किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप कैसा होना चाहिए kishoravastha me shiksha ka swaroop

किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप कैसा होना चाहिए (Nature Of Education In Adolescence)

किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन और जटिल समय होता है। इस अवस्था में वह अच्छा या बुरा, धार्मिक या अधार्मिक, परिश्रमी या अकर्मण्य, सभ्य वा असभ्य, सामाजिक या असामाजिक, देशप्रेमी या देशद्रोही बन सकता है। अतः इस अवस्था के लिए शिक्षा व्यवस्था करते समय निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए-

1. शारीरिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Physical Development)-

किशोरावस्था में शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है और अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन भी देखने को मिलते हैं। इसलिए इस समय स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना अति आवश्यक है। घर व विद्यालय, दोनों का ही उत्तरदायित्व होता है कि वे किशोर के शरीर को स्वस्थ बनाने का प्रयत्न करें। इसके लिए पौष्टिक भोजन, स्वास्थ्य शिक्षा, शारीरिक व्यायाम, खेल-कूद की व्यवस्था अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए। विद्यालय के पाठ्यक्रम में शारीरिक शिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा को प्रमुख स्थान दिया जाना चाहिए। पाठ्य सहगामी क्रियाओं के रूप में खेल-कूद, व्यायाम, भ्रमण, प्राकृतिक निरीक्षण आदि को उचित स्थान दिया जाना चाहिए।

2. मानसिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Mental Development)-

किशोर को सामाजिक शक्तियों का सर्वोत्तम और अधिकतम विकास करने के लिए शिक्षा स्वरूप उसकी रुचियों, रुझानों और दृष्टिकोणों एवं योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए। अतः उसकी शिक्षा में निम्न विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए-

I. कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास आदि सामान्य विद्यालय-विषय

II. किशोर की विज्ञासा सन्तुष्ट करने और उसको निरीक्षण शक्ति को प्रशिक्षित करने के लिए प्राकृतिक, ऐतिहासिक आदि स्थानों का भ्रमण

III. किशोरों की रुचियों, कल्पनाओं और दिवास्वप्नों को साकार करने के लिए पर्यटन, वाद-विवाद कविता-लेखन, साहित्यिक गोष्ठी आदि पाठ्य सहगामी क्रियाएँ ।

3. संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा (Education for Emotional Development)

किशोर का जीवन अत्यधिक संवेगात्मक होता है। माता-पिता तथा अभिभावकों को उसके अदम्य उत्साह पर ध्यान देना चाहिए। किशोर जो संकल्प करता है उस संकल्प को कार्य रूप में परिणत करने में उसकी सहायता करनी चाहिए। निराशा और उदासीनता की स्थिति में स्नेह व सहानुभूति के साथ किशोरों से व्यवहार करना चाहिए और उन्हें धैर्य देना चाहिए। उनकी कठिनाइयों को सुनना, कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करना, उनके दृष्टिकोण के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करना चाहिए।

किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप कैसा होना चाहिए

4. सामाजिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Social Development)-

किशोरावस्था में सामाजिक भावना परिपक्व व उन्नत दशा में होती है। समाज-सेवा, मानव जाति से प्रेम, आदर्श समाज की स्थापना आदि शिक्षा किशोरों को दी जानी चाहिए। सामूहिक कार्य करने के अधिक-से-अधिक अवसर प्रदान किए जाने चाहिए, जैसे- खेल-कूद, स्काउटिंग/गाइडिंग, भ्रमण, पर्यटन, टोली-कार्य आदि। किशोर को प्रेरित कर, उनको प्रोत्साहित कर सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक करना चाहिए, जैसे- बालश्रम, प्रदूषण, जनवृद्धि, निरक्षरता, बेरोजगारी, महिलाओं के प्रति हिंसा आदि।

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5. निर्देशन एवं परामर्श (Guidance and Counselling)-

किशोर को अपने भविष्य के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। विषयों के चयन, व्यवसाय के सम्बन्ध में उसे अनुभवी व्यक्तियों से सलाह लेने की आवश्यकता महसूस होती है। किशोर को अपने भविष्य के निर्माण एवं व्यवसाय के प्रति चेतना आ जाती है। अतः व्यक्तित्व परीक्षण, अभिरुचि परीक्षण, बुद्धि परीक्षण,माता-पिता से साक्षात्कार, किशोर से साक्षात्कार, आदि के आधार पर उन्हें परामर्श देना चाहिए। विभिन्न कारणों से कभी-कभी किशोर असामाजिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं, ऐसे में उन्हें निर्देशन और परामर्श द्वारा सही मार्ग पर लाया जा सकता है।

6. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा (Education based on Individual Differences)-

किशोर में व्यक्तिगत भिन्नताओं और आवश्यकताओं को सभी शिक्षाविद् स्वीकार करते हैं। अतः विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए, जिससे कि किशोरों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूर्ण किया जा सके । माध्यमिक शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन में कहा गया है-“हमारे माध्यमिक विद्यालयों के छात्रों की विभिन्न प्रवृत्तियों, रुचियों और योग्यताओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिए।

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7. पूर्व-व्यावसायिक शिक्षा (Pre-Vocational Education)-

किशोर अपने भावी जीवन के लिए कोई-न-कोई व्यवसाय चुनकर उसके बारे में योजना बनाना चाहता है। परन्तु उसे इस बात का ज्ञान नहीं होता है कि उसके लिए कौन-सी व्यवस्था उपयुक्त होगी। इसके लिए विद्यालयों में कुछ व्यवसायों की प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था अवश्य की जानी चाहिए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही हमारे देश में अनेक बहुउद्देशीय विद्यालय खोले गए हैं जिनमें व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गयी है। इसके साथ ही किशोर की व्यवसाय के चयन में सहायता प्रदान करने के लिए विद्यालय में व्यावसायिक निर्देशन की व्यवस्था भी की जानी चाहिए ।

8. यौन शिक्षा की व्यवस्था (Sex Education) –

किशोरावस्था में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यौन शिक्षा अवश्य दिया जाना चाहिए। यौन से सम्बन्धित गलत आचरण के प्रति किशोरों को जागरूक करना आवश्यक है। उपयुक्त यौन शिक्षा से किशोरों का मानसिक संतुलन तथा सामाजिक समायोजन विकृत होने से बचाया जा सकता है। सम्बन्धित भ्रान्तियों और गलत धारणा से उन्हें मुक्त कराया जा सकता है। किशोर-किशोरियों को रचनात्मक कार्यों के अवसर प्रदान कर काम-भावना के शोधन तथा मार्गीन्तीकरण का प्रयास करना चाहिए।

9. जीवन-दर्शन की शिक्षा (Education for Philosophy of Life) –

किशोर अपने जीवन-दर्शन का निर्माण करना चाहता है, पर उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव में वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है। इस कार्य का उत्तरदायित्व, विद्यालय पर है। इसका समर्थन करते हुए ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्प्सन ने लिखा है-“किशोर को हमारे जनतंत्रीय दर्शन के अनुरूप जीवन के प्रति दृष्टिकोणों का विकास करने में सहायता देने का महान् उत्तरदायित्व विद्यालय पर है।”

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10. धार्मिक तथा नैतिक विकास के लिए शिक्षा (Education for Religious and Moral Development)-

किशोरावस्था आदर्श स्थापना, स्थायी भाव निर्माण, समाज-सेवा की प्रवृत्ति की अवस्था है। अतः साहित्य, इतिहास, महापुरुषों की जीवनी, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से किशोरों में उच्च नैतिक विकास किया जा सकता है। उचित एवं सन्तुलित रूप से धार्मिक शिक्षा देकर राष्ट्रीय एकीकरण का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। प्रत्यक्ष शिक्षा के बजाए अप्रत्यक्ष ढंग से धार्मिक व नैतिक शिक्षा देना अधिक उपयोगी होता है। दृष्टान्तों का प्रभाव बहुत स्थायी होता है। अध्यापकों को चाहिए कि यथास्थान पर दृष्टान्तों का प्रयोग करें। अध्यापकों के चरित्र का प्रभाव किशोरों पर बहुत पड़ता है। अध्यापकों को बहुत सचेत रहने की आवश्यकता है।

11. शिक्षण-शैली (Teaching Methods) –

किशोरों का बौद्धिक विकास लगभग पूरा हो चुका होता है। उनमें अमूर्त चिंतन व तर्क करने की क्षमता विकसित हो जाती है। डाल्टन-योजना का अधिकाधिक प्रयोग इस अवस्था में किया जा सकता है। रेडियो, टेलीविजन, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से बहुत कुछ सिखाया जा सकता है। सूजनात्मक चिंतन के विकास से उन्हें कवि, साहित्यकार, गणितज्ञ, वैज्ञानिक, कलाकार, आदि बनाया जा सकता है। वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबंध लेखन, कवि गोष्ठी, विज्ञान तथा गणित के क्लव जैसे आयोजन करके विद्यार्थियों को सृजनात्मक चिंतन की ओर प्रेरित किया जा सकता है। स्वाध्याय पर बल देना, किशोरों को पुस्तकालय के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित करना आवश्यक है।

12. सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार (Sympathy) –

किशोरावस्था में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन होने के कारण, किशोर हर समस्या या किसी-न-किसी समस्या को लेकर एक दुविधा या उलझन की स्थिति में रहता है। उसकी कठिनाइयों तथा समस्याओं का समाधान करने के लिए माता-पिता व अभिभावकों तथा अध्यापकों को उससे सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। इस अवस्था में किशोर बड़ों द्वारा लगाए नियंत्रणों और बंधनों को पसन्द नहीं करता। वह अपने कार्यों को करने के लिए स्वतंत्रता चाहता है। अतः उसे उत्तरदायित्व देकर सहानुभूतिपूर्ण ढंग से कार्य करने का अवसर देना चाहिए ।

13. किशोर के महत्व की मान्यता (Recognition of Adolescence) –

किशोर के मन में प्रबल इच्छा होती है कि वह भी कुछ करे और उसे भी उचित महत्व तथा स्थान मिले। अतः उसकी इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसे कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए जाने चाहिए, जिनमें उसकी रचनात्मक प्रदर्शन हो सके, नेतृत्व की भावना को संतुष्टि मिले, लोगों के सामने आने का अवसर मिल सके; जैसे-विद्यालय में आयोजित किए जाने वाले सांस्कृतिक या सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन एवं संचालन, विद्यालय पत्रिका का सम्पादन, विद्यार्थी-सहायक सेवाओं की देखरेख आदि। इससे प्रतिभासम्पन्न किशोरों को विविध प्रकार के अवसर मिलेंगे कि वे कुछ नया या पहचान दिलाने वाला कार्य कर सकें । विद्यालय की संस्थागत योजनाओं के क्रियान्वयन में उनकी भूमिका सुनिश्चित की जानी चाहिए।

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