पेड़ का दर्द नामक कविता में व्यक्त कवि के विचारों को अपने शब्दों में लिखिए
प्रस्तुत कविता ‘पेड़ का दर्द’ के माध्यम से कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी ने मानव के जन्म से मृत्यु तक के परिस्थितियों को पेड़ के माध्यम से मानवीकरण करते हैं
‘पेड़ का दर्द’ एक ऐसी कविता है जो हमें पेड़ों की भावनाओं और उनके दर्द को समझने की प्रेरणा देती है। इस कविता में कवि ने एक कटे हुए पेड़ के माध्यम से बहुत गहरी बात कही है – कि पेड़ भी हमारी तरह महसूस कर सकते हैं, उन्हें भी दुःख होता है, और जब उन्हें काटा जाता है, तो वे भी अपना सुखद अतीत याद करते हैं और अपने वर्तमान को लेकर दुखी हो जाते हैं।
कविता की शुरुआत में कवि पेड़ से बात करता है और उसे उसके पुराने जंगल की याद दिलाता है। लेकिन पेड़ इस बात से बहुत दुखी हो जाता है। वह कहता है कि उसे अपने पुराने जंगल की याद मत दिलाओ, क्योंकि वह अब उन बातों को याद करके बहुत ज्यादा दर्द महसूस करता है। वह अब एक हरे-भरे पेड़ से बदलकर लकड़ी का एक टुकड़ा बन चुका है, जो चूल्हे में जल रहा है। वह धुएँ और लपटों में बदल रहा है, राख बनकर उड़ रहा है।
पेड़ कहता है कि उसे अपने पुराने हरे भरे दिनों की याद बहुत सताती है। वह समय उसे बहुत प्यारा था, जब वह एक घने जंगल में खड़ा था, जहाँ चारों ओर हरियाली थी। उस समय चिड़ियाँ उस पर बैठती थीं, चहचहाती थीं और उसके साथ खेलती थीं। साँप उसकी डालियों से लिपटते थे और जानवर भी उसके नीचे आराम करते थे। वह एक खुशहाल जीवन जी रहा था।
लेकिन अब वह पेड़ नहीं रहा। अब वह एक जलती हुई लकड़ी बन गया है। उसकी शाखाएं, उसके पत्ते, उसका सुंदर रूप सब खत्म हो गया है। अब वह एक चूल्हे में जल रहा है और उसकी आग में कुछ पकाया जा रहा है। पर उसे यह भी नहीं पता कि जो पक रहा है वह किसके लिए है, वह खाना किसे मिलेगा, और क्या वह खाना किसी को तृप्त करेगा या नहीं।
पेड़ को अब सिर्फ वही याद आता है जब कुल्हाड़ी से उसे काटा गया था। वह दर्दनाक पल जब उसे निर्दयता से काटा गया, मशीनों में फँसाया गया, टुकड़े-टुकड़े किया गया – यही सब अब उसके मन में घूम रहा है। वह सोचता है कि जिस पेड़ पर कभी जानवर, पक्षी और जीव-जंतु रहते थे, वह अब चूल्हे की आग में जल रहा है। उसकी कोई पहचान नहीं बची है।
कवि कहता है कि जलती हुई लकड़ी का टुकड़ा यह भी सोचता है कि जो आदमी उसे जला रहा है, वह किस स्थिति में है। क्या वह गुस्से में है? क्या वह भूखा है? क्या वह थका हुआ है? उसे यह भी डर है कि कहीं वह आदमी लकड़ी के इस जलते टुकड़े को उठाकर फेंक न दे या उस पर पानी डालकर बुझा न दे।
यह सब सोचकर वह टुकड़ा बहुत असहाय महसूस करता है। उसे यह भी नहीं पता कि जो चीजें हो रही हैं, वे सही हैं या गलत। उसे अब अपने पुराने दिन याद नहीं आते – अब तो वह सिर्फ अपने दर्द को महसूस कर रहा है।
इस सबके बावजूद पेड़ का टुकड़ा अपने जन्मस्थान, अपनी धरती माँ से बहुत प्यार करता है। वह सोचता है कि भले ही वह जल गया है, राख बन गया है, लेकिन जब वह राख नीचे गिरेगी तो वह फिर से अपनी धरती माँ को छू सकेगा। वह धरती को चूमना चाहता है, क्योंकि उसी धरती से उसका जन्म हुआ था। वहीं से उसने जीवन पाया था।
वह सोचता है कि उसने जीवन में बहुत कुछ सहा है – कभी सुख मिला, कभी दुःख। लेकिन उसकी सबसे बड़ी चाहत है कि वह अंत में फिर से अपनी धरती में समा जाए। वह धरती को यह बताना चाहता है कि जिस बेटे को उसने जन्म दिया था, उसे लोगों ने कैसे जलाया, काटा और खत्म कर दिया। लेकिन वह फिर भी धरती से अलग नहीं होना चाहता, वह उसी में लौट जाना चाहता है।
‘पेड़ का दर्द’ कविता हमें एक बहुत जरूरी बात सिखाती है – पेड़ भी हमारी तरह जीवित होते हैं। वे भी अपना जीवन जीते हैं। जब हम पेड़ों को काटते हैं, तो हम सिर्फ एक लकड़ी का टुकड़ा नहीं काटते, हम एक जीवित प्राणी का जीवन छीन लेते हैं। पेड़ हमें छाया देते हैं, फल देते हैं, हवा साफ करते हैं और अनेक जीवों को आश्रय देते हैं। लेकिन हम बिना सोचे-समझे उन्हें काटते जाते हैं।
यह कविता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमें पेड़ों को नहीं काटना चाहिए। अगर बहुत जरूरी हो, तो पेड़ काटने के बाद एक नया पेड़ जरूर लगाना चाहिए। हमें पर्यावरण की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि पेड़ हमारे जीवन का आधार हैं। अगर पेड़ नहीं होंगे, तो हमारा जीवन भी सुरक्षित नहीं रहेगा।
यह कविता हमें न केवल पेड़ों के दर्द को महसूस कराती है, बल्कि यह भी बताती है कि धरती और पेड़ का रिश्ता कितना गहरा और पवित्र होता है।
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