पेड़ का दर्द कविता का सारांश class 9
”पेड़ का दर्द” सुप्रसिद्ध कवि श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक मार्मिक कविता है, जो न केवल पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती है, बल्कि मानवीय संवेदनाओं को भी गहराई से झकझोर देती है। यह कविता प्रकृति के अद्भुत और त्यागमयी प्रतीक—पेड़—की पीड़ा और व्यथा को मुखर करती है। पेड़ जो जीवन भर परोपकार करता है, फल, फूल, छाया, ऑक्सीजन, लकड़ी और सौंदर्य प्रदान करता है, वही अंततः मनुष्य की स्वार्थी प्रवृत्तियों का शिकार हो जाता है।
कविता में पेड़ को एक ऐसा संवेदनशील जीव माना गया है जो निःस्वार्थ रूप से समाज के लिए अपना समर्पण करता है। उसका सम्पूर्ण जीवन त्याग और सेवा का प्रतीक है, लेकिन जब वह वृद्ध या उपयोगहीन हो जाता है, तो समाज उसे निर्ममता से काट देता है। यह स्थिति केवल पर्यावरणीय असंतुलन का संकेत नहीं देती, बल्कि मानवता के नैतिक पतन का भी संकेत है। कवि इस मार्मिक दृश्य के माध्यम से हमें चेताते हैं कि पेड़ की पीड़ा केवल उसकी नहीं, बल्कि पूरे पर्यावरण की पीड़ा है, और अंततः यह पीड़ा मानव अस्तित्व को भी घेर लेती है।
कविता का केंद्रीय भाव यह है कि जिस प्रकार से पेड़ जंगलों से कट रहे हैं, वैसे ही मनुष्य भी अपने मूल यानी प्रकृति से कट रहा है। पेड़ की कटाई से न केवल उसका जीवन समाप्त होता है, बल्कि उस पर आश्रित अनेक प्राणियों का जीवन भी संकट में पड़ जाता है। चिड़ियों की चहचहाहट, सांपों का लिपट कर रहना, और गुलदार का पेड़ों पर शरण लेना, ये सभी पेड़ के स्वाभाविक जीवन के अंग हैं। जब पेड़ कटते हैं, तो इन प्राणियों का आश्रय छिन जाता है और वे मानव बस्तियों में घुसकर आतंक फैलाने लगते हैं। यह सीधा संकेत है कि प्रकृति का संतुलन बिगड़ चुका है।
इस कविता में पेड़ केवल एक जैविक इकाई नहीं, बल्कि एक प्रतीक है—ऐसे व्यक्तित्वों का जो पूरी जिंदगी समाज के लिए जीते हैं, परंतु अंत में उपेक्षित कर दिए जाते हैं। समाज उनके त्याग को नहीं समझता और उन्हें “जलाकर”, “काटकर” या “उपेक्षित” कर नष्ट कर देता है। कविता का यह भाव केवल पर्यावरणीय सन्देश तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और नैतिक प्रश्नों को भी छूता है।
कवि एक गहरा सवाल उठाते हैं—क्या हम अपने अस्तित्व की रक्षा बिना जड़ों के कर सकते हैं? पेड़ की जड़ें उसे पोषण देती हैं, जीवन देती हैं। जब वह अपनी जड़ों से कट जाता है, तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। यही बात मनुष्य पर भी लागू होती है। यदि मनुष्य अपने मूल से, अपनी संस्कृति, प्रकृति और नैतिकता से कट जाता है, तो उसका विनाश निश्चित है। कविता का यह संदेश आज के युग में और भी प्रासंगिक हो जाता है जब प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, जंगलों की अंधाधुंध कटाई और पर्यावरणीय असंतुलन गंभीर समस्या बन चुके हैं।
कविता में पेड़ केवल दुखी नहीं है, वह आक्रोशित भी है। उसकी पत्तियों से झरती चिंगारियाँ उस चेतावनी की तरह हैं जो मानवता को विनाश की ओर बढ़ने से रोकने के लिए उठती हैं। वह हमें यह स्मरण कराना चाहता है कि जीवन की संजीवनी प्रकृति में ही है, और यदि हम इसे नष्ट करेंगे तो अपना ही अस्तित्व संकट में डाल देंगे।
अंततः यह कविता केवल एक पेड़ की करुण कथा नहीं है, बल्कि यह समूचे समाज के लिए एक चेतावनी, एक प्रश्न और एक चुनौती है—क्या हम अब भी समय रहते चेतेंगे? या फिर अपने ही हाथों से अपने अंत को बुलावा देंगे? यह प्रश्न आज भी हमारे सामने अनुत्तरित खड़ा है।
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