ठेले पर हिमालय में वर्णित लेखक की कौसानी-यात्रा का वर्णन करें

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ठेले पर हिमालय’ एक अत्यंत संवेदनशील और आत्मानुभूति से भरपूर निबंध है, जिसमें लेखक ने अपनी कौसानी-यात्रा के अनुभव को अत्यंत सजीव और प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया है। इस यात्रा का मूल उद्देश्य हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों के सौंदर्य का दर्शन करना था, और इस यात्रा में लेखक ने प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ आत्मिक शांति और गहन अनुभूति का अनुभव किया।

यात्रा की शुरुआत लेखक नैनीताल से करते हैं। उनका मार्ग नैनीताल से रानीखेत, रानीखेत से मझकाली और फिर कोसी तक जाता है। यह मार्ग बहुत ही कठिन, ऊबड़-खाबड़ और थकावट भरा था। रास्ते में भूरे सूखे पहाड़, बिना हरियाली के टेढ़े-मेढ़े खेत, तपती धूप और जल की कमी ने लेखक को पूरी तरह थका और खिन्न कर दिया। साथ ही एक अनुभवहीन और लापरवाह चालक की वजह से बस का सफर और भी कष्टदायक बन गया। जब लेखक कोसी पहुँचे, तब तक उनका चेहरा भी थकान और निराशा से पीला पड़ चुका था।

कोसी में लेखक को थोड़ी राहत तब मिलती है जब उनके पुराने मित्र शुक्लजी, जो पहले से कौसानी पहुँच चुके थे, वहाँ लारी से उतरते हैं। शुक्लजी के साथ एक दुबला-पतला चित्रकार सेन भी था, जो बहुत ही उत्साही, हास्यप्रिय और चंचल स्वभाव का व्यक्ति था। तीनों मिलकर कौसानी की ओर रवाना होते हैं, जहाँ से यात्रा का दृश्यात्मक सौंदर्य धीरे-धीरे उभरता है।

कोसी से आगे का रास्ता अपेक्षाकृत सुंदर था। कल-कल करती हुई कोसी नदी, हरे-भरे खेत, छोटे-छोटे गाँव, चाय की दुकानें और पहाड़ी झरने – ये सब कौसानी की ओर बढ़ते कदमों में ताजगी भर देते हैं। सोमेश्वर घाटी की हरी-भरी सुंदरता लेखक को मोहित करती है, लेकिन वह अभी भी उस बर्फीले हिमालय के दर्शन को लेकर अधीर हैं, जिसके लिए यह यात्रा की गई है।

जैसे-जैसे कौसानी नजदीक आता है, लेखक और उसके साथी थोड़े चिंतित और निराश हो जाते हैं क्योंकि अब तक वह वैसा कोई अद्भुत दृश्य नहीं देख पाए हैं, जिसकी उन्होंने कल्पना की थी। कौसानी पहुँचने पर भी गाँव साधारण-सा और उजाड़ लगता है। न तो वहाँ बर्फ दिखाई देती है, न ही कोई विशेष दृश्य जो उन्हें रोमांचित कर सके। लेखक हताश होकर बस से उतरता है, लेकिन तभी कौसानी की ऊँचाई से उसे जो दृश्य दिखाई देता है, वह उसकी सारी निराशा को एक झटके में मिटा देता है।

सामने कत्यूर की घाटी फैली हुई थी – हरे मखमली खेतों, लाल मिट्टी के रास्तों, झूमती हुई नदियों और दूर क्षितिज में नीले कोहरे में खोई हुई पर्वतमालाओं के साथ। यह दृश्य इतना अद्भुत था कि लेखक उसे देखकर अवाक् रह जाते हैं। इसी दृश्य के बीच, जब बादलों की एक खिड़की खुलती है और एक बर्फ से ढका हिमशिखर झलकता है, तो लेखक भावविभोर हो उठते हैं। वह क्षणिक दर्शन इतना प्रभावशाली था कि वह सभी यात्रियों की सारी थकान मिटा देता है।

इसके बाद धीरे-धीरे बादल हटते हैं और हिमालय की बर्फीली चोटियाँ सामने प्रकट होती हैं। वह श्रृंखला – रहस्यमयी, शीतल और दिव्य – लेखक के मन में गहरी छाप छोड़ती है। लेखक अनुभव करता है कि हिमालय केवल एक पर्वत नहीं, बल्कि एक आत्मिक अनुभव है, जो सारे द्वंद्वों और क्लेशों को शांत कर देता है।

सेन का चरित्र इस यात्रा में हास्य और आनंद का एक अलग रंग भरता है। वह बच्चों की तरह चहकता है, उल्टी दृष्टि से हिमालय को देखने के लिए शीर्षासन करता है और कहता है कि वह हर दृष्टिकोण से हिमालय को देखेगा। उसकी बालसुलभ चंचलता यात्रा को जीवंत बनाए रखती है।

दूसरे दिन लेखक और उसके साथी बैजनाथ घाटी में पहुँचते हैं, जहाँ गोमती नदी बहती है। नदी के स्वच्छ जल में हिमालय की बर्फीली चोटियों की छाया तैर रही थी। लेखक वहाँ उस प्रतिबिंब में डूबकर हिमालय से आत्मिक मिलन अनुभव करता है।

अंततः, लेखक वर्तमान में लौटता है – वहीं पान की दुकान पर ठेले पर बर्फ देखकर उसे कौसानी की याद फिर से पिरा देती है। वह अनुभव करता है कि वास्तविक हिमालय की ऊँचाइयाँ आज भी उसे बुलाती हैं, और वह उनसे एक वादा करता है – “मैं फिर लौट-लौटकर वहीं आऊँगा।”

निष्कर्ष:

कौसानी की यह यात्रा लेखक के लिए केवल एक पर्यटन अनुभव नहीं, बल्कि आत्मा को छू जाने वाली अनुभूति थी। हिमालय की शीतलता, उसकी चिरंतन उपस्थिति और सौंदर्य ने लेखक के भीतर एक ऐसी पीर जगाई, जो उसे आज भी खींचती है। यह यात्रा उसे जीवन की ऊँचाइयों की ओर प्रेरित करती है, और यही इसका सबसे गहरा भाव है।

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