वृद्धि और विकास के सिद्धांत, वृद्धि और विकास के सिद्धांत की व्याख्या principles of growth and development


वृद्धि और विकास के सिद्धांत

(principles of development)
वृद्धि और विकास के सिद्धांतों की व्याख्या


गैरिसन तथा अन्य के अनुसार:-
जब बालक विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तब हम उनमें कुछ परिवर्तन देखते हैं। अध्ययनों ने यह सिद्ध किया कि या परिवर्तन निश्चित सिद्धांतों के अनुसार लेता है इन्हीं को सिद्धांत कहा जाता है।


१.निरंतर विकास का सिद्धांत:-

 इस सिद्धांत के अनुसार विकास की जो  प्रक्रिया होती है वह बिना रूके निरंतर चलती रहती है पर यह गति कभी तीव्र और तो कभी धीमी होती है उदाहरण के लिए प्रथम 3 वर्षों तक बालक की विकास की प्रक्रिया तीव्र होती हैं और मंद पड़ जाती है इसी प्रकार शरीर के कुछ भागों का विकास तीव्र गति से और मंद गति से होता है पर विकास की प्रक्रिया चलती अवश्य रहती है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता है स्किनर के अनुसार: विकास प्रक्रियाओं के निरंतरता का सिद्धांत केवल इस तथ्य पर बल देता है कि बालक की शक्ति पर कोई अचानक या अकस्मात परिवर्तन नहीं होता।

२. विकास के विभिन्न गति का सिद्धांत:- 

डग्लस एवं हॉलैंड के अनुसार : इस सिद्धांत का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है विभिन्न व्यक्तियों के विकास की गति में विभिन्नता होती है और यह विभिन्नता विकास के संपूर्ण काल में यथावत बनी रहती है। और जो छोटा होता है वह साधारणतः का छोटा ही रहता है।

३. विकास क्रम का सिद्धांत:- 

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का गाना और भाषा संबंधी आदि विकास एक निश्चित क्रम में होता है शर्ले, गेसेल, पियाजे, एमिस इत्यादि की परीक्षाओं ने यह बात सिद्ध कर दी है। 32 36 माह का बालक वृत को उल्टा 60 माह का बालक वृत्त को सीधा और 72 माह का बालक वृत्त को फिर उल्टा बनाता है।
इसी प्रकार से बालक जन्म के समय केवल रोना ही जानता है जब वह 3 माह का हो जाता है तो वह गले से एक विशेष प्रकार की आवाज निकालता है और 6 माह में वह अंदर की ध्वनि भी निकालना सीख जाता है उसके बाद 7 माह में बालक अपने माता-पिता के लिए दा,मा,पा आदि शब्दों का प्रयोग करने लगता है।


4. विकास दिशा का सिद्धांत:- 

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सिर से पैर के दिशा में होता है उदाहरण: अपने जीवन के प्रथम सप्ताह में बालक केवल अपने सिर को उठा पाता है पहले 3 माह में वह अपने नेत्रों की गति पर नियंत्रण करना सीख जाता है छठे माह में वह अपने हाथों की गतियों पर अधिकार कर लेता है। 9वें माह में सहारा लेकर बैठने लगता है। 1 साल में वह स्वयं बैठने, घिसक कर चलने लगता है 1 वर्ष का होने पर वह अपने पैरों पर नियंत्रित कर लेता है और वह खड़ा होने लगता है इस प्रकार जो शिशु अपने जन्म के प्रथम सप्ताह में केवल अपने सिर को उठा पाता था वही बालक 1 वर्ष के बाद खड़ा होने लगता है और 18 माह के बाद चलना भी शुरू कर देता है।

5. एकीकरण का सिद्धांत:- 

 इस सिद्धांत के अनुसार बालक सबसे पहले अपने संपूर्ण अंगों को फिर एक अंग के भागों को चलाना सीखना है उसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। उदाहरण के रूप में देखे तो बालक पहले पूरे हाथ को खिलाता है  फिर उंगलियों को उसके बाद फिर हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाने सीखता है।

6. परस्पर संबंध का सिद्धांत:-

 इस सिद्धांत के अनुसार बालक के शारीरिक विकास के साथ उसकी रूचि हो अध्ययन के केंद्रीय कारण और व्यवहार में परिवर्तन होते हैं तब साथ-साथ उसमें गामक और भाषा संबंधी विकास भी होता है। गैरिसन तथा अन्य के अनुसार:- शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगों के विकास में सामंजस्य और परस्पर संबंध पर बल देता है।

7. व्यक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धांत:- 

इसके अनुसार प्रत्येक बहाना और बालिका के विकास का स्वयं का स्वरूप होता है। इस स्वरूप में व्यक्तिक विभिन्नताएं पायी जाती हैं। एक ही आयु के दो बालको दो बालिकाओं या एक बालक और एक बालिका के शारीरिक मानसिक सामाजिक आगे विकास में व्यक्तिक विभिन्नताओं की उपस्थिति स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। स्किनर के अनुसार विकास के स्वरूप में व्यापक व्यक्तिक विभिन्नताएं होती है।

8. समान प्रतिमान का सिद्धांत:- 

समान प्रतिमान का सिद्धांत के अनुसार हरलॉक ने ये कहा कि वे सभी जाति चाहे वह पशु जाति के हो या मानव जाति के हो वे अपन जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती हैं। जैसे संसार के भी कोने में किसी भी मानव जाति के शिशु का विकास का एक ही प्रतिमान में होता है बालक के विकास में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है।

9. सामान्य एवं विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत:-

 इस सिद्धांत के अनुसार एक बालक का विकास समान प्रतिक्रियाओं की ओर होता है जैसे उदाहरण के रूप में देखें तो एक नवजात शिशु किसी भी एक अंग को चलाने से पहले अपने पूरे शरीर का संचालन करता है ठीक इसी प्रकार किसी विशेष वस्तु की ओर इशारा करने से पहले अपने हाथ को उस स्थिति में लाता है। हरलॉक के अनुसार विकास की सभी अवस्था में बालक की प्रतिक्रियाएं विशिष्ट बनने के पूर्व सामान्य ही होती है।

10. वंशानुक्रम या वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत:- 

बालक का विकास बालक का विकास न केवल वंशानुक्रम के कारण और न केवल वातावरण के कारण वरन् दोनों ही अंतः क्रिया के कारण होता है।


स्किनर के अनुसार:-
या सिद्धांत किया जा चुका है कि वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है इसी प्रकार या भी प्रमाणित किया जा चुका है कि जीवन के प्रारंभिक वर्षों में दूषित वातावरण कुपोषण या गंभीर रोग जन्मजात योग्यताओं को निर्भर बना सकते हैं।

11. विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर चलती हैं:-

वृद्धि और विकास की सभी दिशाओं में क्रियाओं से उनके सामान्य हैं रूप दर्शन होते हैं जैसे प्रारंभ में एक नवजात शिशु के रोने चिल्लाने में सभी अंश भाग लेते हैं परंतु वृद्धि एवं विकास के बाद उनकी एक क्रियाएं आंखों वाक् तंत्र तक सीमित रहती हैं। भाषा विकास की प्रक्रिया में बालक सभी क्रियाओं में सामान्य से विशेष हैं जैसे अपने पिता को ही वह पापा का कर संबोधित करता है।

12. स्वाभाविक अभिप्रेरणा का सिद्धांत:- 

जैसे-जैसे बालक को कार्य करने सोचने और महसूस करने की क्षमता विकसित होती है उनको उपयोग में लाने की इच्छा होती हैं और या जी जान से कोशिश करता है।

13.सह- संबंध का सिद्धांत:- 

इस सिद्धांत के अनुसार बालक के गुणों का अधिकांश गुणों में सह-संबंध दिखाई देता है। उदाहरण के रूप में देखे तो जो बालक 1 गुण के विकास में तीव्र या बहुत तेज होता है वह दूसरे गुण के विकास में भी ठीक उसी प्रकार से तीव्र हो जाता है और जिस बालक के  1 गुण के विकास में धीमी या मंद पड़ जाता है वह दूसरे गुण के विकास में भी मंद पड़ने लगता है। जिस बालक का बौद्धिक विकास सामान्य से ऊपर रहता है उसका आकार, लंबाई, सामाजिकता ऊंचाई के विकास में भी श्रेष्ठ होने लगता है और जिस बालक का बौद्धिक विकास सामान्य से नीचे होने लगता है है उस बालक के विकास के अन्य क्षेत्रों में भी प्राय: सामान्य से नीचे हो जाता है।

14.अवांछित व्यवहार के स्वत: 

दूर हो जाने का सिद्धांत:- इस सिद्धांत के अनुसार अपने विकास की प्रत्येक अवस्था में बालक कुछ अवांछित करते दिखलाई पड़ते हैं लेकिन विकास की उस अवस्था के समाप्त होने पर ये व्यवहार स्वत: ही दूर हो जाते हैं। बाल्यावस्था में बालक बड़े शरारती दिखाई देते हैं वह आपस में खूब झगड़ा करते हैं एक दूसरे को तंग करते हैं या चिढ़ाते हैं। वस्तुतः बालकों में यह शरारती पर उनके शारीरिक विकास की द्रुतगति के परिणाम स्वरूप होता है और कुछ समय पश्चात यह शरारतीपन स्वत: ही नष्ट होने लगता है। बहुत से बालक बाल्यावस्था में अपने शरीर और कपड़ों को बहुत शीघ्र ही गंदा कर डालते हैं वे अपने शारीरिक स्वच्छ पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं लेकिन किशोरावस्था में वही बालक अपने शारीरिक सौंदर्य और कपड़ों की स्वच्छता पर जागरूक हो जाता हैं अतः कहा जा सकता है कि जो बालक बाल्यावस्था में अवगुण से संपन्न था वहीं बालक किशोरावस्था में गुणों से संपन्न हो जाता है।

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