भारतेंदु युग की विशेषताएं


भारतेंदु युग की विशेषताएं
भारतेंदु युग की विशेषताएं

 

 भारतेंदु युग की विशेषताएं

भारतेंदु युग ही आधुनिककालीन साहित्यरूपी विशाल भवन की आधारशिला है। विद्वानों मैं भारत भारतेंदु युग की समय-सीमा सन् 1857 से सन् 1900 तक स्वीकार की है, भाव, भाषा, शैली आदि सभी दृष्टियों से इस योग में हिंदी साहित्य की उन्नति हुई । हिंदी साहित्य के आधुनिककालीन भारतेंदु युग प्रवर्तक के रूप में भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम लिया जाता है। यह राष्ट्रीय जागरण के अग्रदूत थे। उनके युग में रीतिकालीन परिपाटी की कविता का अवसान राष्ट्रीय एवं समाज सुधार भावना की कविता का उदय हुआ। उन्होंने कवियों का एक ऐसा मंडल तैयार किया, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से नवयुग की चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान की। भारतेंदुयुगीन साहित्य की विशेषताएं निम्नलिखित है-

(1) राष्ट्रप्रेम का भाव

(2) जनवादी विचारधारा

(3) हास्य- व्यंग्य की प्रधानता

(4) प्राकृति- वर्णन

(5) गद्य एवं उनकी अन्य विधाओं का विकास

(6) छंद-विधान की नवीनता

(7) भारतीय संस्कृति का गौरवगान

 

(1) राष्ट्रप्रेम का भाव :

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के परिणामस्वरुप भारतवासियों में सोई हुई आत्मशक्ति के जागरण के साथ ही राजनीतिक अधिकारों के प्रति लालसा बढ़ी, जिससे उनमें राष्ट्रीयता के भाव का उदय होना स्वाभाविक था। इसका प्रभाव इस युग की रचनाओं पर भी पड़ा। इस युग के रचनाकारों की रचनाओं में देशभक्ति का स्वर विशेष रूप से गुंजायमान है।

(2) जनवादी विचारधारा:

भारतेंदु युग का साहित्य पुराने ढांचे से संतुष्ट नहीं है वे उनमें बदलाव कर यह सुधार कर उसमें नयापन लाने का प्रयास किये है इस काल का साहित्य केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य ना होकर मनुष्य की एकता, समानता और भाईचारे का भी साहित्य है।

 

(3) हास्य- व्यंग्य की प्रधानता :

इस योग में प्राय: सभी रचनाकारों की रचनाओं में हास्य- व्यंग्य का पुट मिलता है। अंधविश्वासों, रूढ़ियों, छुआछूत, अंग्रेजी शासन, पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण आदि पर व्यंग्य करने के लिए इन रचनाकारों ने विषय एवं शैली के नए-नए प्रयोग किए जो इनकी रचनाओं में लक्षित है ‌

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(4) प्राकृति- वर्णन:

इस योग के अधिकांश कवियों ने अपने काव्य में प्रकृति को विषय के रूप में ग्रहण किया है। उनके प्राकृतिक- वर्णन में श्रृंगारिक भावनाओं की प्रधानता है। भारतेंदु की ‘बसंत होली’,अंबिकादत्त व्यास की ‘पावन पचासा’तथा प्रेमधन की ‘मयंक महिला’ आदि इसी कोटि की रचनाएं हैं।

 

(5) गद्य एवं उनकी अन्य विधाओं का विकास:

भारतेंदु युग की सबसे महत्वपूर्ण देन है गद्य व उसके अन्य विधाओं का विकास। इस युग में पद्य के साथ गद्य विधा प्रयोग में आयी जिससे मानव के बौद्धिक चिंतन का भी विकास हुआ। कहानी, नाटक ,आलोचना आदि विधाओं के विकास की पृष्ठभूमि का भी यही योग रहा है।

 

(6) छंद-विधान की नवीनता:

भारतेंदु ने जातीय संगीत का गांवों में प्रचार के लिए ग्राम्य छंदों-कजरी, ठुमरी, लावनी, कहरवा तथा चैती आदि को अपनाने पर जोर दिया। कवित्त सवैया ,दोहा जैसे परंपरागत छंदों के साथ-साथ इनका भी जमकर प्रयोग किया गया।

 

(7) भारतीय संस्कृति का गौरवगान:

भारतीय सभ्यता और संस्कृति की अपेक्षा पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति को उच्च बताने वालों के विरुद्ध व्यंग्य और हास्यपूर्ण रचनाएं लिखी गयीं। भारत के गौरवमय अतीत को भी कविता का विषय बनाया गया।

 

निष्कर्ष

भारतेंदु युग की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता है प्राचीन और नवीन का समन्वय। भारतेंदुयुगीन साहित्यकार कविता ब्रजभाषा और गद्य में खड़ी बोली के पक्षपाती थे। ब्रज भाषा में वे एक साथ भक्ति और श्रृंगार की कविता लिखकर प्राचीन कवियों की कोटी मैं पहुंचते हैं और नवीन ढंग की देशभक्ति तथा समाज सुधार की कविताएं लिखकर नहीं कवियों का नेतृत्व करते हैं।

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