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जीन जैक्स रूसो का जीवन परिचय/रूसो का जीवन परिचय

विश्व के महान शिक्षा शास्त्री एवं दार्शनिक रूसो का जन्म 1712 ईस्वी को इटली के जेनेवा नगर में एक निर्धन परिवार में हुआ था। उनके जन्म लेते ही उनकी माता का देहांत हो गया। 6 वर्षों की आयु में उन्होंने साहित्य धर्म और इतिहास संबंधी अनेक पुस्तकें पढ़ें। विद्यालय का वातावरण उनके अनुकूल ना होने के कारण वे विद्यालय की शिक्षा को व्यर्थ की शिक्षा मानने लगे। 25 वर्ष की आयु में उन्होंने साहित्य का अध्ययन किया तथा अनेक लेखकों के संपर्क में आने पर लिखना शुरू किया। उन्होंने अनेक किताबें एवं लेख लिखें जिनके कारण फ्रांस में महान क्रांति हुए। 38 वर्ष की आयु के पश्चात सन् 1750 ईस्वी में रूसो की रचनाएं छपने लगी। रूसो के अंतिम दिन अपमान चिंता तथा जीवन के प्रति भय में व्यतीत हुए। वह 1766-68 ई. तक इंग्लैंड जेनेवा तथा फ्रांस इत्यादि देशों में भागता रहा तथा अंत में 1778 ईस्वी में फ्रांस में मर गया। उसके मरने के 15 वर्ष पश्चात फ्रांस की राज्य क्रांति के अवसर पर उसे महान व्यक्ति तथा क्रांतिकारी होने का गौरव प्राप्त हुआ।

रूसो के पुस्तकों के नाम(jean jacques rousseau books):-

१. प्रोजेक्ट फॉर द एजुकेशन ऑफ एम.डी.सेंट मैरी
२. दि प्रोग्रेस ऑन आर्ट्स एण्ड साइंस (1750)
३. सोशल कॉन्ट्रैक्ट (1762)
४. द न्यू हेलॉयज (1761)
५. एमील (Emile) 1762

रूसो के अनुसार शिक्षा क्या है?

(What is Education According to Rousseau?)

ज्याँ-जैक रूसो (Jean Jacques Rousseau) अठारहवीं शताब्दी के महान दार्शनिक और आधुनिक शिक्षा दर्शन के अग्रदूत माने जाते हैं। उन्होंने शिक्षा को पारंपरिक और कृत्रिम रूपों से मुक्त कर एक स्वाभाविक, अनुभवात्मक और बालक-केंद्रित प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया।

रूसो के अनुसार:

“शिक्षा वह प्रक्रिया है, जो हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। यह केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन को समझने और उसे पूरी तरह जीने की तैयारी है।”

रूसो के अनुसार शिक्षा का अर्थ

रूसो (Jean Jacques Rousseau) एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक और शिक्षाशास्त्री थे। उन्होंने शिक्षा को केवल ज्ञान प्राप्ति का माध्यम नहीं, बल्कि व्यक्ति के सम्पूर्ण और स्वाभाविक विकास का साधन माना।

रूसो के अनुसार,

“शिक्षा का अर्थ है – प्रकृति द्वारा प्रदत्त शक्तियों का पूर्ण विकास।”

उनका मानना था कि प्रत्येक बालक जन्म से ही एक विशेष स्वभाव, गुण और संभावनाओं के साथ आता है। शिक्षा का कार्य है उन प्राकृतिक गुणों को बिना किसी बाहरी बाधा या जबरदस्ती के स्वाभाविक रूप से विकसित करना।

रूसो के शिक्षा की परिभाषा (Definition of Education by Rousseau):

रूसो ने शिक्षा की परिभाषा देते हुए कहा:

“शिक्षा प्रकृति से, मनुष्य से और वस्तुओं से प्राप्त होती है।”
अर्थात्, प्रकृति बालक के अंदर की शक्तियों का स्वाभाविक विकास करती है, मनुष्य सामाजिक जीवन में जीने की कला सिखाता है और वस्तुएँ हमें अनुभवों के द्वारा सिखाती हैं।

इस आधार पर, रूसो शिक्षा को एक ऐसी समग्र प्रक्रिया मानते हैं जिसमें बालक का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और नैतिक विकास धीरे-धीरे और स्वाभाविक रूप से होता है।

रूसो का शिक्षा दर्शन/रूसो के शैक्षिक विचार/रूसो के शिक्षा दर्शन (ruso ka shiksha darshan) rousseau on education,‌ 

रूसो का शिक्षा दर्शन इस पर आधारित हैं “प्रत्येक वस्तु उस समय तक अच्छी होती है जब तक वह कर्ता के हाथों से निकली है पर मनुष्य के हाथों में आते ही वह बुरी हो जाती है।”
रूसो के शिक्षा दर्शन का यही मूल मंत्र है कि उन्होंने तत्कालीन कृत्रिम की आलोचना की हैं और कहा कि झूठ उदासीनता तथा बेईमानी से मानव जीवन का पतन कर डाला है। रूसो के अनुसार प्रकृति, मनुष्य और पदार्थ ये तीन शिक्षा के साधन है।
वह बच्चे की प्रवृत्तियों तथा योग्यताओं का बहुत आदर करते थे क्योंकि उनका मानना था कि बच्चे के ये गुण प्रौढ़ों के गुणों से भिन्न होते हैं शिक्षक को इनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। बच्चे को छोटा प्रौढ़ नहीं समझना चाहिए क्योंकि जो बात प्रौढ़ के लिए लाभदायक हो सकती हैं वह बच्चों के लिए हानिकारक हो सकती हैं। बच्चे के मस्तिष्क में ऐसा असंबंध ज्ञान नहीं देना चाहिए जिससे उसे कोई रूचि न हो। रूसो की शिक्षा निषेधात्मक है उनके अनुसार बालक को 12 वर्ष की अवस्था तक किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं देना चाहता था। बल्कि उन्हें प्रकृति के साथ छोड़ देना चाहिेए ताकि बालक का सम विकास के लिए उचित अवसर मिल सके। उनका मानना है कि शिक्षा हमें प्रकृति मनुष्य तथा वस्तुओं से मिलती है इन तीनों की समानता ही अच्छी शिक्षा की परिचायक है। परंतु मनुष्य तथा प्रकृति में सदैव ही नहीं बनती इसलिए मनुष्य को मनुष्य अथवा नागरिक बनने के लिए किसी एक का चुनाव करना होगा रूसो का चुनाव मनुष्य की ओर है और इसलिए वह प्राकृतिक शिक्षा को सामाजिक शिक्षा से अच्छी मानता है। रूसो ने शिक्षा को चार भागों में बांटा है शैशव, बाल्यावस्था किशोरावस्था तथा प्रौढ़ता की ओर। रूसो शिक्षा का प्रारंभ जन्म से ही मानते हैं जन्म से ही बचा जो कुछ प्रकृति से सीखता है वही उनका शिक्षा है। रूसो की शिक्षा का मूल उद्देश्य भौतिक है इसलिए वह बालक को व्यक्तियों की वजाय वस्तुओं पर निर्भर रखना चाहता है।

रूसो के शिक्षा का उद्देश्य

रूसो के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य (Educational Aim According to Jean Jacques Rousseau)

ज्याँ-जैक रूसो (Jean Jacques Rousseau) अठारहवीं शताब्दी के महान दार्शनिक और आधुनिक शिक्षा दर्शन के प्रवर्तकों में से एक थे। उन्होंने शिक्षा की पारंपरिक और रूढ़िवादी प्रणाली की कठोर आलोचना की और एक नई, प्राकृतिक, और बालक-केंद्रित शिक्षा प्रणाली का समर्थन किया।

रूसो का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान अर्जन या नौकरी प्राप्ति तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि शिक्षा का मुख्य कार्य जीवन को समझना, अनुभव करना, और उसे पूर्णता से जीना सिखाना है।

रूसो कहते हैं:

“जीवन का अर्थ केवल सांस लेना नहीं है, बल्कि अपने अंगों, ज्ञानेंद्रियों, क्षमताओं और चेतना का प्रयोग करना ही जीवन है।”
“जीवन का अधिक अनुभव रखने वाला वह नहीं है जिसने अधिक दिन जिया है, बल्कि वह है जिसने अधिक गहराई से जिया है।”

इन कथनों से स्पष्ट होता है कि रूसो के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य है कि व्यक्ति ऐसा जीवन जिए जो सार्थक, अनुभूतिपूर्ण और स्वाभाविक हो।

1. जीवन का समग्र अनुभव देना (To Live Life Fully):

रूसो का मानना था कि शिक्षा बालक को केवल किताबी ज्ञान न दे, बल्कि उसे ऐसा अवसर दे कि वह स्वयं प्रयास कर, अनुभव कर, और प्रयोग करके सीख सके। शिक्षा का उद्देश्य ऐसा जीवन जीना सिखाना है जिसमें वह अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और नैतिक क्षमताओं का पूर्ण उपयोग कर सके।

2. प्राकृतिक विकास को बढ़ावा देना (To Promote Natural Development):

रूसो ने कहा कि बालक एक प्राकृतिक प्राणी है और शिक्षा को उसकी प्राकृतिक प्रवृत्तियों, जिज्ञासाओं और क्षमताओं के अनुसार ही चलना चाहिए। उन्होंने शिक्षा को एक प्राकृतिक प्रक्रिया माना, जिसमें बाहरी हस्तक्षेप कम से कम हो और बालक को स्वतंत्रता और सहजता मिले।

3. स्व-अध्ययन और आत्म-अनुभव (Self-learning & Experience):

रूसो ने उपदेशात्मक शिक्षण का विरोध किया। उन्होंने कहा कि –

“जो ज्ञान बालक स्वयं प्रयास करके प्राप्त करता है, वही स्थायी और प्रभावशाली होता है।”
इसलिए शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसमें बालक को सीखने के लिए प्रेरणा, प्रयोग और अनुभव का अवसर मिले।

4. स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता का विकास (Freedom & Self-Reliance):

रूसो का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को स्वतंत्र सोचने वाला, निर्णय लेने वाला और आत्मनिर्भर बनाना है। एक शिक्षित व्यक्ति वही है जो समाज या परिस्थिति पर पूरी तरह निर्भर न होकर, अपने निर्णय स्वयं ले सके

5. प्रकृति के अनुरूप शिक्षा (Education in Harmony with Nature):

रूसो ने प्रकृति को बालक का पहला और सबसे अच्छा शिक्षक माना। उन्होंने यह बताया कि बच्चे को कृत्रिम माहौल में बंद करने की बजाय उसे प्रकृति की गोद में, खुले वातावरण में विकसित होने दिया जाए, जहाँ वह प्राकृतिक नियमों और जीवन की वास्तविकता से परिचित हो सके।

6.नैतिक एवं सामाजिक गुणों का विकास (Moral & Social Development):

रूसो चाहते थे कि शिक्षा केवल बुद्धि का विकास न करे, बल्कि वह व्यक्ति के भीतर नैतिकता, करुणा, सहयोग, और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना भी पैदा करे। एक शिक्षित व्यक्ति वह है जो सद्भाव से रहना, दूसरों की सहायता करना और समाज के हित में कार्य करना सीखे।

रूसो के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य एक स्वाभाविक, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और नैतिक व्यक्ति का निर्माण करना है। शिक्षा का कार्य बालक को उसकी प्राकृतिक प्रवृत्तियों के अनुरूप विकसित करना, उसे जीवन के अनुभवों से जोड़ना और एक ऐसा वातावरण प्रदान करना है जहाँ वह स्वयं सीख सके, समझ सके और जीवन को गहराई से जीने में सक्षम हो।

रूसो की शिक्षा-दृष्टि आज भी बालक केंद्रित शिक्षा प्रणाली का मूल आधार मानी जाती है। उनका यह दृष्टिकोण आधुनिक शिक्षाशास्त्र को नई दिशा और सोच प्रदान करता है।

रूसो का शिक्षा संबंधी सिद्धांत rousseau education theory, jean-jacques rousseau education theory

रूसो के जीवन के विषय में दिए गए विवरण में उनके शिक्षण संबंधी विषयों का सिद्धांत इस प्रकार से हैं

१. प्रकृतिवाद:

रूसो प्रकृतिवादी थे। उन्होंने प्राकृतिक शिक्षा को ही स्वाभाविक मानते हुए विद्यालय में नियमित और कृत्रिम शिक्षा प्रणाली की आलोचना की। रूसो के अनुसार बालक को शिक्षा के लिए सामाजिक नहीं बल्कि प्राकृतिक परिवेश की आवश्यकता होती है। रूसो ने प्रकृति की ओर लौटो तथा प्रकृति का अनुसरण करने का नारा दिया है उनका मानना था कि प्रकृति बालक की शिक्षा का सबसे बड़ा स्रोत है।

२. प्राकृतिक मानव का विकास:

प्राकृतिक शिक्षा से रूसो प्राकृतिक मानव का विकास करना चाहते थे। मनुष्य को जो शिक्षा समाज और समूह के प्रभाव से मिलती हैं वह मानवीय शिक्षा और जो शिक्षा वह अपने चारों ओर के परिवेश से प्राप्त करता है वह प्राकृतिक शिक्षा है और यही सच्ची शिक्षा हैं।

३. पदार्थ का महत्व:

रूसो ने शिक्षा के 3 स्रोत माने हैं
i.प्रकृति.  ii.मानव और iii.पदार्थ  बालक की शिक्षा में इन तीनों का ही समन्वय आवश्यक है। उनके अनुसार शिक्षा में मनुष्य पदार्थ और प्रकृति का समन्वय होना चाहिए। यह तीनों ही बालक में स्वाभाविक प्रवृत्ति भावना और विचार के विकास के साधन हैं। ये तीनों ही बालक के शिक्षक हैं।

रूसो के अनुसार पाठ्यक्रम

ज्याँ जॉक रूसो (Jean-Jacques Rousseau) 18वीं शताब्दी के एक महान दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री और समाज-सुधारक थे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए, जो आज भी शैक्षिक सिद्धांतों और अभ्यास में प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं। रूसो की प्रमुख पुस्तक “एमिल या शिक्षा पर (Émile, or On Education)” उनके शैक्षिक दृष्टिकोण का मूल आधार है।

रूसो की शिक्षा-दृष्टि का मूल सिद्धांत: “प्रकृति के अनुसार शिक्षा”

रूसो का मानना था कि बच्चे में पहले से ही सीखने की प्राकृतिक क्षमता और जिज्ञासा होती है। शिक्षा का कार्य इस प्राकृतिक प्रवृत्ति को दबाना नहीं, बल्कि उसे उन्मुक्त और व्यवस्थित रूप से विकसित करना होना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि “मनुष्य जन्म से अच्छा होता है, समाज उसे भ्रष्ट बनाता है।” इसलिए पाठ्यक्रम को भी बालक की प्राकृतिक प्रवृत्तियों, चरणबद्ध विकास, और व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर बनाना चाहिए।

रूसो के अनुसार पाठ्यक्रम की प्रमुख विशेषताएँ

1. प्राकृतिक विकास पर आधारित शिक्षा:

रूसो ने पाठ्यक्रम की रचना के लिए यह मूल सिद्धांत प्रस्तुत किया कि बालक की शिक्षा उसके प्राकृतिक विकास के अनुरूप होनी चाहिए। कोई भी विषय या ज्ञान जबरदस्ती नहीं थोपना चाहिए, बल्कि बच्चे की रुचि, आवश्यकता और क्षमता के अनुसार प्रस्तुत करना चाहिए।

2. चरणबद्ध विकास और शिक्षा का विभाजन:

रूसो ने बालक के जीवन को पाँच प्रमुख चरणों में बाँटा और हर चरण के लिए भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रम निर्धारित किया:

चरण आयु सीमा शिक्षा का स्वरूप पाठ्यक्रम की विशेषता
1. शैशवावस्था जन्म से 2 वर्ष तक शारीरिक विकास, संवेदी अनुभव भाषा, स्पर्श, ध्वनि, स्वाद आदि के अनुभव
2. बाल्यावस्था 2 से 12 वर्ष तक संवेदी शिक्षा, अनुभव आधारित सीख गणित, भाषा, विज्ञान नहीं, बल्कि वस्तुओं से सीखना
3. किशोरावस्था प्रारंभ 12 से 15 वर्ष तक कार्य और तर्क से शिक्षा गणित, विज्ञान, भूगोल – अनुभव के माध्यम से
4. किशोरावस्था 15 से 20 वर्ष तक भावनात्मक, नैतिक और सामाजिक शिक्षा नैतिकता, साहित्य, समाज की समझ
5. वयस्कता 20 वर्ष के बाद नागरिक और सामाजिक शिक्षा समाज, राजनीति, सेवा, दायित्व की शिक्षा
3. पुस्तकें नहीं, प्रकृति शिक्षक है:

रूसो का यह स्पष्ट मत था कि बच्चे को जब तक संभव हो पुस्तकों से दूर रखना चाहिए। वह कहते हैं –
“Let him read no book but the book of nature.”
बच्चा अपनी इंद्रियों, गतिविधियों और दैनिक अनुभवों से ज्यादा बेहतर और स्थायी रूप से सीखता है।

4. अनुकरण नहीं, खोज और प्रयोग:

रूसो पाठ्यक्रम को रटंत प्रणाली (rote learning) के विरुद्ध मानते थे। उनके अनुसार बच्चों को स्वयं खोजने, प्रश्न पूछने, और अनुभवों के माध्यम से ज्ञान अर्जित करने का अवसर देना चाहिए।

5. नैतिकता और स्वतंत्रता का विकास:

शिक्षा केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि नैतिक विकास का भी साधन होनी चाहिए। पाठ्यक्रम इस प्रकार होना चाहिए कि वह बच्चे में सच्चाई, दया, स्वतंत्रता,

रूसो का पाठ्यक्रम दृष्टिकोण बालक-केन्द्रित शिक्षा का आदर्श उदाहरण है। वह शिक्षा को एक प्राकृतिक, व्यक्तिगत और नैतिक प्रक्रिया मानते हैं। उनके अनुसार पाठ्यक्रम को इस तरह से रचना चाहिए कि वह बालक की स्वतंत्रता, नैतिकता, और व्यक्तित्व विकास में सहायक हो।

रूसो ने शिक्षा को “मनुष्य बनाने की कला” कहा – और उनके पाठ्यक्रम का उद्देश्य भी यही था: स्वस्थ, स्वतंत्र और नैतिक मनुष्य का निर्माण।

रूसो के अनुसार विद्यालय (Jean Jacques Rousseau’s View on Schooling)

रूसो विद्यालयी शिक्षा के विरुध्द थे। उनका मानना था कि नहीं बालक जन्म से ही शुद्ध और पवित्र होता है। विद्यालय के दूषित परिवेश में वह विकृत हो जाता है। बालक को माता-पिता और विद्यालय से अलग प्राकृतिक परिवेश में छोड़ दिया जाना चाहिए। शिक्षा का कार्य केवल उसकी देखभाल करना है प्राकृतिक परिवेश में वाह स्वयं अपनी शक्ति का विकास करेगा।

आपका उत्तर विचारशील है, और इसमें रूसो की शिक्षा संबंधी सोच का सार है। अब मैं इसे और विस्तृत, स्पष्ट और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर रहा हूँ ताकि यह निबंध, परीक्षा उत्तर या प्रेजेंटेशन में उपयोगी हो सके।

विद्यालय के प्रति रूसो का दृष्टिकोण:

  1. विद्यालयी शिक्षा का विरोध (Against Formal Schooling):
    रूसो का मानना था कि परंपरागत विद्यालयों में शिक्षा कृत्रिम होती है, जहाँ बच्चों को जबरन नियमों में बांध दिया जाता है, और उनकी स्वतंत्रता तथा प्राकृतिक विकास पर रोक लग जाती है। ऐसे विद्यालय बच्चों के स्वभाव, सोच और व्यवहार को दबा देते हैं।
  2. बालक जन्म से ही शुद्ध होता है (Child is Pure by Nature):
    रूसो कहते हैं कि —

“बच्चा जन्म से ही शुद्ध होता है, लेकिन समाज और विद्यालय उसे बिगाड़ देते हैं।”
इसलिए उन्होंने विद्यालय की बजाय बच्चे को प्राकृतिक परिवेश में पनपने देने पर ज़ोर दिया।

  1. प्राकृतिक परिवेश ही श्रेष्ठ विद्यालय (Nature as the Best School):
    रूसो ने कहा कि बच्चे को माता-पिता, गुरु या किसी संस्था की कृत्रिम शिक्षा से दूर रखकर, प्राकृतिक वातावरण में छोड़ देना चाहिए, जहाँ वह अपने अनुभव, जिज्ञासा और प्रयासों के माध्यम से स्वयं सीख सके।
  2. शिक्षा का कार्य – देखभाल और संरक्षण (Role of Education – Care, not Instruction):
    रूसो का मानना था कि शिक्षा का कार्य यह नहीं है कि बालक को उपदेश दिया जाए या उस पर ज्ञान थोपा जाए, बल्कि केवल यह देखा जाए कि उसका विकास स्वाभाविक रूप से और बिना बाधा के हो सके।

“बच्चा स्वयं सीख सकता है, बशर्ते कि उसे उचित वातावरण मिले।”

  1. शिक्षक की भूमिका एक मार्गदर्शक की होनी चाहिए:
    हालाँकि रूसो औपचारिक विद्यालय के विरोधी थे, लेकिन वह शिक्षक की भूमिका को नकारते नहीं थे। वे चाहते थे कि शिक्षक बालक को बाध्य करने वाला नहीं, बल्कि केवल एक मार्गदर्शक, रक्षक और सहायक हो।

रूसो के अनुसार, परंपरागत विद्यालय बच्चे के प्राकृतिक विकास में बाधा डालते हैं। वे चाहते थे कि शिक्षा ऐसी हो जो बालक की स्वतंत्रता, स्वाभाविकता और आत्मविकास को बढ़ावा दे। उनका आदर्श विद्यालय वह था जो प्रकृति के समीप हो, जहाँ बालक अनुभव, प्रयोग और स्व-अन्वेषण के माध्यम से सीख सके।

रूसो की यह सोच आधुनिक शिक्षा प्रणाली में आज भी ‘प्रयोग आधारित शिक्षा’, ‘मॉन्टेसरी पद्धति’, और ‘खुली शिक्षा प्रणाली’ के रूप में देखी जाती है।

रूसो के अनुसार स्त्री शिक्षा

रूसो ने स्त्री और पुरुष को एक जैसे नहीं मानते थे। वे स्त्री को पुरुष का पूरक मानते थे। वे अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं मानता इसलिए स्त्रियों के शिक्षा के विषय में उनके विचारों की कटु आलोचना की गई है। रूसो स्त्रियों की नैतिक और धार्मिक शिक्षा पर विशेष बल देना चाहते थे। उनका लक्ष्य केवल उन्हें माता और पत्नी के रूप में शिक्षित करना था। रूसो का विचार था कि स्त्रियों में स्वाभाविक रूप से पढ़ने लिखने के ओर रूचि नहीं होती है। वे लड़कियों को कठोर बंधन में रखना चाहते थे।

रूसो के शैक्षिक विचारों का मूल्यांकन

१. समाज विरोधी:

रूसो के विचार असमाजिक था। उन्होंने सभ्यता तथा समाजिक व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाई और प्रकृति अवस्था को आदर्श अवस्था माना। वे बालक को समाज से दूर शिक्षा प्रदान करते थे। वे बालक को 15 वर्ष की आयु तक समाज से दूर रख कर शिक्षा प्रदान करते थे।


२. बालक संबंधी ज्ञान अपूर्ण

रूसो ने बालकों के विकास के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं वे उपयुक्त प्रतीत नहीं होते। ग्रेब्स ने लिखा है “रूसो का बालक संबंधी ज्ञान दोषपूर्ण है और उसके सुझाव अप्राकृतिक तोड़ मरोड़ और भावुकता से पूर्ण है।”

३. नारी शिक्षा संबंधी दृष्टिकोण संकुचित

रूसो ने नारी शिक्षा के संबंध में जो विचार रखे है वे नकारात्मक एवं निष्क्रिय हैं। ये विचार उनके नारी चरित्र की अनभिज्ञता के भी प्रतीक है। रूसो नारी को केवल यौन संतुष्टि तक ही सीमित रखा परंतु आज के युग में ये विचार संकुचित एवं अनुदार दिखाई देते हैं।

४. प्राकृतिक अनुशासन का सिद्धांत दोषपूर्ण

रूसो का प्राकृतिक अनुशासन का सिद्धांत अनुप्रयुक्त है क्योंकि प्रकृति अपने क्रियाकलापों में कठोर एवं घातक हो सकती है अतः बालक को बच्चा समझकर ही दण्ड दिया जाना चाहिए।

५. परस्पर विरोधी विचार

रूसो के विचारों में बहुत से विरोधी तत्वों का समावेश होता था। उदाहरण के तौर पर कर सकते हैं रूसो प्रारंभ में समाज का घोर विरोधी थे और एमिल को किशोरावस्था में हृदय की शिक्षा प्रदान करने के लिए समाज में लाए और उसका जगह-जगह के लोगों से संपर्क स्थापित किए। प्रारंभ में वह पुस्तक ज्ञान का विरोध करते थे।

रूसो के अनुसार शिक्षण विधियां/ रूसो के द्वारा बताए गए शिक्षण विधि

१. स्वानुभव द्वारा सीखना:

रूसो ‘एमिल‘(प्रथम रचना) को पुस्तकों के द्वारा नहीं बल्कि अनुभवों के द्वारा सीखना चाहते थे। वे किताबी शिक्षा के विरूद्ध थे। उनका कहना था कि 12 वर्ष तक बच्चों को किसी प्रकार की किताबी शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। बच्चों को ये जानकारी नहीं होनी चाहिए कि पुस्तक क्या वस्तु हैं। उनका मानना था “क्या मैं पुस्तक से घृणा करता हूं जो हम नहीं जानते वे उसी के बारे में हमें बातचीत करना सिखाती हैं।”

२. करके सीखना:

रूसो के अनुसार शब्दों से मिले हुए ज्ञान की तुलना में स्वयं क्रिया के द्वारा सीखा हुआ ज्ञान ही अधिक स्थायी होता है। वे रटने की विधि के विरुद्ध थे। स्वयं निरीक्षण, अनुभव और अन्वेषण के द्वारा शिक्षा प्राप्त करना चाहिए ये उनका मानना था।


३. अनुशासन:

प्रकृतिवादी रूसो बालक को अनुशासित करने के लिए उसे अधिक स्वतंत्रता देना चाहते थे। रूसो के अनुसार बालकों पर किसी प्रकार का बंधन नहीं होना चाहिए उनका मानना था बालकों को कभी भी दण्ड नहीं मिलना चाहिए।


४. विद्यालय:

   रूसो विद्यालयी शिक्षा के विरुद्ध थे। उनका मानना था कि बालक जन्म से ही शुद्ध और पवित्र होता है। विद्यालय के दूषित परिवेश में वह विकृत हो जाता है बालक को माता पिता और विद्यालय से अलग प्राकृतिक परिवेश में छोड़ दिया जाना चाहिए। शिक्षक का कार्य केवल उसकी देखभाल करना है। प्राकृतिक परिवेश में वह स्वयं अपनी शक्ति का विकास करेगा।

रूसो के अनुसार शिक्षा की विशेषताएँ (Characteristics of Education according to Rousseau)

1. प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया (Natural Development)

रूसो के अनुसार, शिक्षा का कार्य बालक के भीतर छिपी प्राकृतिक योग्यताओं, भावनाओं और क्षमताओं को विकसित करना है।
उन्होंने कहा कि शिक्षा का स्वरूप स्वाभाविक होना चाहिए – जिसमें बालक अपनी गति से, बिना किसी जबरदस्ती या बाहरी दबाव के, स्वयं को विकसित कर सके।
बालक के अंदर पहले से ही एक स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया चल रही होती है, और शिक्षक को केवल उसका मार्गदर्शन करना होता है, बाधा नहीं बनना।
वे शिक्षा को एक जैविक और प्राकृतिक प्रक्रिया मानते थे, जिसमें बाहरी हस्तक्षेप कम से कम हो।

2. अनुभव और प्रयोग आधारित शिक्षा (Learning by Doing)

रूसो का यह स्पष्ट मत था कि उपदेशात्मक शिक्षा, जहाँ शिक्षक बोलता है और बालक केवल सुनता है, वह शिक्षा का आदर्श रूप नहीं है।
उन्होंने बालक को स्वयं सीखने, खोजने, प्रयोग करने और अनुभव करने के अवसर देने पर बल दिया।
उनका कहना था कि “बच्चा जो स्वयं करता है, वही वह वास्तव में सीखता है।”
इस प्रकार, उन्होंने एक प्रयोगधर्मी और क्रियाशील शिक्षा प्रणाली का समर्थन किया, जो बालक की स्वतंत्र सोच, विश्लेषण और समस्या-समाधान क्षमता को विकसित करती है।

3. स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता का विकास

रूसो शिक्षा को स्वतंत्रता का साधन मानते थे।
उनके अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य बालक को इस योग्य बनाना है कि वह अपने विचारों, निर्णयों और कार्यों में स्वतंत्र हो सके।
एक शिक्षित व्यक्ति वही है जो अपने जीवन के लिए स्वयं निर्णय ले सके, और दूसरों पर निर्भर रहने की बजाय आत्मनिर्भर बन सके।
इस विचार के पीछे रूसो की यह धारणा थी कि सच्चा विकास तभी संभव है जब व्यक्ति अपने जीवन का नेतृत्व स्वयं करे।

4. जीवन जीने की कला सिखाना

रूसो ने शिक्षा को केवल पुस्तकीय ज्ञान देने तक सीमित नहीं माना।
उन्होंने कहा कि शिक्षा का असली उद्देश्य है – जीवन को समझना, उसे स्वीकारना, और उसमें सामंजस्य बैठाना।
शिक्षा को ऐसा होना चाहिए जिससे व्यक्ति नैतिक मूल्यों, सहनशीलता, व्यवहारिक ज्ञान और जीवन कौशल को सीख सके।
इस प्रकार की शिक्षा मनुष्य को न केवल ज्ञानी बनाती है, बल्कि संतुलित, संवेदनशील और सामाजिक रूप से उत्तरदायी नागरिक भी बनाती है।

5. समाज से नहीं, प्रकृति से सीखना

रूसो का मानना था कि प्रारंभिक शिक्षा में बालक को समाज की कृत्रिमता, बनावटी आचार-विचार और दिखावे से दूर रखना चाहिए।
बल्कि उसे प्रकृति के संपर्क में, खुले वातावरण में, और स्वस्थ प्राकृतिक परिस्थितियों में सीखने का अवसर मिलना चाहिए।
प्रकृति के माध्यम से बालक जीवन के सहज नियमों, कारण और परिणामों, और नैतिक सिद्धांतों को स्वाभाविक रूप से समझता है।
इसलिए उन्होंने शिक्षा को प्राकृतिक परिवेश में आधारित बनाने पर ज़ोर दिया।

रूसो की शिक्षा पद्धति बालक को केंद्र में रखती है। वह मानते हैं कि शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए जो बालक की प्राकृतिक शक्तियों को बिना रोक-टोक के विकसित करे, उसे जीवन की सच्ची समझ दे, और एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर व संवेदनशील व्यक्ति बनाए।
रूसो की यह सोच आज भी आधुनिक बाल-केंद्रित शिक्षा में मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में उपयोग की जाती है।

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