रघुवीर सहाय का जीवन परिचय ॥ Raghuvir Sahay Ka Jivan Parichay
रघुवीर सहाय की रचनाएँ आधुनिक जीवन की जटिलताओं और धड़कनों का सजीव प्रतिबिंब हैं। उन्होंने साहित्य को केवल भावुकता तक सीमित न रखकर यथार्थ और सामाजिक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी कविताओं में आम आदमी की पीड़ा, संघर्ष और उम्मीदें मुखर रूप से दिखाई देती हैं। नए कथ्य और शिल्प के माध्यम से उन्होंने कविता को नवीन आयाम प्रदान किया, जिससे वह समय की आवाज बन सकी। उनकी लेखनी ने समकालीन जीवन की सम्पूर्णता को परिभाषित किया। इसी कारण उनकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही गहरी है, और समय के साथ उनकी सृजनशीलता का महत्व निरंतर बढ़ता जा रहा है।
जीवन-परिचय :
रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसम्बर, 1929 ई० को उत्तर प्रदेश के लखनऊ के मॉडल हाउस मुहल्ले में एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता हरदेव सहाय साहित्य के अध्यापक थे जिनकी बैसवाड़े में छोटी-मोटी जमींदारी थी। पिता की धर्मभीरुता, सादगी और सहृदयता का गहरा प्रभाव रघुवीर सहाय पर पड़ा। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया कि कला के प्रति अपनी रुचि उन्होंने संभवतः पिता की सादगी से पाई। उनकी माता श्रीमती तारा देवी सीतापुर के तरीनपुर महल के रईस व जमींदार ठाकुर रामेश्वर बख्श सिंह की ज्येष्ठ पुत्री थीं, किंतु रघुवीर सहाय तीन वर्ष के भी नहीं थे कि माता का निधन यक्ष्मा रोग से हो गया। दस वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पितामह को भी खो दिया जो उन पर अत्यधिक स्नेह रखते थे। बाद में उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया। इस प्रकार रघुवीर सहाय का बाल्यकाल मातृ-वियोग, पारिवारिक आघात और भावनात्मक कठिनाइयों से भरा रहा, जिसने उनके व्यक्तित्व और साहित्यिक चेतना को गहराई प्रदान की।
शिक्षा-दीक्षा :
रघुवीर सहाय की प्रारंभिक शिक्षा सन् 1936 ई० में लखनऊ प्रीपरेटरी स्कूल से आरम्भ हुई। सन् 1944 ई० में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और आगे की पढ़ाई जारी रखते हुए सन् 1948 ई० में बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात् सन् 1951 ई० में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित ‘साहित्य विशारद’ की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। रघुवीर सहाय अपनी ईमानदार स्वीकारोक्ति में लिखते हैं कि वे पढ़ाई में औसत स्तर के विद्यार्थी थे। उन्होंने स्पष्ट कहा— “पढ़ने-लिखने में साधारण प्रतिभा दिखला सका। फर्स्ट क्लास केवल एक बार आठवें दर्जे में और थर्ड क्लास केवल एक बार बी.ए. में।” इस प्रकार रघुवीर सहाय ने औसत शैक्षणिक प्रदर्शन के बावजूद अपने परिश्रम, रुचि और साहित्यिक दृष्टि से आगे चलकर हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान बनाया।
विवाह एवं संतान :
रघुवीर सहाय का विवाह सन् 1955 ई० में प्रोफेसर महादेव प्रसाद श्रीवास्तव (अध्यक्ष, अंग्रेजी विभाग, बी.एस.डी. कॉलेज, कानपुर) की ज्येष्ठ पुत्री विमलेश्वरी जी से हुआ, उस समय वे मात्र 20 वर्ष की थीं। इस वैवाहिक जीवन से उन्हें चार संतानें प्राप्त हुईं—तीन बेटियाँ मंजरी जोशी, हेमा सिंह और गौरी सहाय तथा एक बेटा वसन्त सहाय। इस प्रकार रघुवीर सहाय का पारिवारिक जीवन संतुलित और सुखद रहा, जिसने उन्हें साहित्यिक सृजन के साथ पारिवारिक उत्तरदायित्व निभाने की प्रेरणा भी दी।
आजीविका :
रघुवीर सहाय ने अपने जीविका की शुरुआत सन् 1950 ई० में की, जब वे लखनऊ से इलाहाबाद चले आए। इससे पूर्व वे ‘दैनिक नवजीवन’ में उपसंपादक रहे जहाँ उन्हें मात्र 100 रुपये मासिक वेतन मिलता था। सन् 1951 में वे 175 रुपये प्रतिमाह पर ‘प्रतीक’ पत्रिका के सहायक संपादक बने। ‘प्रतीक’ बंद होने के बाद उन्होंने 325 रुपये वेतन पर आकाशवाणी के हिन्दी समाचार विभाग में उपसंपादक का कार्य संभाला। सन् 1957 में उन्होंने आकाशवाणी की नौकरी छोड़ दी और लखनऊ से निकलनेवाली पत्रिका ‘युगचेतना’ के दिल्ली प्रतिनिधि बने। इसके बाद वे 400 रुपये पर ‘कल्पना’ (हैदराबाद) के संपादक मंडल से जुड़े।
सन् 1958 में 500 रुपये मासिक वेतन पर उन्होंने एशिया थिएटर इंस्टीट्यूट (बाद में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) में रिसर्च ऑफिसर का पद संभाला। सन् 1959 में वे आकाशवाणी में संवाददाता बने, लेकिन 1963 में छोड़कर ‘नवभारत टाइम्स’ में 750 रुपये पर संवाददाता के रूप में कार्य किया। मार्च 1968 में उन्हें ‘दिनमान’ में समाचार संपादक नियुक्त किया गया और 1969 में अज्ञेय के त्यागपत्र के बाद वे इसके पहले कार्यकारी संपादक और तत्पश्चात संपादक बने, जहाँ उनका वेतन 4500 रुपये मासिक था।
सन् 1983 में उन्होंने ‘दिनमान’ और ‘नवभारत टाइम्स’ दोनों से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद जीवन के अंतिम समय तक वे स्वतंत्र लेखन में सक्रिय रहे और साहित्य को अपनी पूर्ण ऊर्जा समर्पित की।
साहित्य-साधना :
रघुवीर सहाय की साहित्यिक यात्रा सन् 1946 ई० में प्रकाशित उनकी पहली कविता ‘अंत का प्रारंभ’ से प्रारम्भ हुई। इसी वर्ष दिसम्बर में उनकी कविता ‘दसमी का मेला’ लखनऊ रेडियो से प्रसारित हुई। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता की शुरुआत अपने जन्मस्थान लखनऊ से की। इंटरमीडिएट में पढ़ते समय ही उन्होंने हीरानन्द शास्त्री के पुरातत्त्व संबंधी अंग्रेज़ी व्याख्यानों का हिन्दी में अनुवाद किया। उनकी पहली मुक्तछन्द कविता सन् 1949 में रची गई, जो कान्यकुब्ज कॉलेज पत्रिका में प्रकाशित हुई, और उसी वर्ष द्वैमासिक प्रतीक में उनकी लम्बी कविता ‘सायंकाल’ छपी। सन् 1951 में अज्ञेय जी ने ‘दूसरा सप्तक’ के लिए उनसे कविताएँ मांगी। सन् 1957 में युगचेतना में प्रकाशित ‘हमारी हिन्दी’ कविता ने हिन्दी समाज में हलचल मचाई।
रघुवीर सहाय की पहली पुस्तक ‘सीढ़ियों पर धूप में’ सन् 1960 में प्रकाशित हुई। इसके पश्चात् उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुईं। उन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, आलोचना, स्तम्भ-लेख और उपन्यास में अपनी सृजनशीलता दिखाई। साथ ही शेक्सपियर के वेल्थनाइट और मैकबेथ, लोर्का का दि हाउस ऑफ चर्नाडा एल्वा, पोलिश उपन्यास द्रीनी चुप्रिया, तथा ‘आधुनिक हंगरी कविता’ का अनुवाद भी प्रस्तुत किया। इस प्रकार रघुवीर सहाय ने हिन्दी साहित्य में न केवल रचनात्मक योगदान दिया बल्कि विश्व साहित्य के अनुवाद के माध्यम से इसकी सीमा का विस्तार भी किया।
यात्राएँ एवं उपलब्धियाँ :
रघुवीर सहाय ने देश-विदेश में व्यापक यात्राएँ कीं और विभिन्न रचनाकारों एवं बुद्धिजीवियों से सम्पर्क स्थापित किया। भारत के कई शहरों और अंचलों में भ्रमण करने के साथ-साथ सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद पाकिस्तान अधिकृत भारतीय गाँवों की यात्रा भी की। अक्टूबर सन् 1965 में उन्होंने सिक्किम के नाथूला सीमांत की यात्रा की और कृषि पर्यवेक्षण हेतु आन्ध्र, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के दौरे किए। फरवरी 1970 में सोवियत लेखक संघ के निमंत्रण पर रूस गए और बोज्नेसेंस्की तथा अलेक्सांद्र सेंकेविच जैसे रचनाकारों से परिचय प्राप्त किया। इसी वर्ष जर्मनी और इंग्लैण्ड की यात्राएँ की, जहाँ क्रमशः ऊवे जॉनसन और एलेन जॉन ब्राउन से मुलाकात हुई।
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम 1971 में वे त्रिपुरा और अगरतला गए, मुक्तिवाहिनी प्रशिक्षण केन्द्रों की निगरानी की और मुजीबुर्रहमान के विश्वास पात्रों से सम्बन्ध बनाए। दिसम्बर 1971 और मार्च 1972 में बांग्लादेश की यात्राएँ कर स्थानीय लेखकों और बुद्धिजीवियों से जुड़े। सन् 1974 में ‘विश्व आर्थिक सम्बन्ध’ गोष्ठी में भारतीय पत्रकार प्रतिनिधि के रूप में टोक्यो और बैंकाक गए। 1975 में सोवियत संघ के सूचना विभाग के निमंत्रण पर दूसरी बार रूस की यात्रा की और नवम्बर में पूर्व जर्मनी एवं हंगरी गए, जहाँ प्रसिद्ध कवियों-लेखकों से परिचय हुआ। 1978 में तुर्की सरकार के निमंत्रण पर तुर्की की यात्रा कर इस्तांबूल और अंकारा में प्रवास किया। रघुवीर सहाय को सन् 1984 ई० में उनकी रचना ‘लोग भूल गए हैं’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन् 1988 में उन्हें प्रेस परिषद का सदस्य बनाया गया। इसके अलावा, सन् 1950 में लखनऊ लेखक संघ और नाट्य संघ के गठन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस प्रकार, रघुवीर सहाय ने न केवल साहित्यिक क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान दिया बल्कि पत्रकारिता और सांस्कृतिक संगठनों के निर्माण में भी सक्रिय भागीदारी निभाई।
प्रमुख रचनाएँ :
रघुवीर सहाय का साहित्यिक पदार्पण सन् 1951 में अज्ञेय द्वारा संपादित ‘दूसरा सप्तक’ के माध्यम से हुआ। उनका पहला काव्य संग्रह ‘सीढ़ियों पर धूप में’ है।
काव्य संग्रह :
- सीढ़ियों पर धूप में (1960)
- आत्महत्या के विरुद्ध (1967)
- हंसो हंसो जल्दी हंसो (1975)
- लोग भूल गए हैं (1982)
- कुछ पत्ते कुछ चिट्टियां (1989)
- प्रतिनिधि कविताएं (1994)
- एक समय था
कहानी संग्रह :
कैमरे में बंद अपाहिज, रास्ता इधर से है, जो आदमी हम बना रहे हैं, दुनिया, लोकतंत्र का संकट, समझौता, मौका, पानी के संस्मरण, लंबी सड़कें, राष्ट्रगीत, अखबार वाला, बसंत, तस्वीर, चांद की आदतें, खोज खबर, लाखों का दर्द, गुलामी, बदलो, चेहरा, मेरा जीवन, गरीबी, रामदास, हमारी हिंदी, बड़ा सफर, अकेला, मेरे अनुभव, स्वाधीन व्यक्ति, आने वाला खतरा, इतने शब्द कहां है, कमरा, याचना, पढ़िए गीता।
निबंध संग्रह :
दिल्ली मेरा परदेस, लिखने का कारण, ऊबे हुए सुखी, वे और नहीं होंगे जो मारे जाएँगे, भँवर, लहरें और तरंग, यथार्थ का अर्थ।
बाल कविताएँ :
चल परियों के देश, फायदा।
अनुवाद :
- शेक्सपियर के नाटक ‘मैकबेथ’ का अनुवाद
- तीन हंगारी नाटक
इस प्रकार रघुवीर सहाय ने कविता, कहानी, निबंध, बाल साहित्य और अनुवाद सभी विधाओं में अपना बहुआयामी योगदान देकर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।
भाषा-शैली :
रघुवीर सहाय की कविताओं में सहज, सरल और बोलचाल की भाषा प्रमुख रूप से देखी जाती है, जो अखबारों से जुड़े रहने के अनुभव का परिणाम है। उनकी भाषा में कहीं भी दिखावा या विद्वत्ता का प्रभाव नहीं है, बल्कि यह परिनिष्ठि उगत हिंदी से जुड़ी हुई है। कई स्थानों पर वे संस्कृतनिष्ठ और उर्दू शब्दों का मिश्रण भी करते हैं, जिससे भाषा में सौंदर्य और विविधता आती है। उदाहरण:
“कितने सही हैं ये गुलाब
कुछ कसे हुए और कुछ झरने-झरने को
और हल्की-सी हवा में और भी, जोखम से
निखर गया है उसका रूप जो झरने को है।”
आरंभिक कविताओं में प्रकृति के बिंब प्रमुख थे, जबकि परवर्ती रचनाओं में वे जनसाधारण के जीवन और समाज के यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने लगे। उनकी कविताओं में नेहरू, वाजपेयी, मोरारजी देसाई जैसे नाम प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुए। आरंभ में वे छंदबद्ध कविता करते थे, पर आगे चलकर मुक्तछंद में अधिक सक्रिय हुए।
संक्षेप में, रघुवीर सहाय का काव्य भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से समकालीन हिंदी कविता की प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें प्रेम, प्रकृति, परिवार, समाज और राजनीति का यथार्थ वर्णन स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।
रघुवीर सहाय का साहित्यिक योगदान :
रघुवीर सहाय हिंदी साहित्य के ऐसे बहुआयामी रचनाकार हैं जिन्होंने कविता, कहानी, निबंध, आलोचना, स्तम्भ लेख और अनुवाद सभी विधाओं में अपार योगदान दिया। उनका साहित्य समकालीन जीवन के यथार्थ और जनसाधारण की समस्याओं को स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करता है। उन्होंने अपने काव्य में सहज और बोलचाल की भाषा का प्रयोग कर साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने का प्रयास किया। उनकी आरंभिक कविताओं में प्रकृति के चित्र मिलते हैं, जबकि परवर्ती कविताएँ सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय विषयों पर केंद्रित हैं।
साहित्यिक दृष्टि से उन्होंने मुक्तछंद और परंपरागत छंद दोनों का उपयोग किया और विभिन्न संदर्भों में नेहरू, वाजपेयी, मोरारजी देसाई जैसे व्यक्तित्वों का प्रतीकात्मक उल्लेख किया। उनकी कहानियाँ और निबंध जन-जीवन, लोकतंत्र, युद्ध, स्वतंत्रता और सामाजिक परिवर्तन से जुड़े विषयों को उजागर करते हैं।
रघुवीर सहाय ने विश्व साहित्य के अनुवाद के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिसमें शेक्सपियर के मैकबेथ, तीन हंगरी नाटक और पोलिश उपन्यास द्रीनी चुप्रिया शामिल हैं।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उनकी रचना ‘लोग भूल गए हैं’ उनकी सृजनशीलता और संवेदनशील दृष्टि का प्रमाण है। कुल मिलाकर, रघुवीर सहाय का साहित्यिक योगदान हिंदी साहित्य को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध बनाने वाला अद्वितीय योग है।
निधन :
रघुवीर सहाय को मार्च 1979 ई० में प्रथम बार दिल का दौरा पड़ा, जिसे वे पार कर गए। परन्तु सन् 1990 ई० में उन्हें दूसरी बार दिल का दौरा पड़ा, जो घातक साबित हुआ। 30 दिसम्बर की शाम साढ़े सात बजे उनका निधन हो गया। इस प्रकार हिंदी साहित्य के इस कालजयी रचनाकार का जीवन समाप्त हुआ, लेकिन उनकी रचनाएँ और साहित्यिक योगदान आज भी जीवंत हैं।
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