मीराबाई की काव्यगत विशेषताएँ

मीराबाई की काव्यगत विशेषताएँ

मीराबाई की काव्यगत विशेषताएँ
मीराबाई की काव्यगत विशेषताएँ

 

मीराबाई का जीवन परिचय

मीराबाई का जन्म सन् 1498 ई. में राजस्थान के मेड़ता जागीर का कुड़की नामक ग्राम में हुआ था। वे राठौर वंशी क्षत्रियों की मेड़तिया शाखा के प्रवर्तक राव दूदाजी के वंश में हुआ था। वे राव दूदा की पुत्री तथा रत्नसिंह की पुत्री थी। इनका विवाह चित्तौड़ के राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुमार भोजराज के साथ हुआ था। मीरा को बाल्यकाल से ही भगवान श्री कृष्णा से प्रेम था, वे उन्हें ही अपना पति मानती थी। एक पद में उन्होंने कहा है-
मीरा को गिरधर मिलिया जी, पूरब जनम के भाग।    

सुपणों  में म्हारै परण गया जी, हो गया अचल सुहाग।।

       मीरा का जीवन राणा भोजराज के साथ सुखपूर्वक बीत रहा था, कि अचानक भोजराज की मृत्यु हो गई और मीरा पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। पति की मृत्यु के बाद मीरा को संसार से वैराग्य हो गया और वे सांसारिक लज्जा को छोड़कर साधु-संतों के साथ सत्संग और हरि-कीर्तन करने लगी। मीरा के ससुराल वालों को यह बात अप्रिय लगती थी की राज परिवार के बहू साधु-संतो के बीच नाचे और गाये। इनके देवर ने इन्हें मारने के लिए विषधर काला नाग और विष का प्याला भेजा। कहते हैं कि मीरा के स्पर्श से काला नाग शालग्राम  की सांवली सलोनी मूर्ति और विष का प्याला भगवान का चरणामृत बन गया। राणा के इन षड़यंत्रों से दुखी होकर मेरा तीर्थयात्रा के बहाने वृन्दावन चली गई और वहां से द्वारिका जाकर वहीं रहने लगी। कहते हैं कि सन् 1546 ई. में वे पद-गायन करते-करते द्वारिकाधीश के विग्रह में समाहित हो गयीं, केवल उनकी ओढ़नी ही प्राप्त हुई थी‌।

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                   मीराबाई की प्रमुख रचनाएं

मीराबाई की प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित है-
(1) नरसी जी रो माहेरो
(2) राग गोविंद
(3) गीत गोविंद टीका (राग सूरठ से)
मीरा की सभी रचनाएं “मीरा पदावली” में संकलित है

             मीराबाई की काव्य भाषा तथा शैली

मीराबाई के काव्य में ब्रज एवं राजस्थानी भाषा का मिश्रण मिलता है तथा मीराबाई गेय शैली का प्रयोग अपने काव्य में करती थी।

          मीराबाई की काव्यगत विशेषताएं

संत काव्य के अन्य कवियों की भांति मीरा ने अपने पदों में भाव पर अधिक ध्यान दिया है। उन्हें व्यक्त करने के लिए जो सब अधिक उपयुक्त लगे उसका उन्होंने प्रयोग किया है
मीरा कृष्णा के प्रेम में दीवानी थी। कृष्णा उनके जीवन के केंद्रबिंदु हैं। उनका सारा काव्य कृष्णा से समृद्ध है। उनके मू काव्य में प्राय: कृष्णा के रूप सौंदर्य, उनके प्रति भक्ति तथा  भावनात्मक संयोग-वियोग के चित्र दिखाई देते हैं। उनके काव्य का वर्ण्य विषय इस प्रकार है-
  १.कृष्णा के रूप- सौंदर्य का वर्णन – मीरा ने अपनी कतिपय  पदों में श्री कृष्णा के रूप सौंदर्य का अत्यंत हृदयस्पर्शी चित्र खींचा है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
बस्यां म्हारो णेणण मां नंदलाल।                    

मोर मुकुट मकराकृत कुण्डलै अरुण तिलक सोहां  भाल।
मोहन मूरत संवारां सूरत नैणा बण्या बिसाल।’

 

 २.मीराबाई की भक्ति भावना
मीरा कृष्णा के भक्त हैं। उनकी भक्ति कांता भाव की है। वे गिरधार-नागर अपना स्वामी और अपने आपको उनकी दासी कहती हैं-
भज मन चरण कंवल अविनासी।
×           ×          ×         ×          ×

अरज करौं अबला कर जोरे श्याम तुम्हारी दासी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, काटौ जम की फांसी।।

 

३.संयोग की भावानुभूति- मीरा कृष्णा के साथ भाव जगत में ऐक्य अनुभव करती है। उन्होंने अपने अनेक पदों में इसकी भावाभिव्यक्ति की है। उदाहरण के लिए

‘मैं तो संवारे के रंग रांची।
साजिद सिंगार बांधि पग घुंघरू लोक लाज तजी नांची।।’

 

४.विरह-वर्णन – विरह-वेदना और पीड़ा की जितनी मार्मिक अभिव्यंजना मीरा के काव्य में हुई है, वैसे अत्यंत दुर्लभ है। उनके बिरह-वर्णन में तल्लीनता, तन्मयता तथा भावुकता है। अन्य कवियों का वर्णन जहां कल्पना-आधारित है,  वही मेरा वर्णन व्यक्तिगत अनुभूति है। वे कहती हैं-
पान जयूं पीली पड़ी रे, लोग कहैं पिण्ड रोग।
छाने लांघन मैं किया रे, राम मिलन के जोग ।
बाबल वैद बुलाइया रे, पकड़ दिखाई म्हारी बांह।
मूरख वैद मरम नहिं जानै, कसक कलेजे मांह।
जा वैदा घर आपने रे, म्हांरे नांव न लेय।
मैं तो दाघी विरह की रे, तू काहे कं औषध देर।।

 

५.भाषा :  मेरा की भाषा कृत्रिमता से दूर ब्रज भाषा है जिसमें अनेक प्रांतों के शब्द प्राप्त होते हैं। इनकी भाषा पर मुख्य रूप से राजस्थानी और गुजराती का प्रभाव है। पूर्वी, पंजाबी और फारसी के भी सब यत्र तत्र मिलते हैं। इन्होंने अनेक प्रांतों का भ्रमण किया अतः पर्यटन शीलता का प्रभाव इनकी भाषा पर स्पष्ट दिखाई देता है। जिससे इनके पदों की भाषा में एकरूपता का अभाव है।

६.शैली : मीरा ने गीतात्मक शैली का अनुसरण करके पदों की रचना की है। उनके पदों में गेयता, संगीतात्माकता और अनुभूति की तीव्रता विद्यमान है। इनकी शैली को गीत काव्य की भावपूर्ण शैली कहा जा सकता है यह स्वयं ही इस शैली की जन्म दात्री तथा पोषिका हैं।

७.रस-योजना – मीराबाई के काव्य में प्राय: श्रृंगार रस की अभिव्यंजना हुई है। श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग तथा वियोग का अपने पदों में उन्होंने सुंदर निरूपण किया है। उनके भक्ति तथा विनय संबंधी पदों में शांत रस का प्रयोग है। पदों में मुख्य रूप से माधुर्य तथा प्रसाद गुण है।

८.अलंकार विधान – मीरा के काव्य का सृजन अलंकार निरूपण की दृष्टि से नहीं हुआ है तथापि इनके पदों में उपमा रूपक दृष्टांत आदि अलंकार स्वाभाविक रीति से आए हैं।

निष्कर्ष
मीरा के पद हिंदी साहित्य में अनूठे हैं। वे उनके हृदय की गहराई से निकले हैं, उनका दर्द उनके काव्य को अद्वितीय बनाता है। डॉ शिवकुमार शर्मा लिखते हैं-‘मीरा का काव्य आंसुओं के जल से सिक्त, पल्लवित एवं पुष्पित प्रेमबेल के मनोहारिणी सुगंध से सुवासित है।’

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