पाठ्यक्रम की आवश्यकता (need of curriculum in hindi)
pathyakram ki avashyakta kya hai |
पाठ्यक्रम क्या है
भारतवर्ष में शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजी काल में अत्यंत सीमित था। उस समय विभिन्न वर्गों की आवश्यकता शासन चलाने के लिए थी। उस समय पाठ्यक्रम(curriculum) इस प्रकार का था जिससे कार्यालयों का कार्यभार संभाला जा सके। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी यही पाठ्यक्रम चलता रहा, परंतु इसमें समय के साथ साथ कुछ सुधार लाए गए। शिक्षा के उद्देश्य से पाठ्यक्रम(curriculum) का सीधा संबंध होता है। पहले पाठ्यक्रम अत्यंत संकुचित था। परंतु धीरे-धीरे सामाजिक परिवर्तनों के साथ-साथ पाठ्यक्रम भी परिवर्तित होता गया। एक ऐसा समय भी था जिसमें पाठ्यक्रम में सिर्फ शास्त्री विषयों की ही प्रधानता थी। जिनके अंतर्गत अरबी, रोमन, संस्कृत, ग्रीक इत्यादि भाषाएं थी। समय के परिवर्तन के साथ-साथ इन विषयों का महत्व भी धीरे-धीरे कम होता चला गया।
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धीरे-धीरे बदलती होगी परिस्थितियों को एक नवीन पाठ्यक्रम की आवश्यकता देखे गई। नवीन पाठ्यक्रम की संगठित करने की वर्तमान प्रवृत्ति भिन्न है। वर्तमान समय में पाठ्यक्रम समस्याओं, निश्चित, उद्देश्य सृजनात्मक क्रियाओं अथवा उपयोगी अनुभव को संगठित करता है। पाठ्यक्रम को संतुलित करने से तात्पर्य है कि बालक का विकास अपनी रुचि और अथवा परिवर्तनशील वातावरण(environment) के अनुकूल हो।
शिक्षा का उद्देश्यों से पाठ्यक्रम(curriculum) का सीधा संबंध होता है सर्वप्रथम शिक्षा का उद्देश्य केवल R’s अथवा reading writing and arithmetic इत्यादि का ज्ञान देना ही है। अतः पहले पाठ्यक्रम का अर्थ अत्यंत संकुचित था। पाठ्यक्रम पहले कुछ ही विषयों तक सीमित था धीरे-धीरे परिस्थितियों के अनुसार पाठ्यक्रम बदलता गया। आज नए पाठ्यक्रम में उन सभी विषयों अथवा गतिविधियों पर बल दिया जा रहा है जिनके द्वारा छात्रों को व्यवसाय के लिए तैयार किया जाए, जिनमें श्रम की महत्ता प्रकाशित की जाए, जो उत्पादन में सहायक हो। प्राचीन पाठ्यक्रम विषय प्रधान था परंतु नया पाठ्यक्रम क्रिया प्रधान आत्म बाल केंद्रित है। अतः पाठ्यक्रम के विषय में निम्न बातों का जानना अत्यंत आवश्यक है –
१. किसी भी एक पाठ्यक्रम(curriculum) को निश्चित नहीं समझा जा सकता है समय के साथ साथ उसमें परिवर्तन करते रहना चाहिए।
२. पाठ्यक्रम में अनुसंधान समय-समय पर करना हमारे देश में अत्यधिक आवश्यक है।
३. नवीन पाठ्यक्रम की विभिन्न अच्छाईयां अथवा सावधानियां होने पर भी वह संपूर्ण शिक्षण क्रम को परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। पाठ्यक्रम के अपनाने तथा उसके बिस्तर पर बहुत सी बात ही निर्भर करती है।
४. पाठ्यक्रम छात्रों(Students) की आवश्यकताओं(needs) से संबंधित होना चाहिए।
५. प्रत्येक विषय में बहुत सी सामग्री भर देने के लिए अत्यधिक प्रयत्न नहीं होनी चाहिए बल्कि अत्यंत महत्व शाली तत्व जो युग से संबंधित हो इस पर ध्यान देना चाहिए।
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पाठ्यक्रम की आवश्यकता (need of curriculum in hindi)
पाठ्यक्रम की आवश्यकता (need of curriculum) कई बातों को देखते हुए की जाती है जो निम्नलिखित है –
१. बालकों के लक्ष्यों व उद्देश्यों का निर्धारण
२. नवीन प्रवृत्तियों का साहचर्य
३. बालकों के संज्ञानात्मक विकास का पोषण
४. बालकों के सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य का संवर्धन
५. अधिगम हेतु व्यवस्था
६. शैक्षणिक स्रोतों का उपयोग
७. छात्रों का व्यक्तिगत बोध एवं उसके अनुरूप शिक्षण व्यवस्था
८. समस्त कार्यक्रमों एवं बालकों के कार्य का मूल्यांकन
पाठ्यक्रम की आवश्यकता क्यों पड़ती है –
१. बालकों के लक्ष्यों व उद्देश्यों का निर्धारण :-
पाठ्यक्रम(curriculum) अपने साथ कई उद्देश्यों को लेकर आता है जिससे बालक के सर्वांगीण विकास हो सके और वे उन्नति के शिखर पर आगे बढ़ते चले बालक अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विद्यालय का सहारा लेता है और विद्यालय में अच्छे पाठ्यक्रम (curriculum) का होना अत्यंत आवश्यक है अतः पाठ्यक्रम बालक के लक्ष्य को निर्धारित करते हुए बनाया जाता है ताकि बालक अपने लक्ष्य और उद्देश्य को प्राप्त कर सके।
२. नवीन प्रवृत्तियों का साहचर्य :-
पाठ्यक्रम(curriculum) हर समय एक जैसा नहीं होता पाठ्यक्रम में समय के साथ बदलाव होता ही रहता है पाठ्यक्रम एक व्यापक अवधारणा का रूप लेता जा रहा है, अतः वर्तमान समय में प्रचलन में आने वाली अनेक नवीन प्रवृत्तियों का साहचर्य भी इसके क्षेत्र में आता है।
३. बालकों के संज्ञानात्मक विकास का पोषण :-
बालक के सर्वांगीण विकास करना शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य में से एक हैं। इस उद्देश्य को प्राप्त करने में पाठ्यक्रम(curriculum) अपना पूर्ण योगदान करता है। इसके साथ साथ बालक के ज्ञानवर्धन में भी सहायक सिद्ध होता है और वह बालकों को विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्रदान करके उनका संज्ञानात्मक विकास करता है उचित विषयों के अध्यापन-निरूपण द्वारा मानसिक व बौद्धिक विकास भी करता है इसके साथ साथ विभिन्न पाठ्य सहायक गतिविधियों द्वारा नैतिक, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक विकास भी करता है तथा आवश्यक विषयों के ज्ञान एवं सही दिशा निर्देशन के द्वारा व्यवसायिक विकास करता है।
४. बालकों के सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य का संवर्धन:-
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उसे समाज में रहकर समाज के कुछ नियमों का पालन,अधिकारों का उपभोग एवं कर्तव्यों का निर्वाहन करना पड़ता है यह सभी बातें बालक को विद्यालयों में सिखाया जाता है और उसे पाठ्यक्रम(curriculum) में भी शामिल किया गया है ताकि बालक समाज के साथ-साथ आगे बढ़ सके। बालक के स्वास्थ्य पर भी पाठ्यक्रम का बहुत ज्यादा ध्यान है इसलिए तो स्कूलों में व्यायाम योग कराटे तथा खेल संबंधित बहुत सारे बातें कराई तथा सिखाई जाती है इससे बालक के मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से सुदृढ़ हो। पाठ्यक्रम(curriculum) के द्वारा बालकों का सामाजिक विकास एवं मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य का संवर्धन किया जा सकता है।
५. अधिगम हेतु व्यवस्था:-
मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है यह जीवन पर्यंत चलने वाला प्रक्रिया है जिस प्रकार ठहरे हुए पानी में बहुत सारे गंदगियां एवं बीमारियां पनपने लगती है, उसी प्रकार जो व्यक्ति अधिगम कार्य बंद कर देता है तो उसमें भी बहुत सारी गलतियां या रूढ़िवादी आ जाती है इन सभी बातों को देखकर पाठ्यक्रम(curriculum) समय-समय पर नवीन एवं विभिन्न प्रकार की गतिविधियां और अधिगम प्रक्रिया की सुविधा प्रदान करता ही रहता है।
६. शैक्षणिक स्रोतों का उपयोग :-
पाठ्यक्रम(curriculum) समय के साथ साथ बदलता जरूर है पर जो बच्चों के लिए उचित है उसे अपने साथ समझते हुए या प्राचीन स्रोतों को इकट्ठा करते हुए आगे बढ़ता है जिससे कि बालक के ज्ञान वर्धन हो तथा बालक प्राचीन स्रोतों को जानकर उसमें परिवर्तन कर एक अलग ही पहचान बना पाए इसलिए शैक्षणिक स्रोतों का उपयोग पाठ्यक्रम करता है।
७. छात्रों का व्यक्तिगत बोध एवं उसके अनुरूप शिक्षण व्यवस्था:-
हर बालक शारीरिक मानसिक बौद्धिक अभिरुचि इत्यादि का विकास अलग-अलग तरह से होता है पाठ्यक्रम बालक के इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए पति द्वारा के व्यक्तिगत बोध के अनुरूप ही शिक्षण व्यवस्था प्रदान करता है।
८. समस्त कार्यक्रमों एवं बालकों के कार्य का मूल्यांकन :-
पाठ्यक्रम अपने साथ संपूर्ण गतिविधियों या कार्यक्रमों को शामिल करते हुए आगे बढ़ता है जैसे कि शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति में, शिक्षण सामग्री के निर्धारण में, चरित्र निर्माण में, बालक के व्यक्तित्व विकास में, अनुसाधन एवं अविष्कार में, बालक के लक्ष्य प्राप्ति में जैसे बहुत सारे गतिविधियों को अपने साथ समेटते आगे बढ़ता है ताकि बालक सर्वांगीण विकास हो सके बालक इन सभी गतिविधियों को अच्छी तरीका से सीखता है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पाठ्यक्रम अनेकों महत्वपूर्ण कार्य संपादित करता है। पाठ्यक्रम का कार्य क्षेत्र अत्यंत विस्तृत हैं। विद्यालय में रहते हुए बालक जो कुछ भी शैक्षिक क्रियाएं करते हैं जो पाठ्य सहगामी क्रियाएं करते हैं तथा जो अभिरुचि की पूर्ति से संबंधित कार्य करते हैं, उन प्रवृत्तियों के आधार पर ही पाठ्यक्रम का क्षेत्र( scope of curriculum) विस्तृत होता चला जाता है। इन सभी को देखते हुए पाठ्यक्रम की आवश्यकता(need of curriculum) अत्यंत आवश्यक है।
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