रासो काव्य परंपरा पर टिप्पणी लिखिए

रासो काव्य परंपरा पर टिप्पणी लिखिए

रासो काव्य परंपरा

“रासत एक छंद भी है और काव्य भेद भी आदिकाल में रचित वीरगाथाओं में चारण कवियों ने रासत शब्द का प्रयोग चरित काव्यों के लिए किया है।”
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आदिकाल में रचित साहित्य में रासों काव्य ग्रंथों का महत्वपूर्ण स्थान है। यहां यह उल्लेखनीय है कि आदिकाल में जैन कवियों ने जिस रासों काव्य की रचना की है वह वीर रस प्रधान रासो काव्य से भिन्न है अतः हम यहां उन्हीं रासो रास ग्रंथों का उल्लेख करेंगे जो वीर रस प्रधान है। और जिनकी रचना चरण कवियों ने की है। रास काव्य उन रचनाओं को कहा जाता है जिनमें रासत छंद की प्रधानता रहती थी आगे चलकर रास काव्य ऐसी रचनाओं को कहने लगे जिनमें किसी भी गेय छंद का प्रयोग किया गया हो।

रासो शब्द की व्युत्पत्ति :

रासो शब्द के व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। डॉक्टर नरोत्तम स्वामी ने रासो शब्द की व्युत्पत्ति राजस्थानी भाषा के ‘रसिक’शब्द से मानी है जिसका अर्थ है-‘कथाकाव्य’।
उनके अनुसार रसिका से रासो का विकास निम्नलिखित क्रम में हुआ
रसिक => रासउ => रासो
आचार्य शुक्ल ने रासो शब्द का संबंध रसायन से जोड़ दिया है उन्होंने वीसलदेव रासो एक पंक्ति को अपने मत का समर्थन किया है जिसमें रसायन शब्द का उल्लेख हुआ है।
रासो काव्य परंपरा डॉक्टर गणपति चंद्रगुप्त ने हिंदी रासो काव्य परंपरा को दो वर्गों में विभक्त किया है।
क) धार्मिक रासो काव्य परंपरा
ख) ऐतिहासिक रासो काव्य परंपरा

क) धार्मिक रासो काव्य परंपरा

धार्मिक रासो काव्य परंपरा के अंतर्गत उन ग्रंथों को दिया जा सकता है जो जैन कवियों के द्वारा लिखे गए हैं और जिनमें जैन धर्म से संबंधित व्यक्तियों को चरित नायक बनाया गया है इनमें कुछ निम्नलिखित है-

१. भूतेश्वर बाहुबली रास:-

मुनि जिन विजय ने इस ग्रंथ को जैन साहित्य की रासो परंपरा का प्रथम ग्रंथ माना है। इसकी रचना 1184 ईस्वी में शालिभद्र सूरी ने की थी। अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य और कवि थे। इस ग्रंथ में भूतेश्वर और बाहुबली का चरित वर्णन है

२. चंदनबाला रास:
1209ई. में रचित इस काव्य को जिन धर्म सूरि की रचना या कृति माना जाता है। इसमें कोसा वेश्या के पास भोगलिफ्ट रहने वाले स्थूलीभद्र को कवि नहीं जैन धर्म की दीक्षा देने के बाद मोक्ष का अधिकारी सिद्ध किया है। इसकी भावों में और अभिव्यंजना काव्य अनुकूल है।

३. रेवंतिगिरिरास : 

यह विजयसेन सूरि की काव्य कृति हैं। 1231 ई. के लगभग लिखित इस काव्य में तीर्थ कार नेमिनाथ की प्रतिभा तथा रेवंतिगिरि तीर्थ का वर्णन है। प्रकृति के रमणीक चित्र इस काव्य के भाव तथा कला पक्षों का श्रृंगार करते हैं।

४. नेमिनाथ रास:-
इस काव्य की रचना सुमति गणी ने 1213 ई. में की थी। 58 छंदों की इस रचना में कवि ने नेमिनाथ का चरित्र सरस शैली में प्रस्तुत किया है। नेमिनाथ के प्रसंग में श्री कृष्ण का वर्णन इस काव्य का विषय है और इन दोनों के माध्यम से विभिन्न भावों की व्यंजना हुई है।

ख) ऐतिहासिक रासो काव्य परंपरा

ऐतिहासिक रासो काव्य परंपरा के कवि प्राय: राज्याश्रित थे। जिनका उद्देश्य अपने आश्रय दाता के सौंदर्य एवं ऐश्वर्य की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करना था। इस काव्य परंपरा के प्रमुख ग्रंथों का परिचय इस प्रकार है।

१. विसल देव रासों :-

इस ग्रंथ की रचना नरपतिनल्ह कवि ने 1155 ई. में की थी। विसलदेव रासो हिंदी के आदिकाल की एक श्रेष्ठ काव्य कृति है इसमें भोज परमार की पुत्री राजमती और अजमेर के चौहान राजा विशाल देव तृतीय के विवाह वियोग एवं पुनर्मिलन की कथा सरस शैली में प्रस्तुत की गई है। विसल देव रासो 125 छंदों की एक प्रेम परक रचना है जिसमें संदेश रासक की भांति विराह की प्रधानता है।

२. पृथ्वीराज रासो:
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना है जिसकी रचना पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मिस्र एवं दरबारी कवि चंदबरदाई द्वारा की गई है। भाव वस्तु और ध्वनि की सम्मिलित प्रभाव अनविति के उदाहरण पृथ्वीराज रासो में भरे पड़े हैं। पृथ्वीराज रासों में वस्तु वर्णन का भी आधिक्या है। कवि ने बड़ी तन्मयता के साथ नगरों वर्णो सखरो किलो आदि का वर्णन किया है। रासो काव्य परंपरा का सर्वोत्तम ग्रंथ माना जाता है।

३. परमाल रासो :
परमाल रासो का रचयिता कवि जगनिक था जिसे चंदेल वंशी राजा परमार्दिदेव का दरबारी कवि माना जाता है। आल्हा और ऊदल नामक दो क्षेत्रीय सामंतों की वीरता का वर्णन परमाल रासो के अंतर्गत प्रमुख रूप से किया गया है। युद्धों के अत्यंत प्रभावशाली वर्णनों की काव्य में भरमार है इसमें वीर भावना का चेतना प्रौढ़ रूप मिलता है उतना अयंत्र दुर्लभ है।

४. खुमान रासो :-

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे नवीं शताब्दी की रचना माना है। इसमें नवी सदी के चित्तौड़ नरेश खुमान के युद्धों का वर्णन है। राजाओं के वर्णनों पर आधारित होने पर भी इसमें काव्यात्मक सरस वर्णनों का प्राचुर्य है। वीरस के साथ-साथ श्रृंगार की धारा भी आदि से अंत तक प्रवाहित होती चली।

५. हमीर रासो:- 

प्राकृत पैंगलम में इस काव्य के कुछ छंद मिले थे और उन्हीं के आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसके अस्तित्व की कल्पना की थी। उनका अनुमान था कि हमें हमीर और अलाउद्दीन की युद्धों का वर्णन तथा हमीर की प्रशंसा चित्रित हुई है। राहुल सनकृत्यायन ने इस के पदों को जंजाल नामक कवि की रचना घोषित किया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार हमीर शब्द अमीर का विकृत रूप है। अभी तक इसकी कोई प्रति उपलब्ध नहीं हो सकी है।

६. जयचंद प्रकाश :-
जिस प्रकार चंदबरदाई ने महाराज पृथ्वीराज को कीर्तिमान किया है उसी प्रकार भट्ट केदार ने कन्नौज के सम्राट जयचंद का गुण गाया है। रासो में चंद और भट्ट केदार के संवाद का एक स्थान पर उल्लेख भी है। भट्ट केदार ने जयचंद प्रकाश नाम का एक महाकाव्य लिखा था। जिसमें महाराज जयचंद के प्रताप और पराक्रम का विस्तृत वर्णन था इसी प्रकार जय मयंक जस चंद्रिका नाम का एक बड़ा ग्रंथ मधुकर कवि ने लिखा था राजा जयचंद का प्रभाव बुंदेल खा के राजाओं पर था।

७.रणमल्ल छंद:-
श्रीधर नामक कवि ने 1397 ईस्वी में रणमल्ल छंद नामक एक काव्य रचा। जिसमें राठौर राजा र रणमल्ल कि उस विजय का वर्णन है जो उसने है पाटन के सूबेदार जफर खां पर प्राप्त की थी।

इस प्रकार उपयुक्त विवेचन के आधार पर यह नि: संदेह कहा जा सकता है कि आदिकाल में रासो काव्य परंपरा की समृद्ध परंपरा रही है। धार्मिक रासो काव्य परंपरा का उल्लेख धर्म तत्वों का निरूपण करना है तो ऐतिहासिक रासो काव्य परंपरा ग्रंथों यथा पृथ्वीराज रासो, परमान रासो आदि में सामंती जीवन की पूरी झलक मिलती है। वीर एवं श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति इन रासो ग्रंथों में प्रधान रूप से हुई है। वीर रस की सहज अभिव्यक्ति एवं मध्यकालीन सामंती जीवन के यथार्थ चित्रण की दृष्टि से रासो काव्य परंपरा के ग्रंथ महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इस संदर्भ में निम्नलिखित कथन उल्लेखनीय हैं-
“काव्य के तत्व इस परंपरा की रचनाओं में प्राय: प्रचुरता के साथ मिलते हैं। अतः साहित्य की दृष्टि से यह परंपरा निसंदेह अपेक्षाकृत अधिक महत्व की है”

Read More:

Leave a Comment