‎जरूरतों के नाम पर कविता का व्याख्या, ‎जरूरतों के नाम पर कविता का भावार्थ

जरूरतों के नाम पर कविता का व्याख्या, जरूरतों के नाम पर कविता का भावार्थ

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जरूरतों के नाम पर कविता का व्याख्या, जरूरतों के नाम पर कविता का भावार्थ

पद्यांश १

“क्योंकि मैं गलत को साबित कर देता हूँ
इसलिए हर बहस के बाद
गलतफहमियों के बीच
बिल्कुल अकेला छोड़ दिया जाता हूँ
वह सब कर दिखाने को
जो सब कह दिखाया।”

शब्दार्थ

  • सावित – प्रमाणित करना, सिद्ध करना
  • बहस – तर्क-वितर्क या विचार-विमर्श
  • गलतफहमी – भ्रम या मिथ्या धारणा

सन्दर्भ

यह पद्यांश हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित काव्य-पुस्तक ‘साहित्य संचयन’ के अंतर्गत संकलित प्रसिद्ध कविता ‘जरुरती के नाम पर’ से लिया गया है, जिसके रचयिता हैं आधुनिक हिंदी कविता के सशक्त स्वर और नई कविता आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर कुँवर नारायण जी

प्रसंग

इस अंश में कवि समाज की उस विडंबनात्मक स्थिति को उजागर करते हैं, जहाँ सच बोलने वाला, तर्क प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति अंततः अकेला रह जाता है। आज का समाज सच्चाई को सुनने से अधिक, अपनी सुविधा और भ्रम को सुरक्षित रखना चाहता है।

व्याख्या: 

कुँवर नारायण जी इस कविता में आज के सामाजिक ताने-बाने की एक मार्मिक सच्चाई को प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति सत्य का पक्ष लेता है, जो गलत को तर्कों के आधार पर झूठ सिद्ध करता है, उसे समाज बहस के बाद अकेला छोड़ देता है।

ऐसा व्यक्ति जब तर्क करता है, तो लोग उसे संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं। उसका स्पष्टवादिता और ईमानदारी, लोगों को असुविधाजनक लगती है क्योंकि वह उनके भ्रम और झूठे विश्वासों पर प्रश्नचिह्न लगाता है। इसलिए समाज उसे कटघरे में खड़ा कर देता है – ‘अगर तुम सही हो, तो जाकर साबित करो, हमें मत सिखाओ।’

यह स्थिति हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या सच्चाई का रास्ता वाकई इतना एकाकी और कठोर होता है? क्या समाज इतना आत्ममुग्ध हो गया है कि वह केवल वही सुनना चाहता है जो उसे अच्छा लगे, न कि जो सच हो?

पद्यांश २

“वे जो अपने से जीत नहीं पाते
सही बात का भी जितना सह नहीं पाते,
और उनकी असहिष्णुता के बीच
मैं किसी अपमानजनक नाते की तरह
बेमुरौवत तोड़ दिया जाता हूँ।”

शब्दार्थ

  • अपने से – स्वयं से, अपने अंतरद्वंद से
  • असहिष्णुता – असहनीयता, सहन न कर पाने की मनोवृत्ति
  • अपमानजनक – अपमान करने वाला, अनादरणीय
  • बेमुरौवत – बिना लिहाज या संकोच के

सन्दर्भ

यह मार्मिक पद्यांश हिंदी साहित्य की सुप्रसिद्ध पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य संचयन’ में संकलित ‘जरुरतों के नाम पर’ कविता से उद्धृत है, जिसकी रचना आधुनिक हिंदी कविता के महत्वपूर्ण स्तंभ कुँवर नारायण जी ने की है। वे नई कविता आंदोलन के गंभीर चिंतक और मानवीय संवेदनाओं के सजग प्रेषक माने जाते हैं।

प्रसंग

इस अंश में कवि समाज के उस यथार्थ को उजागर करते हैं, जहाँ लोग अपनी ही कमजोरियों से लड़ नहीं पाते, लेकिन दूसरों की सच्चाई और स्पष्टता को स्वीकार करने से भी कतराते हैं। यह द्वंद्वशील मानसिकता सत्य के पक्षधर व्यक्ति को समाज से अलग-थलग कर देती है।

व्याख्या:

कवि कुँवर नारायण मानवीय स्वभाव के एक अत्यंत संवेदनशील पहलू को उजागर करते हैं – आत्मविरोध और असहिष्णुता। वे कहते हैं कि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने अंदर की कमजोरी, लोभ, या हठ से जीत नहीं पाते। वे जानते हैं कि सामने वाला जो कह रहा है वह सत्य है, तर्कसंगत है, परंतु उसे स्वीकार करना उनके लिए कठिन होता है।

ऐसे लोग सही बात को सुनने और समझने के बजाय उस व्यक्ति को ही निशाना बनाते हैं जो सत्य बोल रहा होता है। वे न केवल उससे दूरी बना लेते हैं, बल्कि पुराने संबंधों की परवाह किए बिना, बिना किसी मुरव्वत या लिहाज के उसे ‘बेमुरौवत’ तोड़ देते हैं — जैसे कोई बोझिल रिश्ता हो, जिससे मुक्ति पानी हो।

यह पंक्तियाँ आज के सामाजिक और मानसिक परिदृश्य का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करती हैं, जहाँ सत्य बोलना साहस नहीं बल्कि समाज में एकाकीपन का कारण बन जाता है।

पद्यांश ३

“प्रत्येक रोचक प्रसंग से हटाकर,
शिक्षाप्रद पुस्तकों की सूची की तरह
घरेलू उपन्यासों के अन्त में
लापरवाही से जोड़ दिया जाता हूँ।”

शब्दार्थ

  • रोचक – रुचिकर, आनंददायक
  • प्रसंग – विषय, प्रकरण, कथानक
  • शिक्षाप्रद – सीख देने वाला, नैतिकता से परिपूर्ण
  • लापरवाही – असावधानी, उपेक्षा
  • घरेलू उपन्यास – पारिवारिक जीवन पर आधारित काल्पनिक कथा

सन्दर्भ

यह पद्यांश कुँवर नारायण द्वारा रचित कविता ‘जरुरतों के नाम पर’ से लिया गया है, जो कक्षा  9वीं की पाठ्यपुस्तक ‘साहित्य संचयन’ में संकलित है। कुँवर नारायण हिंदी साहित्य की नई कविता धारा के प्रखर प्रतिनिधि हैं, जिन्होंने अपनी कविताओं में सामाजिक, दार्शनिक और मानवीय यथार्थ को बहुत ही संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है।

प्रसंग

इस पद्यांश में कवि यह उजागर करते हैं कि आज के समाज में सच्चाई, नैतिकता और यथार्थवाद की स्थिति क्या रह गई है। जिस सत्य को जीवन का मार्गदर्शन होना चाहिए था, उसे अब केवल “शिक्षाप्रद परिशिष्ट” मानकर किनारे रख दिया जाता है — ठीक वैसे ही जैसे उपन्यासों के अंत में दिए गए उपदेशात्मक हिस्से को अक्सर कोई ध्यान नहीं देता।

व्याख्या: 

यह अंश सत्य और नैतिक मूल्यों की उपेक्षा का सशक्त प्रतीक है। कवि कहते हैं कि आज के दौर में समाज मनोरंजन और सतही भावनाओं में इतना डूब चुका है कि उसे सत्य का स्वरूप बोझिल और नीरस प्रतीत होता है। ठीक वैसे ही जैसे कोई पाठक उपन्यास की रोचक घटनाओं के बाद अंतिम अध्याय में दिए गए नैतिक उपदेशों को पढ़ने में रुचि नहीं रखता।

कवि अपने आप को उस शिक्षाप्रद परिशिष्ट की तरह अनुभव करते हैं जिसे केवल इसलिए शामिल किया जाता है कि शायद कोई पढ़ ले – लेकिन जिसे वास्तव में कोई गंभीरता से नहीं लेता। यह पीड़ा केवल कवि की नहीं, बल्कि उस हर व्यक्ति की है जो सत्य, न्याय और विवेक की बात करता है।

वह व्यक्ति जो समाज को दिशा देना चाहता है, उसे लापरवाही से किनारे कर दिया जाता है — जैसे वह कोई अवांछित परिशिष्ट हो, जिसका कोई मूल्य नहीं। यह केवल उस व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे समाज के नैतिक पतन का संकेत है।

पद्यांश: ४

“वे सब मिल कर
मेरी बहस की हत्या कर डालते हैं
जरूरतों के नाम पर।
और एक कवि से पूछते हैं कि जिंदगी क्या है
जिंदगी को बदनाम कर।”

शब्दार्थ

  • बहस – तर्क-वितर्क, विचारों की अभिव्यक्ति
  • हत्या – समाप्ति, दमन
  • जरूरतें – आवश्यकताएँ, स्वार्थ की आड़
  • जिंदगी – जीवन, अस्तित्व

संदर्भ

यह पद्यांश प्रसिद्ध कवि कुँवर नारायण द्वारा रचित कविता ‘जरूरतों के नाम पर’ से लिया गया है, जो कक्षा 9वीं की ‘साहित्य संचयन’ नामक पाठ्यपुस्तक में संकलित है। कुँवर नारायण नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर माने जाते हैं, जिन्होंने यथार्थ, विवेक और समाज की जटिलताओं को बड़ी सहजता से अभिव्यक्त किया है।

प्रसंग

इस अंश में कवि ने उन परिस्थितियों की ओर संकेत किया है जहाँ समाज में सत्य, तर्क और यथार्थ के स्वर को केवल इसलिए कुचल दिया जाता है क्योंकि वह लोगों की स्वार्थपूर्ण आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होता। इस बहाने से वे “बहस” की हत्या कर देते हैं – और जब जीवन में अंधकार छा जाता है, तब एक कवि से यह अपेक्षा करते हैं कि वह उन्हें जिंदगी का मतलब बताए।

व्याख्या: 

यह पद्यांश हमारे सामाजिक मूल्यों और मानवीय दुरावस्था का गहरा चित्रण करता है। कवि कहते हैं कि लोग जब तर्क, विवेक और सच को अपने हितों के सामने बाधा मानते हैं, तो वे मिलकर उस बहस का अंत कर देते हैं जो उन्हें असहज करती है। वे जरूरतों की आड़ में सत्य का गला घोंटते हैं – जैसे तर्क का कोई मूल्य ही न हो।

लेकिन विडंबना यह है कि जब वही लोग अपने स्वार्थ और गलत निर्णयों के परिणाम भुगतते हैं – जब जीवन में असहजता और भ्रम छा जाता है – तब वे कवियों से, विचारकों से यह पूछते हैं कि “जिंदगी क्या है?”

यह एक गहरा व्यंग्य है — जिंदगी को खुद ही बदनाम करने के बाद उसके अर्थ की तलाश करना! यह हमारे समाज की उस मानसिकता पर चोट करता है, जहाँ हम पहले सत्य को नकारते हैं, और बाद में उसी सत्य की ओर लौटने की उम्मीद करते हैं।

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