अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएँ ॥ Agey Ki Kavyagat Visheshta

अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएँ ॥ Agey Ki Kavyagat Visheshta

अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएँ ॥ Agey Ki Kavyagat Visheshta

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिन्दी साहित्य में प्रयोगवाद के प्रवर्तक और नयी कविता के अग्रदूत हैं। उन्होंने सन् 1933 से 1987 तक साहित्य की लगभग सभी विधाओं में कार्य किया और 14 काव्य-संग्रह, 7 कहानी-संग्रह, 5 उपन्यास, 2 यात्रा-वृत्तांत, 1 नाटक, 3 डायरी, 10 निबंध और पत्र-संग्रह, 10 अनुवाद और 8 संपादित पुस्तकें प्रकाशित कीं। अज्ञेय ने भाव, भाषा, छंद, शब्द, बिंब, प्रतीक और अलंकार में नये प्रयोग कर हिन्दी साहित्य को नई दिशा और प्रवाह दिया।

कविता के क्षेत्र में उनका योगदान विशेष है। उन्होंने कविता को परंपरागत बंधनों से मुक्त कर स्वतंत्र अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उनकी कविताओं में अंतरात्मा की अनुभूति, आत्म-विश्लेषण, संवेदनशीलता और अस्तित्व की खोज प्रमुख रूप से दिखाई देती है।

अज्ञेय की भाषा गहन, संवेदनात्मक और प्रतीकात्मक है, जिसमें विचारों की गहराई और सौंदर्य का संतुलन मिलता है। उनकी कविताओं में मानव मन की जटिलता, प्रकृति के प्रति प्रेम, जीवन की अनुभूति, आध्यात्मिकता और आधुनिक चेतना स्पष्ट है।

1. व्यक्तिनिष्ठ:

अज्ञेयजी की कविता व्यक्तिनिष्ठ मानी जाती है क्योंकि इसमें सामाजिक सरोकारों की अपेक्षा व्यक्तिगत संबंधों और भावनाओं को प्रमुखता दी गई है। वे सामाजिक समस्याओं या जटिलताओं की बजाय निजी अनुभवों, प्रेम, आत्मनिरीक्षण और अंतरंग भावनाओं को व्यक्त करने में रुचि रखते हैं। उनकी कविता का असली सौंदर्य इसी व्यक्तिगत गहराई में निहित है।

उदाहरण:
1.

“आओ बैठें इसी ढाल की
हरी घास पर।
माली चौकीदारों का यह समय नहीं है
आओ बैठो-तनिक और सटकर
कि हमारे बीच स्नेह भर का व्यवधान रहे।
(हरी घास पर क्षण भर)”

“तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो,
इसी जादू के-निजी किस सहज,
गहरे बोझ से बोध किस प्यार से मैं कह रहा हूँ
(कलगी बाजरे की)”

इन पंक्तियों में स्पष्ट रूप से व्यक्तिगत अनुभव, स्नेह और अंतरंग भावनाओं का चित्रण दिखाई देता है, जो अज्ञेय की कविता की प्रमुख विशेषता है।

2. प्रेमानुभूति:

अज्ञेयजी के काव्य का मुख्य विषय प्रेम है। उनकी कविताओं की शुरुआत अक्सर प्रेम की कसक और वेदना से होती है। वे प्रेम को सहज, स्वाभाविक और समर्पित भाव के रूप में व्यक्त करते हैं, और इसमें कृत्रिमता या दिखावटीपन नहीं होता। अज्ञेय का प्रेम व्यक्तिगत अनुभव और अंतरंग संवेदनाओं पर आधारित होता है।

उनका प्रेम नारी की उपस्थिति में पूर्णता पाता है, किन्तु वे नारी को केवल मित्रवत दृष्टि से पाने की इच्छा भी रखते हैं। उनके काव्य में प्रेम की अनुभूति प्रकृति, समय और वातावरण के साथ जुड़ी रहती है, जिससे भावनाएँ और भी गहरी प्रतीत होती हैं।

उदाहरण:

“अगर मैं तुमको
ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका…”

“अगर मैं यह कहूँ-
बिछली घास हो तुम लहलहाती हवा में
कलगी छरहरे बाजरे की।”

इन पंक्तियों में स्पष्ट है कि अज्ञेय का प्रेम सजीव, संवेदनशील और पूर्ण समर्पण का प्रतीक है। उनकी कविता में प्रेम और मित्रता का संतुलन भी देखा जा सकता है, जो उन्हें समकालीन कवियों से अलग बनाता है।

3. प्रकृति-चित्रण:

अज्ञेयजी की कविता में प्रकृति चित्रण एक प्रमुख और प्रिय विषय है। डॉ. प्रभाकर माचवे के अनुसार, उन्होंने पहाड़ों, झरनों, वृक्षों और बादलों के विविध मूड्स को बड़ी कुशलता और सूक्ष्मता से अभिव्यक्त किया है। अज्ञेय ने प्रकृति का चित्रण आलम्बन (सहारा लेने वाला) और उद्दीपन (उत्साह और प्रेरणा देने वाला) दोनों रूपों में किया है।

आलम्बन रूप: प्रकृति का उपयोग कविता में भावनाओं के आलम्बन के लिए किया जाता है। उदाहरण:

“छिटक रही है चाँदनी, मदमाती, उन्मादिनी कलगी, मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले
पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गयी पलाँगती, सन्नाटें में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती।”

उद्दीपन रूप: प्रकृति का चित्रण कवि के मन में हुलास और अनुभूति जगाने के लिए होता है। उदाहरण:

“उजली-लालिंम मालती गन्ध के डोरे डालती,
मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाई हो चोर की-तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुई चकोर की।”

इस प्रकार, अज्ञेयजी की कविता में प्रकृति न केवल पृष्ठभूमि बनकर है, बल्कि भावों और अनुभूतियों को प्रकट करने का माध्यम भी है, जो उनके काव्य को अत्यंत प्रभावशाली बनाता है।

4. सामाजिक-सम्पृक्ति:

अज्ञेयजी की कविता में सीमित अहंबोध और व्यक्तिवाद के साथ-साथ सामाजिक सम्पृक्ति भी दिखाई देती है। वे केवल व्यक्तिगत अनुभवों तक सीमित नहीं रहते, बल्कि व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों पर भी ध्यान देते हैं। अज्ञेयजी ने स्वस्थ व्यक्तिवाद का स्वर मुखर किया और व्यक्ति के सामाजिकरण पर विशेष बल दिया।

वे अपने विचारों और मान्यताओं को प्रतीकों और रूपकों के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। उनके काव्य में व्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक जिम्मेदारी का संतुलन देखने को मिलता है।

उदाहरण:

“यह दीप अकेला, स्नेह भरा
है गर्वभरा मदमाता”

इस पंक्ति में अज्ञेय ने व्यक्तिगत भावनाओं और सामाजिक जिम्मेदारी को एक साथ दर्शाया है। उनकी कविता में व्यक्ति का समाज में स्थान और सम्बंधों की गहराई प्रमुखता से दिखाई देती है।

5. क्षणानुभूति:

अज्ञेयजी की कविता में क्षणानुभूति यानी जीवन के प्रत्येक क्षण को जीने और उसकी पूर्ण अनुभूति करने पर विशेष ध्यान दिया गया है। उनके अनुसार प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण और अमरत्वपूर्ण होता है। वे चाहते हैं कि व्यक्ति वर्तमान में पूरी तरह मग्न होकर जीवन के अनुभवों को महसूस करे

कवि ने अपने काव्य में क्षणों के महत्व और उनके सौंदर्य को उद्घाटित किया है। उनके अनुसार, छोटे-छोटे क्षण भी जीवन की सम्पूर्णता और आनंद को प्रकट करते हैं।

उदाहरण:

“हरी घास पर क्षण भर…”
“क्षण भर भुला सकें हम। नगरों की बेचैन बुदकती गुड्डूमड्ड अकुलाहट और न मानें उसे पलायन…”
“क्षणभरलय हों मैं भी, तुम भी,
आओ बैठो क्षण भर यह क्षण हमें मिला है…”

इन पंक्तियों में स्पष्ट है कि अज्ञेयजी ने वर्तमान क्षण के अनुभव को सर्वोपरि माना है। उनके काव्य में क्षण की सुंदरता, अंतरंग अनुभूति और समय की संक्षिप्तता प्रमुखता से दिखाई देती है।

6. जिजीविषा की भावना:

अज्ञेयजी निराशावादी कवि नहीं हैं। उनकी कविता में केवल संघर्ष, संत्रास, वेदना और बेचैनी ही नहीं, बल्कि जीने की उत्कट इच्छा और जीवन की जिजीविषा भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। वे अपने काव्य में व्यक्ति की सशक्त, जागरूक और प्रबुद्ध चेतना को उजागर करते हैं।

कवि ने अपनी जिजीविषा को छोटी-छोटी पीड़ा, अपमान और कठिनाइयों के बावजूद जीवन की पूर्णता के अनुभव के रूप में व्यक्त किया है। अज्ञेय के काव्य में यह भावना विश्वास, अनुरक्त नेत्र और सजीव चेतना के माध्यम से प्रकट होती है।

उदाहरण:

“यह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा, वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा; कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कडुवे तम में यह सदा द्रवित, चिर जागरुक, अनुरक्त-नेत्र, उलम्ब-बाहु, यह चिर अखण्ड अपनापा।”

इस पंक्ति में अज्ञेयजी ने जीवन के प्रति उत्साह, जिजीविषा और संघर्षशीलता को दर्शाया है। उनका काव्य पाठक को जीवन की चुनौतियों का सामना करते हुए जीवित रहने की प्रेरणा देता है।

7. नूतन सौन्दर्यबोध:

अज्ञेयजी का काव्य नवीनता के प्रति अग्रणी और परम्परा-विरोधी है। वे सौन्दर्य-चित्रण की पुरानी पद्धति, पुराने उपमान और निष्प्राण प्रतीक स्वीकार नहीं करते। उन्हें परंपरागत शैली मैल, निस्तेज और अप्रासंगिक प्रतीत होती है।

इसलिए वे अपने काव्य में नवीन, जीवंत और सजीव प्रतीकों का प्रयोग करते हैं। उनकी दृष्टि में नए प्रतीक भावनाओं और अनुभूतियों को अधिक सटीक और प्रभावशाली रूप से व्यक्त करते हैं।

उदाहरण:

“बिछली घास हो तुम,
लहलहाती हवा में कलगी छरहरी बाजरे की।”

इस पंक्ति में अज्ञेय ने परंपरागत उपमानों की जगह प्राकृतिक और ताजगीपूर्ण प्रतीकों का प्रयोग किया है। उनका सौन्दर्यबोध सजीव, वास्तविक और प्रेमपूर्ण है, जो पाठक के मन में तुरंत छवि और अनुभूति उत्पन्न करता है।

अतः अज्ञेयजी का काव्य नवीन प्रतीकों और अनुभवों के माध्यम से सजीव सौन्दर्य का अनुभव कराता है।

8. भाषा एवं शब्द योजना:

अज्ञेयजी की कविता में भाषा और शब्द योजना में वैविध्य स्पष्ट दिखाई देता है। वे संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ बोल-चाल की सरल और सजीव शब्दावली का प्रयोग करते हैं। इसका उद्देश्य भावों और विचारों को पाठक तक सही और स्पष्ट रूप में पहुँचाना है।

डॉ. राकेश गुप्त के अनुसार, अज्ञेयजी का मुख्य लक्ष्य शब्द की अर्थवत्ता की सृजनात्मक खोज है, और वे इसे इस तरह करते हैं कि पाठक के लिए दुरूह या कठिन न हो। वे परंपरागत खड़ी बोली में गहराई और संस्कृत शब्दों का समावेश करते हैं, साथ ही सरल, सहज और प्राकृतिक भाषा में भी अपने भावों को अभिव्यक्त करते हैं।

उदाहरण:

  • संस्कृत शब्दावली युक्त:

“यह प्रकृत, स्वयम्भू ब्रह्म, अयुतः”

  • बोल-चाल की सरल भाषा:

“और रहे बैठे तो लोग कहेंगे धुँधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं। वह हम हों भी तो यह हरी घास ही जाने”

अतः अज्ञेयजी की भाषा सृजनात्मक, बहुआयामी और पाठक-सुलभ है, जो उनकी कविता की प्रभावशीलता को बढ़ाती है।

9. नूतन प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग:

अज्ञेयजी प्रयोगवादी कवि होने के नाते नूतन प्रतीकों और बिम्बों के प्रयोग में अग्रणी हैं। उनके काव्य में नए प्रयोगों की अधिकता दिखाई देती है। वे नए प्रतीक, नए बिम्ब और नए उपमान लेकर आते हैं, जिससे उनके काव्य में सृजनात्मकता और नवीनता बनी रहती है।

अज्ञेय ने शब्दों को नया अर्थ देकर उन्हें सजीव किया। उदाहरण के रूप में:

  • “बासन” → नया अर्थ: शब्द
  • “मुलम्मा” → नया अर्थ: चमत्कार
  • “हरी घास” → नया अर्थ: वासना
  • “दीप” → नया अर्थ: अस्मिता

अज्ञेयजी के ये नए प्रतीक और बिम्ब विषयानुरूप होते हैं और कविता के भाव और अर्थ को गहराई और प्रभावशीलता प्रदान करते हैं। उनके प्रयोगों में भावनाओं की सजीवता और कल्पनाशीलता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

इस प्रकार, अज्ञेय का काव्य नवीन प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से पाठक के मन में दृश्यों और भावनाओं को सजीव रूप से प्रस्तुत करता है।

10. छन्द एवं अलंकार विधान:

अज्ञेयजी छन्दबद्ध और छन्द मुक्त कविताएँ दोनों ही रचते रहे हैं। कभी-कभी उनकी कविता पूरी तरह गद्यात्मक हो जाती है। वे लोक गीतों और धुनों पर भी कविताएँ रचते रहे हैं, जिससे उनके काव्य में संगीतात्मकता और लय दिखाई देती है।

अलंकार प्रयोग के मामले में अज्ञेयजी ने कांतिकारिता की परंपरा अपनाई, परन्तु उन्होंने परम्परागत अलंकार और उपमानों का त्याग कर नए प्रतीक और उपमान प्रयोग किए। उनका उद्देश्य था कि भावों की सजीवता और नवीनता पाठक तक पहुंचे।

उदाहरण:

“अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका…”
“बल्कि केवल यही; ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
अगर मैं यह कहूँ-
बिछली घास हो तुम, लहलहाती हवा में कलगी छरहरी बाजरे की?”

इस प्रकार, अज्ञेयजी का छन्द और अलंकार विधान पारंपरिक रूपों का पालन करते हुए नवीन प्रतीक और प्रयोग के माध्यम से काव्य की भावपूर्णता और सौन्दर्य को बढ़ाता है।

11. व्यंग्यात्मकता:

अज्ञेयजी की कविता में कहीं-कहीं सटीक और तीखा व्यंग्य भी दिखाई देता है। उन्होंने “साँप” और “रेंक” जैसी कविताओं में देश, समाज और नागरिकों की मनोवृत्तियों पर व्यंग्य किया। उनका व्यंग्य सतirical और विचारोत्तेजक होता है, जो पाठक को सोचने और आत्मनिरीक्षण करने पर मजबूर करता है।

अज्ञेयजी का व्यंग्य केवल हास्य पैदा करने के लिए नहीं है, बल्कि समाज की वास्तविकता और दोषों का सजीव चित्रण प्रस्तुत करने के लिए है। उनके व्यंग्य में कड़वाहट, तीखापन और सामाजिक टिप्पणी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

उदाहरण:

“साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया एक बात पूहूँ – (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डसना-
विष कहाँ पाया?”

इस पंक्ति में नगर और नगरवासियों की असफलताओं, मनोवृत्तियों और स्वार्थी प्रवृत्तियों पर व्यंग्य किया गया है। अज्ञेय का व्यंग्य सामाजिक आलोचना और हास्य का मिश्रण प्रस्तुत करता है, जो उनकी कविता को विचारशील और आधुनिक बनाता है।

निष्कर्ष:

अज्ञेयजी के काव्य की उपर्युक्त दस विशेषताओं के अलावा और भी अनेक विशिष्टताएँ हैं, जो उनके काव्य को अत्यंत प्रभावशाली और समकालीन बनाती हैं।

उनकी व्यक्तिनिष्ठता, प्रेमानुभूति, प्रकृति चित्रण, सामाजिक सम्पृक्ति, क्षणानुभूति, जिजीविषा, नूतन सौन्दर्यबोध, भाषा एवं शब्द योजना, नूतन प्रतीक और बिम्बों का प्रयोग, छन्द एवं अलंकार विधान तथा व्यंग्यात्मकता उनके काव्य को अत्यंत विशिष्ट बनाती हैं।

इन सभी गुणों और उनके सृजनात्मक प्रयोगों की गहराई के कारण अज्ञेयजी को आधुनिक युग के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि के रूप में सम्मान प्राप्त हुआ है। उनका काव्य भावनाओं, अनुभूतियों और प्रयोगात्मक नवीनता के कारण आज भी पाठकों और आलोचकों के लिए प्रेरणास्त्रोत है।

इन्हें भी पढ़ें:

Leave a Comment