाया कि हर चीज को तर्क और प्रयोग के आधार पर परखा जाना चाहिए।
इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा। छायावादी कविता जहाँ कल्पना, भावुकता और रहस्यवाद पर केंद्रित थी, वहीं प्रयोगवाद ने तर्क, अनुभव और प्रयोग को अधिक महत्व दिया। प्रयोगवादी कवियों ने भाषा, शिल्प और शैली में नए प्रयोग किए और कविता को वास्तविकता के करीब लाने की कोशिश की।
5. अस्तित्ववाद और आधुनिक दार्शनिक प्रवृत्तियों का प्रभाव
20वीं शताब्दी के मध्य में अस्तित्ववाद (Existentialism) एक प्रमुख दार्शनिक आंदोलन के रूप में उभरा। जीन-पॉल सार्त्र, अल्बेयर कामू और फ्रेडरिक नीत्शे जैसे दार्शनिकों ने यह विचार प्रस्तुत किया कि मनुष्य का अस्तित्व ही उसके विचारों और कर्मों पर निर्भर करता है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि हर व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता और अस्तित्व की खोज में संघर्ष करता है।
हिंदी कविता में भी इस विचारधारा का प्रभाव देखने को मिला। प्रयोगवादी कवियों ने सामाजिक बंधनों से मुक्त होकर व्यक्ति के आत्मसंघर्ष, आंतरिक द्वंद्व और असुरक्षा की भावनाओं को अभिव्यक्ति दी। यह काव्यधारा व्यक्ति की निजी अनुभूतियों, मनोवैज्ञानिक पहलुओं और अस्तित्व संबंधी प्रश्नों को भी शामिल करने लगी।
6. युद्धों और सामाजिक अशांति का प्रभाव
प्रयोगवाद के उदय के समय दुनिया दो विश्व युद्धों (1914-1918 और 1939-1945) के दर्द से गुज़र रही थी। भारत भी स्वतंत्रता संग्राम, विभाजन और सामाजिक अस्थिरता के दौर से गुज़र रहा था। इन घटनाओं ने मनुष्य के जीवन और मूल्यों पर गहरा असर डाला।
प्रयोगवादी कवियों ने इस बदले हुए सामाजिक परिवेश को अपने साहित्य में स्थान दिया। उन्होंने यथार्थ को अधिक संवेदनशीलता और मनोवैज्ञानिक गहराई से व्यक्त किया। उनकी कविताएँ केवल बाहरी समाज को नहीं, बल्कि व्यक्ति के आंतरिक मनोभावों और संघर्षों को भी दर्शाने लगीं।
7. भाषा और शिल्प में नवीनता की आवश्यकता
छायावाद की भाषा अत्यंत कोमल, भावुक और लाक्षणिक थी, जबकि प्रगतिवाद की भाषा सीधी, स्पष्ट और संघर्षप्रधान थी। प्रयोगवादी कवियों को लगा कि हिंदी कविता की भाषा में नई ऊर्जा और ताजगी लाने की जरूरत है।
उन्होंने कविता को अलंकारों और शाब्दिक साज-सज्जा से मुक्त करके उसे अधिक स्वाभाविक, आधुनिक और संप्रेषणीय बनाने की कोशिश की। भाषा को रोजमर्रा के जीवन से जोड़ा गया, जिससे कविता अधिक प्रभावशाली और यथार्थवादी बन सकी।
8. व्यक्तिवाद और आत्मचेतना का विकास
छायावाद में प्रेम, सौंदर्य और रहस्यवाद की प्रधानता थी, लेकिन उसमें भी व्यक्ति की आंतरिक चेतना को प्रमुखता दी गई थी। प्रगतिवाद में यह पहलू कमजोर पड़ गया, क्योंकि वह सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ तक सीमित हो गया था।
प्रयोगवादी कविता ने फिर से व्यक्ति के आंतरिक संसार, उसकी अनुभूतियों, मानसिक द्वंद्व और अस्तित्व संबंधी प्रश्नों को केंद्र में रखा। कवियों ने स्वयं की पहचान और आत्माभिव्यक्ति को महत्व दिया, जिससे कविता अधिक गहन और वैचारिक रूप से समृद्ध बनी।
9. पश्चिमी साहित्यिक आंदोलनों का प्रभाव
प्रयोगवाद केवल हिंदी साहित्य के भीतर उत्पन्न हुआ आंदोलन नहीं था, बल्कि यह वैश्विक साहित्यिक प्रवृत्तियों से भी प्रेरित था। पश्चिमी देशों में सिम्बॉलिज़्म (Symbolism), इमेजिज़्म (Imagism), फ्री वर्स (Free Verse), आधुनिकतावाद (Modernism) और अतियथार्थवाद (Surrealism) जैसी नई काव्य प्रवृत्तियाँ विकसित हो रही थीं।
प्रयोगवादी कवियों ने इन प्रवृत्तियों से प्रेरणा लेकर हिंदी कविता में भी नए प्रतीकों, बिंबों और शैलियों का समावेश किया। वे कविता में लय और छंद की परंपरागत सीमाओं को तोड़ने लगे और अधिक स्वतंत्रता के साथ नए प्रयोग करने लगे।
10. नई पीढ़ी की बदलती मानसिकता
हर नई पीढ़ी अपने पूर्ववर्तियों से कुछ अलग सोचती और महसूस करती है। 1950 के दशक तक हिंदी साहित्य में एक नई पीढ़ी सामने आई, जो छायावाद और प्रगतिवाद दोनों से अलग दृष्टिकोण रखती थी।
यह पीढ़ी अधिक खुले विचारों वाली थी और साहित्य को केवल भावनाओं या समाज सुधार तक सीमित नहीं रखना चाहती थी। वह नए विचारों, नए शिल्प और नए प्रयोगों के लिए तैयार थी। इसी नई मानसिकता ने प्रयोगवाद को गति दी और हिंदी कविता में एक नई धारा को जन्म दिया।
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प्रयोगवाद का नामकरण
प्रयोगवाद शब्द का प्रयोग हिंदी काव्य में सबसे पहले डॉ. नंददुलारे वाजपेयी ने किया। उन्होंने इस शब्द का उपयोग उन कविताओं के लिए किया जो पारंपरिक काव्यशैली से हटकर नए शिल्प, नए बिंबों और नए भावबोध को प्रस्तुत कर रही थीं।
कैसे हुआ प्रयोगवाद का नामकरण?
- 1943 में ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन – अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित ‘तार सप्तक’ में शामिल कविताएँ अपने शिल्प और विषय-वस्तु में नवीन प्रयोग कर रही थीं।
- नए प्रयोगों की प्रधानता – इन कविताओं में पारंपरिक छंदों, प्रतीकों और भाषा के बंधनों को तोड़ने की प्रवृत्ति थी, जिससे इन्हें ‘प्रयोगवादी कविता’ कहा गया।
- डॉ. नंददुलारे वाजपेयी का योगदान – उन्होंने इस काव्य-प्रवृत्ति को ‘प्रयोगवाद’ नाम दिया, क्योंकि इसका मूल स्वरूप नवाचार और प्रयोगशीलता था।
प्रयोगवाद का अन्य नाम:
- कुछ आलोचकों ने इसे ‘प्रपद्यवाद’ भी कहा, क्योंकि नकेनवादियों (नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार, नरेश) ने इसे “प्रयोग पद्य” (प्रपद्य) कहा था।
प्रयोगवाद का नामकरण इस काव्य प्रवृत्ति की विशेषता—नवाचार, प्रयोग और सृजनात्मक स्वतंत्रता—को ध्यान में रखते हुए किया गया। यह हिंदी कविता में एक नए युग की शुरुआत थी, जिसने रूढ़ियों को तोड़कर स्वतंत्र अभिव्यक्ति को जन्म दिया।
प्रयोगवादी कविता का स्वरूप
प्रयोगवादी कविता हिंदी साहित्य में एक क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रतीक थी, जिसने परंपरागत काव्य प्रवृत्तियों को चुनौती दी और नए प्रयोगों की राह खोली। यह कविता अस्वीकार, आत्यंतिक विच्छेद और व्यापक मूर्तिभंजन के स्वर को मुखर करने वाली थी। प्रयोगवादी कविता का उदय एक ऐसी साहित्यिक चेतना के रूप में हुआ, जो छायावादी भावुकता और प्रगतिवादी नारेबाजी से अलग, अधिक यथार्थवादी, मनोवैज्ञानिक और आधुनिक दृष्टिकोण को अपनाने वाली थी।
1. प्रारंभिक संकेत और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन
प्रयोगवादी कविता का स्वरूप धीरे-धीरे आकार लेने लगा, और 1939 में नरोत्तम नागर द्वारा संपादित पत्रिका ‘उच्छृंखल’ में इस प्रकार की कविताएँ प्रकाशित होने लगीं। ये कविताएँ पारंपरिक भावनात्मकता को तोड़कर एक नए काव्यबोध को प्रस्तुत कर रही थीं, जो जीवन की जटिलताओं, विरोधाभासों और आधुनिक समाज के यथार्थ को सीधे-सीधे व्यक्त करने का प्रयास कर रही थीं।
इस दौर की कविताओं में स्पष्ट रूप से यह देखा जा सकता था कि कवि अब किसी स्थापित आदर्शवाद या परंपरागत सौंदर्य-बोध से बंधे नहीं रहना चाहते थे। वे जीवन के वास्तविक अनुभवों, मानसिक द्वंद्व और आत्मसंघर्ष को अपने काव्य में स्थान दे रहे थे।
2. निराला और प्रयोगवाद की पूर्वभूमि
कुछ साहित्यिक विद्वानों का मत है कि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कुछ कविताएँ, विशेष रूप से ‘नए पत्ते’, ‘बेला’ और ‘कुकुरमुत्ता’, प्रयोगवाद की आधारशिला के रूप में देखी जा सकती हैं। निराला की इन रचनाओं में पारंपरिक काव्यशैली को तोड़कर भाषा, विषयवस्तु और शिल्प में नवीन प्रयोग किए गए थे। उनकी कविताओं में एक अलग तरह का विद्रोह और जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण देखने को मिलता है।
हालाँकि, उस समय तक प्रयोगवाद एक स्वतंत्र काव्य-आंदोलन के रूप में परिभाषित नहीं हुआ था, लेकिन निराला की यह शैली आने वाले प्रयोगवादी कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी।
3. ‘तार सप्तक’ और प्रयोगवाद की विधिवत स्थापना
1943 में अज्ञेय के संपादन में ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन हुआ, जिसने प्रयोगवादी कविता को एक स्पष्ट स्वरूप और पहचान दी। ‘तार सप्तक’ सात प्रमुख कवियों का एक संग्रह था, जिसमें ऐसे कवियों की रचनाएँ संकलित थीं, जो भाषा, शिल्प और विषयवस्तु में नवीनता के पक्षधर थे।
इन कवियों ने कविता को नई भाषा, नए प्रतीकों और नए विचारों के साथ प्रस्तुत किया। उन्होंने पारंपरिक छंदों को तोड़ा और मुक्त छंद (Free Verse) को अपनाया, जिससे कविता की अभिव्यक्ति अधिक स्वाभाविक और प्रभावी हो गई।
1951 में ‘द्वितीय तार सप्तक’ के प्रकाशन तक आते-आते प्रयोगवादी कविता पूरी तरह से परिभाषित हो गई। यह स्पष्ट हो गया कि यह कविता परंपरा से हटकर एक नए साहित्यिक यथार्थ को सामने लाने का प्रयास कर रही थी।
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प्रयोगवाद के प्रमुख तथ्य
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नामकरण: नंद दुलारे वाजपेयी ने पहली बार इस काव्य-धारा को “प्रयोगवादी कविता” कहा।
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प्रमुख कवि: अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, मुक्तिबोध, नेमिचंद जैन, भारत भूषण अग्रवाल, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती आदि।
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अग्रणी कवि: अज्ञेय को “प्रयोगवाद का प्रवर्तक” माना जाता है।
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नकेनवाद: नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश ने अपने काव्य को “प्रयोग पद्य” (प्रपद्य) कहा, इसलिए इसे प्रपद्यवाद भी कहा जाता है।
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विशेषता: प्रयोगवाद ने समाज के बजाय व्यक्ति को, विचारधारा के बजाय अनुभव को, और विषय-वस्तु की तुलना में कलात्मकता को अधिक महत्व दिया।
प्रयोगवाद की विशेषताएँ / प्रयोगवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
प्रयोगवादी कविता हिंदी साहित्य में एक नई दिशा लेकर आई, जिसने परंपरागत काव्य-शैलियों से हटकर नवीन प्रयोग किए। इसकी विशेषताएँ व्यक्ति की अनुभूति, यथार्थवाद, भाषा में नवाचार, शिल्प की नवीनता और मनोवैज्ञानिक गहराई से परिभाषित होती हैं।
1. व्यक्ति की प्रधानता
प्रयोगवाद ने समाज के सामूहिक अनुभवों के बजाय व्यक्ति की अनुभूतियों और संवेदनाओं को अधिक महत्व दिया। छायावाद में व्यक्ति का भावनात्मक पक्ष अधिक उभरकर आया था, जबकि प्रगतिवाद में समाज और राजनीति का जोर था। प्रयोगवादियों ने इन दोनों प्रवृत्तियों से अलग होकर व्यक्ति की स्वतंत्रता, मानसिक संघर्ष, अनुभूति और आंतरिक चेतना को प्राथमिकता दी।
कवि अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को खुलकर अभिव्यक्त करता है। कविता में आत्मकेंद्रितता बढ़ी, जिससे इसमें निजता (subjectivity) का स्वर प्रमुख हो गया। यह कविता सामाजिक यथार्थ को केवल बाहरी दृष्टि से नहीं, बल्कि व्यक्ति की आंतरिक चेतना के माध्यम से भी प्रस्तुत करती है।
“मैं नीर भरी दुख की बदली!
विपुल पीर, प्रवाल वितानों में,
विस्तृत नभ के इंद्रधनुष-से,
छाया-चित्र धराती अनंत में।”
— सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
2. नग्न यथार्थवाद
प्रयोगवादियों ने यथार्थ को किसी प्रकार की अलंकारिक भाषा या सजीव कल्पना से ढकने के बजाय “नग्न यथार्थ” (सत्य को बिना किसी आवरण के प्रस्तुत करना) के रूप में चित्रित किया।
इसमें प्रेम, पीड़ा, अकेलापन, संघर्ष, मानसिक असुरक्षा और मानवीय कमजोरियों को वास्तविकता के साथ व्यक्त किया गया। इस कविता में सौंदर्य के बजाय जीवन की कठोर सच्चाइयों को अधिक महत्व दिया गया। आदर्शवाद की जगह कठोर यथार्थवाद को अपनाया गया, जिससे कविता अधिक प्रामाणिक और प्रभावशाली बनी।
“घनीभूत पीड़ा की छाया
पर जीवन क्या कभी मुसकाया?”
— अज्ञेय
3. भाषा और शैली में नवाचार
प्रयोगवादी कविता की सबसे बड़ी विशेषता इसकी भाषा और शैली में किए गए नवाचार (innovation) थे।
पारंपरिक साहित्यिक भाषा को छोड़कर इसमें बोलचाल की भाषा का अधिक प्रयोग किया गया।भाषा को अधिक स्वाभाविक, संप्रेषणीय और सहज बनाया गया। कविता में नए प्रतीकों, नवीन बिंबों और आधुनिक संदर्भों को अपनाया गया। इसमें एक नए तरह का लय और प्रवाह देखने को मिलता है, जो इसे छायावाद और प्रगतिवाद से अलग करता है।
“सुनो भाई!
यह जो तुमसे कह रहा हूँ
वह सत्य है, लोहे की तरह कठोर।”
— अज्ञेय
4. रूपवाद (Formalism) की प्रधानता
प्रयोगवाद में काव्य की कलात्मकता (Artistic Form) को विशेष महत्व दिया गया। यह काव्य केवल कथ्य (content) पर केंद्रित नहीं था, बल्कि इसकी शिल्प और शैली की नवीनता भी इसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता थी।
कथ्य (content) से अधिक कविता के शिल्प और शैली (form and style) पर जोर दिया गया। इसमें विभिन्न काव्य-रूपों और भाषाई संरचनाओं के साथ प्रयोग किए गए। कविता की परंपरागत रचनात्मकता से अलग एक नई संरचना, लय और अभिव्यक्ति शैली विकसित की गई।
“आओ, फिर से बहार लाएँ,
हम दोनों चुपचाप चलें
इस सूनी राह पर,
जहाँ सिर्फ़ खामोशियाँ बोलती हैं।”
— शमशेर बहादुर सिंह
5. मुक्त छंद का प्रयोग
प्रयोगवाद ने छायावादी कविता की छंदबद्धता और तुकांतता को अस्वीकार कर दिया और इसके स्थान पर मुक्त छंद (Free Verse) को अपनाया।
कविताएँ पारंपरिक छंदों की बंधनों से मुक्त हो गईं।कविता की लय आंतरिक (internal rhythm) हो गई, जो विचारों और भावनाओं के प्रवाह के अनुसार चलती थी। कविता की संरचना अधिक स्वाभाविक और सहज बन गई, जिससे वह पाठक के लिए अधिक प्रभावशाली हो गई।
“दीवारें सुनती रहती हैं,
कमरे के अंदर की आवाज़ें
रात की चुप्पी में घुलकर
मुझसे बातें करती हैं।”
— मुक्तिबोध
6. आत्मसंधान और मनोवैज्ञानिक गहराई
प्रयोगवादी कविता में मनुष्य के मनोविज्ञान, अंतरद्वंद्व और आत्मसंधान (Self-exploration) को विशेष स्थान मिला।
यह कविता बाहरी समाज की तुलना में अंतर्मन की यात्रा पर अधिक केंद्रित थी। इसमें व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक पहलुओं, मानसिक उलझनों और अस्तित्व संबंधी प्रश्नों को प्रमुखता दी गई। इसमें विचारों की जटिलता और दर्शन की गहराई भी देखने को मिलती है।
“अंधेरे में, मैं चल रहा हूँ
रास्ता अनजाना है
कहीं कोई दीप नहीं जलता।”
— मुक्तिबोध (‘अंधेरे में’)
निष्कर्ष
प्रयोगवादी कविता ने हिंदी साहित्य में एक नई भाषा, नई शैली और नए विचारों का प्रवेश कराया। इसमें छंदबद्धता, परंपरागत भाषा और आदर्शवाद से हटकर व्यक्ति, यथार्थ और मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि को अधिक महत्व दिया गया।
यह कविता व्यक्ति केंद्रित थी, जो आत्मसंघर्ष, अनुभूतियों और मानसिक उलझनों को अभिव्यक्त करती थी। इसमें नग्न यथार्थवाद, भाषा और शिल्प में नवीनता, मुक्त छंद और मनोवैज्ञानिक गहराई की विशेषताएँ प्रमुख थीं। ‘तार सप्तक’ के कवियों ने इस काव्यधारा को स्थापित किया और इसे हिंदी साहित्य में एक सशक्त काव्य आंदोलन के रूप में विकसित किया।
प्रयोगवाद ने हिंदी कविता को अधिक प्रयोगधर्मी, आधुनिक और स्वतंत्र अभिव्यक्ति प्रदान की, जिससे आगे चलकर ‘नई कविता’ जैसी प्रवृत्तियों का जन्म हुआ।
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प्रयोगवाद के प्रमुख कवि
प्रयोगवादी काव्य धारा को स्थापित करने में कई प्रमुख कवियों ने योगदान दिया। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण नाम इस प्रकार हैं:
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अज्ञेय – प्रयोगवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं।
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गिरिजा कुमार माथुर
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गजानन माधव मुक्तिबोध
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नेमिचंद जैन
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भारत भूषण अग्रवाल
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रघुवीर सहाय
-
धर्मवीर भारती
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नलिन विलोचन शर्मा
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केसरी कुमार
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नरेश मेहता
अज्ञेय का संपादित संकलन ‘तार सप्तक’ (1943) प्रयोगवादी कविता का पहला महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है। इसके बाद ‘द्वितीय तार सप्तक’ (1951) और ‘तृतीय तार सप्तक’ (1959) के माध्यम से यह काव्य प्रवृत्ति और अधिक स्पष्ट हुई।
प्रयोगवाद की समय सीमा
प्रयोगवाद हिंदी साहित्य में 1943 से लेकर लगभग 1954-55 तक सक्रिय रूप से विद्यमान रहा। इसे हिंदी कविता के विकासक्रम में एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी चरण माना जाता है। इस समयावधि में हिंदी कविता में नए शिल्प, नए विषय और नए संवेदनबोध का विकास हुआ।
प्रमुख समय-सीमाएँ और घटनाएँ:
- 1943 – ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन (प्रयोगवाद की शुरुआत)
- अज्ञेय के संपादन में ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन हुआ, जिसमें सात नवोदित कवियों की कविताएँ शामिल थीं।
- इस संग्रह ने हिंदी कविता में प्रयोगवाद को पहली बार औपचारिक रूप से प्रस्तुत किया।
- इस दौर में कविता छायावाद और प्रगतिवाद दोनों से हटकर नए शिल्प और यथार्थ को अपनाने लगी।
- 1943-1950 – प्रयोगवाद का प्रसार और विकास
- इस अवधि में प्रयोगवादी कवियों ने कविता में व्यक्तिवादी दृष्टिकोण, मुक्त छंद, नए बिंब और प्रतीकों का समावेश किया।
- अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, नेमिचंद्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, मुक्तिबोध आदि कवियों ने प्रयोगवाद को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
- इस दौरान साहित्यिक पत्रिकाओं और मंचों पर प्रयोगवाद चर्चा का प्रमुख विषय बन गया।
- 1951 – दूसरा ‘तार सप्तक’ और प्रयोगवाद की परिपक्वता
- अज्ञेय ने दूसरा ‘तार सप्तक’ संपादित किया, जिसमें प्रयोगवादी कविताओं की विविधता और गहराई और स्पष्ट हुई।
- इस दौर में कविता निजी अनुभूतियों, अस्तित्ववादी विचारों और सामाजिक यथार्थ से जुड़ने लगी।
- 1954-55 – नयी कविता की ओर संक्रमण (प्रयोगवाद का अंत)
- 1954 के बाद हिंदी कविता में ‘नयी कविता’ का दौर शुरू हुआ, जिसमें प्रयोगवादी तत्वों का ही और अधिक परिष्कृत रूप दिखाई दिया।
- इस समय तक प्रयोगवाद अपने शिखर पर पहुँचकर नयी कविता में परिवर्तित हो चुका था।
- अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह जैसे कवि अब ‘नयी कविता’ के प्रमुख स्तंभ बन गए।
निष्कर्ष
प्रयोगवाद की सक्रिय समय-सीमा 1943 से 1954-55 तक मानी जाती है। इस दौरान हिंदी कविता ने छायावाद और प्रगतिवाद से अलग हटकर नए शिल्प और नवीन अभिव्यक्तियों को अपनाया। हालाँकि, 1954-55 के बाद यह धीरे-धीरे ‘नयी कविता’ में परिवर्तित हो गया, लेकिन इसका प्रभाव हिंदी साहित्य पर स्थायी रूप से बना रहा।