प्रताप नारायण मिश्र का जीवन परिचय ॥ Pratap Narayan Mishra Ji Ka Jivan Parichay
जन्म और प्रारंभिक जीवन
प्रताप नारायण मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के बैजे ग्राम (बेथर, बैसवारा) में संवत् 1613 (24 सितंबर 1856 ई०, आश्विन कृष्ण 6) को हुआ था। उनके पिता पंडित संकठा प्रसाद मिश्र प्रसिद्ध ज्योतिषी थे तथा वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण समुदाय से संबंध रखते थे। पिता की इच्छा थी कि प्रताप नारायण ज्योतिष विद्या में निपुण हों, किंतु उनकी रुचि इस विषय में नहीं थी। पिता ने उन्हें अंग्रेज़ी शिक्षा दिलाने का भी प्रयास किया, पर वहाँ भी उनका मन नहीं लगा। परिणामस्वरूप पिता के निधन के पश्चात उन्होंने औपचारिक शिक्षा को त्याग दिया।
हालाँकि औपचारिक शिक्षा अधूरी रह गई, परंतु मिश्र जी ने अपनी तीव्र बुद्धि और स्वाध्याय के बल पर हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी, बँगला और अंग्रेज़ी भाषाओं का गहन ज्ञान अर्जित किया। उनका साहित्यिक संस्कार बाल्यकाल में ही आरंभ हो गया था। छात्रावस्था में वे ‘कविवचनसुधा’ पत्रिका के गद्य-पद्य लेखों का नियमित अध्ययन करते थे, जिससे हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति उनका गहरा अनुराग उत्पन्न हुआ।
प्रारंभिक दिनों में वे लावनी गायकों की टोली में सम्मिलित होकर आशु रचना किया करते थे और ललित जी की रामलीला में अभिनय भी करते थे। इन्हीं अनुभवों से उन्हें काव्य रचना की प्रेरणा मिली। इसी काल में वे भारतेन्दु हरिश्चंद्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उनके लेखन को दिशा और बल प्रदान किया। भारतेन्दु के सान्निध्य और मार्गदर्शन में मिश्र जी ने गद्य और पद्य दोनों में रचनाएँ प्रारंभ कीं।
सन् 1882 ई० में उनकी पहली रचना ‘प्रेमपुष्पावली’ प्रकाशित हुई, जिसकी प्रशंसा स्वयं भारतेन्दु जी ने की। इस प्रशंसा ने मिश्र जी को अपार उत्साह और आत्मविश्वास दिया।
व्यक्तित्व और स्वभाव
मिश्रजी स्वभाव से मनमौजी, विनोदी और हास्यप्रिय व्यक्ति थे। बाल्यावस्था से ही उन्हें कविता में विशेष रुचि थी। कवि बनारसीदास की लावनियाँ और भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा संपादित “कवि बचन सुधा” में छपी कविताएँ उन्हें अत्यंत प्रिय थीं। कानपुर के कवि ललिता प्रसाद शुक्ल उनके काव्यगुरु थे, जिनसे उन्होंने छंदशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया। मिश्र जी स्वभाव से स्वतंत्र और फक्कड़ प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। वे किसी भी प्रकार की रूढ़ियों और पाखंडों का विरोध करते थे। उनकी रचनाओं में व्यंग्य के साथ-साथ सुधारवादी दृष्टिकोण भी दिखाई देता है। वे भारतीय संस्कृति, धर्म और समाज के प्रति गहरी आस्था रखते थे, परंतु अंधविश्वास और अन्याय के विरोधी थे।
पत्रकारिता और साहित्य सेवा
15 मार्च 1883 को, होली के दिन, मिश्र जी ने अपने मित्रों के सहयोग से ‘ब्राह्मण’ नामक मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। यह पत्र विषय-वस्तु, भाषा और प्रस्तुति—तीनों दृष्टियों से भारतेंदु युग की एक विशिष्ट उपलब्धि था। इसकी भाषा में सजीवता, सादगी, बाँकपन और फक्कड़पन था। हालांकि मिश्र जी की आर्थिक स्थिति और स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण यह पत्र कई बार बाधित हुआ, फिर भी उनके जीवनकाल तक यह प्रकाशित होता रहा। उनकी मृत्यु के पश्चात भी यह पत्र कुछ वर्षों तक रामदीन सिंह के संपादन में निकलता रहा, परंतु उसका पूर्व वैभव पुनः न लौट सका।
सन् 1889 में मिश्र जी ‘हिंदोस्थान’ पत्र के सहायक संपादक बनकर कालाकांकर पहुँचे, जहाँ उस समय संपादक पंडित मदनमोहन मालवीय थे। वहाँ बालमुकुंद गुप्त जैसे विद्वानों ने मिश्र जी से हिंदी सीखी। किंतु उनकी स्वच्छंद प्रवृत्ति के कारण वे वहाँ अधिक समय तक नहीं टिक सके और पुनः कानपुर लौट आए।
कानपुर लौटने के पश्चात भी मिश्र जी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे। उन्होंने 1891 में ‘रसिक समाज’ की स्थापना की और साथ ही भारतधर्ममंडल, धर्मसभा, गोरक्षिणी सभा तथा कांग्रेस जैसी संस्थाओं से भी जुड़े रहे।
उनकी पत्रकारिता का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू यह था कि उन्होंने अपने साहित्यिक प्रेम के कारण सन् 1640 में “ब्राह्मण” नामक मासिक पत्र का संपादन प्रारंभ किया, जो हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। आर्थिक कठिनाइयों के कारण इसका प्रकाशन 1644 में बंद करना पड़ा। बाद में उन्होंने “हिंदी-हिंदोस्तान” पत्र का भी संपादन किया। मिश्र जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विचारों से प्रभावित थे और उसके कई अधिवेशनों में सक्रिय भागीदारी की।
प्रताप नारायण मिश्र की रचनाएँ (Pratapa Narayan Mishra ki Rachnayein)
प्रतापनारायण मिश्र (1858–1894) भारतेंदु युग के प्रख्यात साहित्यकारों में से एक थे। वे भारतेंदु हरिश्चंद्र के विचारों और आदर्शों के निष्ठावान अनुयायी, समर्थक और प्रचारक थे।
“हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान” के जोशीले नारे के साथ उन्होंने समाज में राष्ट्रीय चेतना की ज्योति प्रज्वलित की। उनके साहित्य में प्रेम, हास्य, व्यंग्य, समाज-सुधार और राष्ट्रभक्ति की गहरी भावनाएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं।
प्रतापनारायण मिश्र की प्रमुख रचनाएँ
(क) नाटक (Natak)
प्रतापनारायण मिश्र ने नाट्य साहित्य में भी अमिट छाप छोड़ी। उनके नाटक सामाजिक सुधार, धार्मिक व्यंग्य और मनोरंजन — तीनों तत्वों का सुंदर समन्वय हैं।
उनके प्रमुख नाटक इस प्रकार हैं —
- गो संकट
- कलिकौतुक
- कलिप्रभाव
- हठी हम्मीर
- जुआरी-खुआरी (प्रहसन)
- संगीत शाकुंतल — कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का प्रभावी हिंदी अनुवाद।
इन नाटकों में उन्होंने तत्कालीन समाज की कुरीतियों और विडंबनाओं को व्यंग्य के माध्यम से बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।
(ख) निबंध संग्रह (Nibandh Sangrah)
मिश्र जी आधुनिक हिंदी निबंध के प्रणेता माने जाते हैं। उनके निबंधों में सामाजिक, नैतिक, धार्मिक और राजनीतिक विषयों का गहन विश्लेषण मिलता है।
उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं —
- निबंध नवनीत
- प्रताप पीयूष
- प्रताप समीक्षा
इन कृतियों में समाज के ढोंग, अंधविश्वास और रूढ़ियों पर तीखा व्यंग्य किया गया है। मिश्र जी की लेखनी में एक ओर हास्य की मधुरता है, तो दूसरी ओर सामाजिक जागृति का प्रबल संदेश भी।
(ग) अनूदित गद्य कृतियाँ (Anudit Gadhya Kritiyan)
प्रतापनारायण मिश्र ने हिंदी भाषा में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और साहित्य के विस्तार के उद्देश्य से अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद किया।
उनकी अनूदित कृतियाँ हैं —
राजसिंह, अमरसिंह, इंदिरा, कथामाला, शिशु विज्ञान, राधारानी, युगलांगुरीय, सेनवंश का इतिहास, सूबे बंगाल का भूगोल, वर्णपरिचय, चरिताष्टक, पंचामृत, नीतिरत्नमाला, बात आदि।
इन रचनाओं के माध्यम से उन्होंने हिंदी भाषा को विविध विषयों — इतिहास, भूगोल, विज्ञान, नीति और दर्शन — से समृद्ध किया तथा उसे एक आधुनिक रूप प्रदान किया।
(घ) काव्य रचनाएँ (Kavya Rachnayein)
मिश्र जी की कविताओं में हास्य, व्यंग्य, प्रेम और राष्ट्रभक्ति का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
उनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं —
- प्रेम पुष्पावली
- मन की लहर
- कानपुर महात्म्य
- ब्रैडला स्वागत
- दंगल खंड
- तृप्यन्ताम्
- लोकोक्तिशतक
- दीवो बरहमन (उर्दू में रचित)
इन कविताओं में उन्होंने समाज के विरोधाभासों, मानव जीवन की भावनाओं और उस युग की सामाजिक सच्चाइयों को हृदयस्पर्शी रूप में प्रस्तुत किया।
साहित्यिक योगदान और विशेषताएँ
प्रताप नारायण मिश्र एक सर्वगुणसंपन्न साहित्यकार थे — कवि, निबंधकार, आलोचक, नाटककार, पत्रकार और अनुवादक। वे भारतेन्दु मंडल के प्रमुख सदस्य थे। उनकी रचनाओं में देशभक्ति, सामाजिक व्यंग्य और जनजीवन की सहज अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।
हालाँकि, नाटककार और उपन्यासकार के रूप में उन्हें सीमित ख्याति मिली, परंतु निबंधकार के रूप में वे अग्रणी पंक्ति के लेखक माने जाते हैं। उनकी लेखनी ने हिंदी निबंध को एक नई दिशा दी।
निबंधकार और व्यंग्यकार के रूप में योगदान
प्रतापनारायण मिश्र का निबंधकार और व्यंग्यकार के रूप में योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। उन्होंने समाज-सुधार की दृष्टि से सैकड़ों निबंधों की रचना की, जिनमें समाज की विसंगतियों, पाखंड और अंधविश्वासों पर करारा प्रहार किया गया है। वे बालकृष्ण भट्ट की तरह आधुनिक हिंदी निबंध परंपरा के सशक्त प्रवर्तक थे। उनका गद्य सहज, व्यंग्यपूर्ण और जीवन के यथार्थ से जुड़ा हुआ है, जो न केवल हँसाता है बल्कि पाठकों को सोचने पर विवश करता है। उनकी रचनाओं में व्यंग्य के भीतर छिपी गहरी सामाजिक चेतना झलकती है, जो पाठकों को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करती है। उन्होंने साधारण से गंभीर विषयों पर व्यंग्यपूर्ण निबंध लिखे, जिनकी शैली में हास्य, व्यंग्य, लोकभाषा और जनजीवन की सजीव झलक मिलती है। वे अकसर कहावतों और लोक-प्रचलित उक्तियों को शीर्षक बनाकर निबंध लिखते थे, जैसे — “कठौता लेके जूझें”, “समझदारी की मौत है”, “दाँत”, “भौं”, “आप” आदि। उनके निबंधों में आत्म-व्यंजक शैली प्रमुख है, जहाँ विषय से अधिक लेखक की विचारधारा प्रभावी रहती है। उनके व्यंग्य हल्के-फुल्के परंतु मार्मिक होते हैं, जो हँसाते हुए सोचने पर विवश कर देते हैं।
भाषा और शैली
प्रतापनारायण मिश्र ने अपने साहित्य में खड़ी बोली को जनभाषा के रूप में अपनाया और उसे अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया। उनकी रचनाओं में प्रचलित मुहावरों, कहावतों और विदेशी शब्दों का सुंदर प्रयोग मिलता है। भाषा की दृष्टि से उन्होंने भारतेंदु हरिश्चंद्र का अनुसरण किया और जनसाधारण की सहज भाषा को अपनाया, जिससे उनके लेखन में स्वाभाविकता आई। वे भाषा की कृत्रिमता से दूर रहे, और उनकी शैली में पंडिताऊपन तथा पूर्वीपन का सुन्दर समन्वय दिखाई देता है। मिश्रजी ने ग्रामीण शब्दों का प्रयोग स्वच्छंदता पूर्वक किया, जिससे उनकी भाषा में जीवंतता और लोकसुगंध आई। उन्होंने संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों को भी अपने लेखन में सहज रूप से स्थान दिया। उनकी भाषा विषयानुकूल होती थी—गंभीर विषयों पर गंभीर और व्यंग्य में चुटीली व हास्यपूर्ण। विशेष रूप से, कहावतों और मुहावरों के प्रयोग में मिश्रजी अत्यंत कुशल थे; उन्होंने मुहावरों की ऐसी झड़ी लगाई है, जैसी बहुत कम लेखकों ने कर पाई।
प्रतापनारायण मिश्र की शैली बहुआयामी और प्रभावशाली रही है, जिसमें वर्णनात्मक, विचारात्मक और हास्य-व्यंग्यात्मक रूप प्रमुख हैं।
विचारात्मक शैली में मिश्रजी ने साहित्यिक और दार्शनिक निबंधों की रचना की। इस शैली में हास्य और व्यंग्य का हल्का पुट भी मिलता है, लेकिन भाषा संयत और गंभीर रहती है। उदाहरण के रूप में ‘मनोयोग’ निबंध में उन्होंने लिखा है—“इसी से लोगों ने कहा है कि मन शरीर रूपी नगर का राजा है। और स्वभाव उसका चंचल है। यदि स्वच्छ रहे तो बहुधा कुत्सित ही मार्ग में धावमान रहता है।” इस प्रकार उनके विचारात्मक निबंध मानव मन और जीवन की गहरी समझ प्रस्तुत करते हैं।
व्यंग्यात्मक शैली मिश्रजी की प्रतिनिधि शैली है। वे हास्य-विनोदप्रिय थे और प्रत्येक विषय को हास्य और विनोदपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते थे। इस शैली में व्यंग्य तीखा और मार्मिक भी हो सकता है, जो समाज की विसंगतियों पर प्रहार करता है। भाषा सरल, प्रवाहमयी और सरस होती है, जिसमें उर्दू, फारसी, अंग्रेज़ी और ग्रामीण शब्दों का सुंदर प्रयोग मिलता है। लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से यह शैली और भी प्रभावशाली बनती है। उदाहरण के रूप में उन्होंने लिखा है—“दो-एक बार धोखा खाके धोखेबाज़ों की हिकमत सीख लो और कुछ अपनी ओर से झपकी-फुंदनी जोड़ कर उसी की जूती उसी का सर कर दिखाओ तो बड़े भारी अनुभवशाली वरंच ‘गुरु गुड़ ही रहा और चेला शक्कर हो गया’ का जीवित उदाहरण कहलाओगे।”
इस प्रकार मिश्रजी की शैली विचारशील, सजीव, हास्यपूर्ण और व्यंग्यात्मक है, जो पाठकों को सोचने और हँसने दोनों पर विवश करती है।
भट्टजी और मिश्रजी की तुलना
बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्र दोनों ही भारतेन्दु मंडल के स्तंभ माने जाते हैं। भट्टजी ने हिंदी प्रदीप का संपादन किया, तो मिश्रजी ने ब्राह्मण पत्र का।
भट्टजी के निबंध गंभीर और संयत थे, जबकि मिश्रजी के निबंध व्यंग्य और विनोद से भरे हुए थे। भट्टजी की भाषा अधिक व्याकरण-सम्मत थी, वहीं मिश्रजी की भाषा लोकजीवन से निकली, सहज और चुटीली थी।
दोनों ने हिंदी गद्य को नई दिशा दी, किंतु मिश्रजी का योगदान हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में सर्वाधिक उल्लेखनीय है।
मृत्यु
प्रताप नारायण मिश्र का व्यक्तित्व अत्यंत हास्यप्रिय, मिलनसार और जीवंत था। वे जितने साहित्यिक रूप से समृद्ध थे, उतने ही अनियमित, लापरवाह और स्वच्छंद स्वभाव के भी थे। लगातार अस्वस्थ रहने के बावजूद वे साहित्य और समाज के कार्यों में संलग्न रहे।
अत्यधिक परिश्रम, अस्वास्थ्यकर जीवनशैली और गरीबी के कारण उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया। सन् 1892 के अंत में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े और लगभग डेढ़ वर्ष तक रोगग्रस्त रहे। अंततः 6 जुलाई 1894 ई०, रात दस बजे, मात्र 38 वर्ष की आयु में यह महान साहित्यकार सदा के लिए अमर हो गया।
प्रताप नारायण मिश्र हिंदी साहित्य के प्रखर निबंधकार, व्यंग्यकार और जन-भाषा के कवि थे। उन्होंने साहित्य को लोकजीवन से जोड़ा और हास्य को सामाजिक सुधार का माध्यम बनाया। उनकी भाषा सरल, चुटीली और व्यंग्यपूर्ण थी, जो आज भी पाठकों को आकर्षित करती है। हिंदी गद्य को सहजता और व्यंग्य की नई दिशा देने का श्रेय प्रताप नारायण मिश्र को ही जाता है।
संक्षेप में, प्रताप नारायण मिश्र वह लेखक थे जिन्होंने कहा –
“हँसी में भी संदेश छिपा होता है, बस समझने की दृष्टि चाहिए।”
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