ठेले पर हिमालय के शीर्षक की सार्थकता पर विचार करें । class 9

ठेले पर हिमालय के शीर्षक की सार्थकता पर विचार करें । class 9

ठेले पर हिमालय के शीर्षक की सार्थकता पर विचार करें

ठेले पर हिमालय’ हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित लेखक धर्मवीर भारती द्वारा लिखा गया एक अत्यंत भावनात्मक और बौद्धिक यात्रा-वृत्तांत है। यह रचना केवल कौसानी की एक भौगोलिक यात्रा का वर्णन नहीं, बल्कि लेखक की गहन आत्मानुभूति, प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक मूल्यों और आध्यात्मिक बोध की अभिव्यक्ति है। इस यात्रा-वृत्तांत का शीर्षक, ‘ठेले पर हिमालय’, पहली दृष्टि में विरोधाभासी और असामान्य प्रतीत होता है, लेकिन पाठ के अंत तक यह शीर्षक न केवल सार्थक, बल्कि प्रतीकात्मक रूप से अत्यंत सशक्त बनकर सामने आता है।

1. शीर्षक का उत्पत्ति-प्रसंग:

लेखक किसी पान की दुकान पर अपने एक उपन्यासकार मित्र के साथ खड़े होते हैं, तभी ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए एक बर्फवाला आता है। बर्फ देखकर उनके मित्र कहते हैं:

“यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।”

इस मामूली से दृश्य ने लेखक के भीतर कौसानी यात्रा की स्मृतियों को जगा दिया और वहीं उसके मन में कौंधा –

‘ठेले पर हिमालय’।

यह शीर्षक हास्य, व्यंग्य और गहराई – तीनों भावों को समेटे हुए है।

2. प्रतीकात्मकता और विरोधाभास:

हिमालय, भारतीय संस्कृति में पवित्रता, भव्यता, तपस्या और आध्यात्मिक ऊँचाइयों का प्रतीक है। वहीं ‘ठेला’ एक साधारण, बाज़ारी और सड़कछाप प्रतीक है। जब लेखक ‘हिमालय’ को ‘ठेले’ पर देखता है, तो वह यह बताता है कि

अब दिव्यता भी बाजारू बन गई है, और गहराई भी सतही हो गई है।

यह शीर्षक दर्शाता है कि कैसे आज के आधुनिक जीवन में महानता और सौंदर्य का अनुभव मात्र वस्तु में सिमटकर रह गया है।

3. स्मृति और अनुभूति की शक्ति:

ठेले पर बिकती बर्फ ने लेखक को कौसानी की उस यात्रा की ओर लौटा दिया, जहाँ उसने हिमालय की बर्फ से आँखें मिलाई थीं, उस सौंदर्य को महसूस किया था जिसे शब्दों में बाँधना कठिन है।

उस बर्फ की ठंडक, उसकी दिव्यता और शांति लेखक के अंतर्मन में एक स्थायी छाप छोड़ गई थी।

यह शीर्षक इस बात को इंगित करता है कि

“जो हमने महसूस किया था, वही अब एक वस्तु बनकर सामने आ रहा है – बर्फ तो वही है, लेकिन भाव खो गया है।”

4. सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संकेत:

धर्मवीर भारती यह स्पष्ट करते हैं कि हिमालय केवल एक पर्वत श्रृंखला नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा है।

हिमालय हमारे तपस्वियों का साधना स्थल रहा है, ऋषियों का गंतव्य और कवियों का प्रेरणा-स्रोत रहा है।

जब हिमालय ‘ठेले’ पर दिखाई देने लगे, तो यह एक संस्कृतिक शून्यता का संकेत है। शीर्षक इस विडंबना पर तीखा व्यंग्य है।

5. साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक गहराई:

यह शीर्षक पाठक के मन में जिज्ञासा और आकर्षण उत्पन्न करता है। यह न केवल एक यात्रा की शुरुआत का बिंदु है, बल्कि जीवन की उस वास्तविकता की ओर संकेत करता है जहाँ आज की भौतिकवादी दुनिया ने आत्मिक सौंदर्य को एक उपभोक्ता वस्तु बना दिया है।

लेखक स्वयं भी स्वीकार करता है:

“ये बर्फ की ऊँचाइयाँ बार-बार बुलाती हैं और हम हैं कि चौराहों पर खड़े ठेले पर लदकर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं।”

निष्कर्ष:

ठेले पर हिमालय’ शीर्षक अत्यंत गूढ़, सार्थक और प्रतीकात्मक है। यह न केवल लेखक के अनुभव को, बल्कि पूरे समाज की मानसिकता को भी उजागर करता है – जहाँ आत्मा से जुड़ी चीजें अब बाजार के ठेलों पर बिकने लगी हैं।
यह शीर्षक हमें सोचने पर मजबूर करता है –

“क्या हम अब भी हिमालय को उसी श्रद्धा से देख पाते हैं? या अब वह भी सिर्फ एक पर्यटन स्थल या दृश्य बनकर रह गया है?”

इस तरह, यह शीर्षक केवल एक नाम नहीं, बल्कि पूरी रचना की आत्मा है।

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