महादेवी वर्मा की कविता धीरे-धीरे उतर क्षितिज से कविता का सारांश क्लास 9
महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य की छायावादी परंपरा की एक प्रमुख स्तंभ रही हैं। उनकी कविताओं में आत्मिक भावनाओं, प्रकृति-चित्रण और मानवीकरण का अनोखा संगम मिलता है। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘धीरे-धीरे उतर क्षितिज से’ छायावादी प्रवृत्तियों का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें वसंत रात्रि का चित्रण अत्यंत कोमलता, भावुकता और कल्पनाशीलता के साथ किया गया है। इस कविता में कवयित्री ने वसंत की रात्रि को एक रूपवती युवती, एक लज्जावान प्रेमिका के रूप में चित्रित किया है जो अपने प्रियतम से मिलने की कल्पना में क्षितिज से धीरे-धीरे पृथ्वी पर उतरती है।
महादेवी वर्मा प्रकृति को निर्जीव वस्तु नहीं मानतीं, बल्कि वह उनके लिए एक जीवंत, संवेदनशील सत्ता है जो मानव की ही तरह सोचती, समझती और प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। छायावादी काव्यधारा में यही विशेषता रही है कि कवि प्रकृति को मानवीय गुणों से भर देता है। इस कविता में कवयित्री वसंत रात्रि को मानवी रूप देती हैं और उसे सज-धजकर अपने प्रिय से मिलने के लिए आती हुई एक युवती के रूप में देखती हैं।
वसंत रात्रि का यह चित्रण अत्यंत कल्पनाशील है – वह अपनी वेणी में तारे सजाए हुए है, चाँदनी को कंगन के रूप में पहनती है, मलयानिल को रेशमी वस्त्र के रूप में धारण करती है और उसकी चाल में घुँघरुओं की मधुर ध्वनि सी प्रतीत होती है। जब वह पृथ्वी पर उतरती है, तो उसके पग की आहट से धरती पुलकित हो उठती है, फूल खिलने लगते हैं और वातावरण में प्रेम की मादकता फैल जाती है।
महादेवी वर्मा की यह कविता केवल एक दृश्य का चित्रण नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से उन्होंने प्रेम की कोमल भावना को प्रकृति के माध्यम से व्यक्त किया है। कवयित्री चाहती हैं कि यह वसंत रात्रि इतनी सौंदर्यमयी हो कि वह प्रेमी और प्रेमिका के गुप्त मिलन का आदर्श स्थल बन जाए। इसीलिए वह कल्पना करती हैं कि वसंत रात्रि स्मृतियों से भरी अंजलि लिए, रेशमी वस्त्रों में लिपटी, सौंदर्य और लज्जा से सजी एक नवयुवती की तरह धीरे-धीरे इस धरती पर उतरे।
कवयित्री इस रात्रि को केवल एक ऋतु विशेष का समय नहीं मानतीं, बल्कि उसे प्रेम की अनुभूति से परिपूर्ण एक आत्मिक अवस्था के रूप में देखती हैं। रात्रि का हर पहलू मानवीय प्रतीकों से भरा हुआ है – उसकी मुस्कान चाँदनी की तरह, उसकी चाल पत्तों की सरसराहट जैसी और उसकी उपस्थिति प्रेम की सिहरन से भरी हुई है। जब वह अपने प्रिय से मिलने के लिए कदम बढ़ाती है तो उसका हृदय पुलकित हो उठता है और उसकी कल्पना की गर्माहट से सम्पूर्ण प्रकृति जाग्रत हो जाती है।
महादेवी वर्मा का मानना है कि प्रकृति और आत्मा में कोई विभाजन नहीं है। जड़ और चेतन एक ही सत्ता के दो रूप हैं, इसीलिए वह प्रकृति के क्रिया-कलापों में मानवीय भावनाओं का प्रतिबिंब सहज रूप से देख पाती हैं। उनकी कविता में प्रकृति और मानव मन के बीच एक गहन तादात्म्य दिखाई देता है। यह विशेषता छायावादी काव्यधारा की एक प्रमुख पहचान भी है।
कवयित्री अंत में वसंत रात्रि से आग्रह करती हैं कि वह धीरे-धीरे, शर्माते हुए, मुस्कराते हुए पृथ्वी पर उतरे ताकि उसका प्रेमी से मिलन हो सके। यह मिलन केवल दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो आत्माओं का है – एक प्रकृति और दूसरी प्रेम की भावना। यह मिलन कविता का चरम बिंदु है जहाँ कल्पना, सौंदर्य, प्रेम और भावुकता का अद्भुत संगम होता है।
निष्कर्ष: ‘धीरे-धीरे उतर क्षितिज से’ एक अत्यंत भावनात्मक, सौंदर्यपरक और कल्पनाशील कविता है जिसमें महादेवी वर्मा ने वसंत रात्रि को एक प्रेमिका के रूप में चित्रित किया है। उन्होंने प्रकृति को जीवंत रूप में अनुभव किया है और उसमें प्रेम, सौंदर्य, संकोच, पुलक और उल्लास की अभिव्यक्तियाँ खोजी हैं। यह कविता छायावाद की कोमल भावनाओं और महादेवी वर्मा की सजीव कल्पना का सुंदर उदाहरण है।
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