बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए (balyavastha mein shiksha ka swaroop kya hona chahiye) Education During Childhood
इस अवस्था में बालक विद्यालय जाने लगता है और उसे नवीन अनुभव प्राप्त होते हैं। औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा-प्रक्रिया के मध्य उसका विकास होता है।
ब्लेयर, जोन्स एवं सिप्सन के अनुसार बाल्यावस्था में ही व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों तथा आदशों का काफी सीमा तक निर्माण होता है। इस प्रकार यह अवस्था जीवन की आधारशिला है। शिक्षा आरम्भ करने की दृष्टि से भी इसे अत्यधिक उपयुक्त माना गया है।
शिक्षा विकास की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। बालक के निर्माण और विकास का पूर्ण उत्तरदायित्व माता-पिता, अध्यापक और समाज के ऊपर होता है। अतः बालक का शिक्षा स्वरूप निर्धारित करते समय या बाल्यावस्था में शिक्षा देते समय निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है-
1. शारीरिक विकास पर ध्यान (Attention on Physical Development)-
बाल्यावस्था में प्रथम तीन वर्षों (6 से 9) तक शारीरिक विकास होता है। अंतिम तीन वर्षों (9 से 12) तक इसी विकास पर दृढ़ता प्राप्त करता है। बाल्यावस्था में हड्डियों में दृढ़ता आ जाती है और माँसपेशियों पर नियंत्रण प्राप्त होने लगता है। अत: विद्यालय में खेलकूद, ड्रिल आदि का विशेष आयोजन किया जाना चाहिए और विद्यार्थियों को प्रतिभागिता के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। साथ ही विद्यालय में उत्तम वातावरण भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
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2. भाषा विकास पर विशेष ध्यान (Attention on Language Development) –
बालक के भाषा विकास पर आरम्भ से ही ध्यान देना की आवश्यकता है। इसके लिए विद्यालय में उपयुक्त विषयों पर वार्तालाप करना, कहानियाँ सुनाना, बाल-पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए देना चाहिए। विद्यालय में वाद-विवाद, सम्भाषण, कहानी-प्रतियोगिता तथा कविता-पाठ आदि में भाग लेने के लिए बालक को प्रोत्साहित भी करना चाहिए। ताकि उनके पढ़ाई-लिखाई में भाषा संबंधित किसी प्रकार का दिक्कत न हो।
3. उपयुक्त विषयों का चुनाव (Selection of Subjects) –
बालक के लिए कुछ ऐसे विषयों का अध्ययन आवश्यक है, जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें और उसके लिए हितकारी भी हो। जैसे-भाषा, अंकगणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, चित्रकला, सुलेख, पत्र लेखन, निबन्ध लेखन, वार्तालाप या संवाद लेखन आदि ।
4. रोचक विषय सामग्री (Interesting Subject Matter)-
रुचियों की दृष्टि से बालक भिन्न होते हैं। अतः बालक की पुस्तकों की विषय-वस्तु में रोचकता और भिन्नता होनी आवश्यक है। बालक की पुस्तकों में नाटक, वीर पुरुष, साहसी कार्य, आश्चर्यजनक बातें, शिकार आदि से सम्बन्धित विषय-वस्तु रखनी चाहिए। ताकि वे उन्हें जानने की इच्छा जागृत हो।
5. बाल मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षा (Education based on Child Education)-
बालक-बालिकाएँ कठोर अनुशासन पसन्द नहीं करते हैं। डाँट-फटकार, शारीरिक दण्ड, बल प्रयोग आदि से वे घृणा करते हैं। बाल्यावस्था के बालकों के लिए सहयोग, प्रेम व सहानुभूति पर आधारित शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए ।
6. खेल एवं क्रिया द्वारा शिक्षा (Education through Play and Activity)-
बाल्यावस्था में शिक्षण विधि रुचिकर तथा क्रिया व खेल के सिद्धान्त पर आधारित होनी चाहिए। बालक की रुचि के अनुसार शिक्षण-विधि में आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी करते रहना चाहिए। आधुनिक शिक्षा प्रणालियों में किण्डरगार्टन, मॉण्टेसरी, बेसिक, प्रोजेक्ट, डाल्टन आदि क्रिया, खेल तथा स्वानुभव पर आधारित शिक्षा प्रणालियाँ हैं।
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7. जिज्ञासा की सन्तुष्टि (Satisfaction of Curiosity)-
बालक की जिज्ञासा प्रवृत्ति को शान्त करने वाली शिक्षा उसे दी जानी चाहिए। बालक में जिज्ञासा प्रवृत्ति काफी प्रबल होती है। वह प्रत्येक नई वस्तु या नई घटना के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करना चाहता है। अतः माता-पिता और अध्यापकों को बालक की जिज्ञासा शान्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
8. सामूहिक प्रवृत्ति की तुष्टि (Satisfaction of Gregariousness) –
बालक में समूह में रहने की प्रबल प्रवृत्ति होती है। वह अन्य बालकों के साथ मिलना-जुलना और उनके साथ कार्य करना या खेलना पसन्द करता है। उसे इन सब बातों का अवसर देने के लिए विद्यालय में सामूहिक कार्यों और सामूहिक खेलों का उचित आयोजन किया जाना चाहिए। कॉलेसनिक ने कहा है-“सामूहिक खेल और शारीरिक व्यायाम प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए।”
9. पाठ्य सहगामी क्रियाएँ (Co-curricular Activities)-
बालक की मानसिक एवं सामाजिक शक्तियों के विकास के लिए विद्यालय में प्रकृति निरीक्षण, भ्रमण, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, उत्सवों, प्रदर्शनी, खेल-कूद तथा समाजसेवा कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए। इनसे बालक की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास होता है।
10. सामाजिक गुणों का विकास (Development of Social Qualities)-
बाल्यावस्था में बालक अपने घर से बाहर विद्यालय और पास-पड़ोस में अन्तक्रिया करता है। इन नए वातावरण में वह अपने को समायोजित करने का प्रयास करता है। इस अवस्था में प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, सहयोग, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व आदि का बच्चों के सामाजिक विकास पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। शिक्षा का लक्ष्य है सामाजिक गुणों का विकास । सामाजिक गुणों के विकास के लिए पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाना चाहिए। विभिन्न खेल-कूदों, सांस्कृतिक व साहित्यिक आयोजनों, समाजसेवा कार्य आदि के माध्यम से बालकों में नेतृत्व के गुण, सहयोग की भावना, सहिष्णुता की भावना, अनुशासन, मैत्री-भाव आदि गुणों का विकास किया जा सकता है।
11. पर्यटन व स्काउटिंग की व्यवस्था (Excursion and Scouting) –
लगभग 9 वर्ष की आयु में बालक में निरुद्देश्य इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए, पर्यटन और स्काउटिंग को उसकी शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए।
12. नैतिक शिक्षा (Moral Education)-
पियाजे ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि लगभग 8 वर्ष का बालक अपने नैतिक मूल्यों का निर्माण और समाज के नैतिक नियमों का निर्माण और समाज के नैतिक नियमों में विश्वास करने लगता है। वह इन मूल्यों का उचित निर्माण और नियमों में विश्वास करने लगता है। कॉलेसनिक का मत है-“बालक को आनन्द प्रदान करने वाली सरल कहानियों द्वारा नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए।”
13. मानसिक विकास पर बल (Emphasis on Mental Development)-
मानसिक विकास से तात्पर्य समझने, तर्क करने, विचार करने, समस्या समाधान करने, अवधान करने, प्रत्यय-ज्ञान, स्मृति, कल्पना आदि शक्तियों से है। इस अवस्था में बालकों को बड़ा समृद्ध और रचनात्मक वातावरण उपलब्ध कराना चाहिए। खेल-खिलौनों का अच्छा प्रबंध होना चाहिए । बौद्धिक क्रियाकलापों में विद्यार्थियों की प्रतिभागिता सुनिश्चित करनी चाहिए। घर तथा विद्यालय दोनों स्थानों पर समस्या समाधान के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। तार्किक क्रियाओं में भाग लेने का अवसर उपलब्ध कराना चाहिए।
14. निष्कर्ष:
इस प्रकार देखा जा सकता है कि बाल्यावस्था वह अवस्था है जिसमें बालक अपने अंदर के सभी ऊर्जा को बहार निकलना चाहता है और ये तभी सम्भव है जब बाल्यावस्था में उसके शैक्षिक विकास पर विशेष ध्यान दिया जाए क्योंकि यह वह अवस्था है जहां बालक अपना अधिकांश समय स्कूलों में बिताता है और नये चीजों से अवगत होता है अतः बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप बालक के अनुरूप होना चाहिए और ऊपर बताये गये महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विशेष ध्यान रखना चाहिए।