राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ का जीवन परिचय (Raja shivprasad sitarehind ka jeevan parichay)

आप सभी का इस आर्टिकल में स्वागत है आज हम इस आर्टिकल के माध्यम से राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ का जीवन परिचय (Raja shivprasad sitarehind ka jeevan parichay) को पढ़ने जा रहे हैं। इन्होंने अपनी जीवन के उतार-चढ़ाव में लगभग 35 पुस्तकों की रचना की तथा हिंदी को आगे बढ़ाने में इनका काफी सहयोग है। तो चलिए राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ का जीवन परिचय (Raja shivprasad sitarehind ka jeevan parichay) को देखें-

राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिंद' का जीवन परिचय (Raja shivprasad sitarehind ka jeevan parichay)

राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ का जीवन परिचय

शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ का जन्म 3 फरवरी 1824 ईस्वी में काशी में हुआ था। उनके पिता का नाम गोपीचंद था। गोपीचंद अपने मामा उत्तमचंद के द्वारा गोद लिए जाने पर काशी में ही रहने लगे थे। और उनकी इसी काशी स्थित मकान में ही बालक शिवप्रसाद का जन्म हुआ था। जब शिवप्रसाद 5 वर्ष के हुए तो उन्होंने विद्या आरंभ की। आरंभिक शिक्षा उन्होंने अपने ही घर में की जिसमें वह हिंदी और उर्दू की शिक्षा प्राप्त करते थे। जब उन्होंने बीबी हटिया स्थित पाठशाला में प्रवेश किया तो वहां उन्होंने फारसी का अध्ययन आरंभ किया। कुछ समय बाद उन्होंने संस्कृत अंग्रेजी और बांग्ला का अध्ययन आरंभ कर दिया। इस प्रकार अपने विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने विभिन्न भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर लिया।

बहुत ही कम उम्र में यानी 17 वर्ष की अवस्था में उन्होंने स्कूल की शिक्षा समाप्त की। सन 1840 ईस्वी में अभी भारतपुर राज्य में सेवा करने लगे। मात्रा 3 वर्ष कार्य करने के बाद 1843 ईस्वी में उन्होंने इस सेवा से त्यागपत्र दे दिया। 2 वर्ष तक काशी में रहने के बाद सन 1845 ईस्वी में उन्होंने सरकारी नौकरी प्राप्त की। अंग्रेजों की कृपा पात्र होने के कारण और सिख युद्ध में अंग्रेजो की सहायता करने के कारण वे 1854 ईसवी में बनारस एजेंसी के मीर-मुंशी बने। शिक्षा की ओर उनकी विशेष रूचि को देखते हुए 1856 में उन्हें स्कूल इंस्पेक्टर का पद प्रदान किया गया। इस पद पर आकर ही उन्होंने हिंदी की सेवा की।

जिस समय शिवप्रसाद जी स्कूल इंस्पेक्टर थे, उसमें हिंदी का व्यापक विरोध चल रहा था। कोर्ट कचहरी से हिंदी को राजभाषा के रूप में हटवा दिया गया था। साथ ही लोगों का प्रयत्न था कि इसे शिक्षा के क्षेत्र से भी अलग कर दिया जाय। शिवप्रसाद जी ने इसे विरोध पूर्ण परिस्थिति के बीच हिंदी को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने स्वयं हिंदी में पाठ्य पुस्तकों का प्रणयन किया तथा दूसरों से भी इस दिशा में कार्य करवाया। लगभग 35 पुस्तकें इतिहास भूगोल व्याकरण आदि विभिन्न विषयों पर लिखकर उन्होंने हिंदी को स्कूलों में प्रतिष्ठित किया। हिंदी के प्रति अत्यंत प्रेम होने पर भी वह हिंदी की बहुत अधिक सेवा नहीं कर सके। सरकारी व्यक्ति होने के कारण में सरकारी नीति का विरोध करने में असमर्थ थे। देवनागरी लिपि को मान्यता देते हुए भी उन्हें धीरे-धीरे उर्दू की ओर झुकना पड़ा। अंततः उर्दू को ही विदेश की मुख्य भाषा मानने लगे। अंग्रेजों के संकेत पर चलने के कारण ही उन्हें हिंदी की सेवा से हटना पड़ा। उनकी सेवाओं के लिए 1871 ईस्वी में अंग्रेजी सरकार ने उन्हें सी.एस.आई. (सितारेहिंद) की उपाधि प्रदान की। 1878 में उन्होंने अवकाश प्राप्त किया और 1887 में उन्हें वंश परंपरा तक प्राप्त होने वाली ‘राजा’ की उपाधि प्राप्त हुई। 23 मई सन 1895 ईस्वी को उनका देहांत हो गया।

राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद की रचनाएं:

सितारेहिंद ने पुस्तकों के अतिरिक्त विभिन्न स्फुट लिख भी लिखे हैं। उनकी स्फुट लिखो में ‘राजाभोज का सपना’ ‘आलसियों का घोड़ा’ आदि अत्यंत प्रसिद्ध रचनाएं हैं।

उनकी पुस्तकों की सूची इस प्रकार है-

भूगोल हस्तामलक-3 भाग, इतिहास तिमिर नाशक-3 भाग, सिक्खो का उदय और अस्त, वर्णमाला, हिंदी व्याकरण विद्यांकुर भाषा भास्कर, हिंदुस्तान के पुराने राजाओं का हाल, योग वाशिष्ठ किस कुछ चुने हुए श्लोक, मानव धर्म सार, उपनिषद सार, बामामनरंजन, प्रश्नोत्तर माला, कल्पसूत्र, स्वयं बोध उर्दू इत्यादि।

राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की भाषा शैली

गद्य भाषा में साधारण बोलचाल की भाषा का पक्ष लेकर सितारेहिंद जी ने हिंदी में लिखना आरंभ के किया। लिपि के रूप में उन्होंने देवनागरी लिपि को ही अपना आया। वे भाषा के क्षेत्र में फारसी और संस्कृति दोनों की बहुलता के विरोधी थे। स्कूल इंस्पेक्टर होने पर उन्होंने हिंदी गद्य में व्यवहारिक शब्दों का प्रयोग आरंभ किया। नित्य प्रति के व्यवहार में आने वाले सरल सुबोध शब्दों से युक्त भाषा के ही पक्षपाती थे। आरंभ में उनकी भाषा का यही रूप था। राजा शिवप्रसाद सितारे की भाषा में कहीं-कहीं पूर्वी भाषा का भी प्रयोग देखा गया है। राजनीति के प्रभाव से प्रभावित होकर उन्होंने अंग्रेजों के संकेत को समझ कर उन्होंने अपनी भाषा संबंधी विचार को बदलें और उन्होंने अरबी फारसी भाषा का प्रयोग अपनी रचनाओं में करने लगे।उर्दू की शायरी में ही उन्होंने वाक्यों का निर्माण करना आरंभ किया। एक प्रकार से देखा जाए तो वे अब देवनागरी लिपि में उर्दू लिखने लगे हैं। इस प्रकार उनकी भाषा शैली में हिंदी के प्रति दूरियां भी देखने को मिला। इतना होने के बावजूद भी उन्होंने जिस प्रकार से हिंदी में जितनी भी रचनाएं की उससे हिंदी को बढ़ावा मिला।

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