उत्तर :- ‘कर्मनाशा की हार’ कहानी में कथाकार डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने समाज में व्याप्त प्राचीन विचारों और अंधविश्वासों की पराजय तथा मानवतावादी दृष्टिकोण की विजय को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। इस कहानी का केंद्रीय पात्र भैरो पांडे न केवल प्रगतिशील विचारों का प्रतीक है, बल्कि वह उस नए समाज का भी प्रतिनिधि है जो मानवीयता और विवेक पर आधारित है। कथाकार ने कर्मनाशा नदी को अंधविश्वास का प्रतीक माना है, जिसके बारे में यह धारणा प्रचलित है कि यह नदी तब तक शांत नहीं होती जब तक किसी मनुष्य की बलि न दी जाए।
कहानी में दिखाया गया है कि गाँव में बाढ़ आने पर पंच यह निर्णय लेते हैं कि फुलमत, जो एक विधवा है और जिसके यहाँ बालक का जन्म हुआ है, उसी की और उसके बच्चे की बलि देकर गाँव को कर्मनाशा के प्रकोप से बचाया जा सकता है। यह विचार समाज की रूढ़िवादी और अंधविश्वासी मानसिकता को उजागर करता है। लेकिन भैरो पांडे इस अमानवीय कृत्य के विरोध में खड़े होते हैं। वे फुलमत के बच्चे को उसकी गोद से लेकर जनता के सामने यह घोषणा करते हैं कि कर्मनाशा की बाढ़ किसी निर्दोष की बलि से नहीं, बल्कि बाँधों को मजबूत करने से रुकेगी।
भैरो पांडे का यह साहस और विवेक समाज में मानवता की नई चेतना का प्रतीक बन जाता है। उनका यह कदम यह सिद्ध करता है कि अंधविश्वास पर विजय प्राप्त की जा सकती है, यदि व्यक्ति में दृढ़ निश्चय और नैतिक साहस हो। अंततः कहानी यह संदेश देती है कि कर्मनाशा नदी को नरबलि न मिलना अंधविश्वास की पराजय और मानवता की विजय का उद्घोष है।
लेखक ने इस कथा के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि समाज की रूढ़ियाँ और अंधविश्वास चाहे जितने गहरे क्यों न हों, उन्हें मनुष्य के विवेक, साहस और मानवीय दृष्टि से पराजित किया जा सकता है। इस प्रकार ‘कर्मनाशा की हार’ वास्तव में अंधविश्वास की हार और मानवता की विजय का प्रतीक बनकर उभरती है।
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