जॉन डीवी के शैक्षिक विचार, john dewey on education in hindi, john dewey philosophy of education in hindi, john dewey ka shiksha me yogdan, जॉन डीवी का शिक्षा दर्शन, जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य ,जॉन डीवी के शैक्षिक विचार , john dewey philosophy of education शिक्षा के बारे में जॉन डेवी का विचार वर्तमान समय में किस प्रकार प्रासंगिक है?
जॉन डीवी का जीवन परिचय(john dewey ka jivan parichay)
जॉन डीवी(john dewey) का जन्म 1859 में अमेरिका में वॉरमॉन्ट के वर्लिगटन नगर में हुआ था। उनके पिता आर्चवाल्ट ड्यूवी था। फलवाद का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ड्यूवी का शिक्षा दर्शन को माना गया है। आधुनिक काल में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका( USA) में जनतंत्रीय शिक्षा का सबसे बड़ा व्याख्याता (Assistant professor) जॉन डीवी(John Dewey) को माना गया है। वे व्यवहारवाद के प्रसिद्ध दार्शनिक थे। 19 वर्ष की अवस्था में उन्होंने दर्शनशास्त्र में सबसे अधिक अंक प्राप्त करके वरमाण्ट विश्वविद्यालय में बीए की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने मिनेसोटा मिशीगन और शिकागो विश्व विद्यालय में दर्शनशास्त्र का अध्ययन करते रहे। शिकागो विश्वविद्यालय में उन्होंने दर्शनशास्त्र के साथ साथ शिक्षा शास्त्र भी पढ़ाया। तभी से उन्हें शिक्षा में रूचि हो गई। उसके बाद वे शिकागो में प्रोग्रेसिव स्कूल नाम का एक विद्यालय की स्थापना 1896 ईसवी में की। जिसमें करके सीखने के सिद्धांत को कार्य रूप में परिणत किया गया। इस सिद्धांत में डीवी ने अपने दर्शन के आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रयोग किए।
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शिकागो छोड़कर वह कोलंबियन विश्व विद्यालय पहुंचा वहां उन्होंने अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। सन 1930 तक काम करने के बाद डीवी अवकाश प्राप्त की उन्हें एक महान दर्शनिक माना गया और देश-विदेश में उन्हें सम्मान दिया गया तथा इसी समय उन्हें डॉक्टर की उपाधि से भी विभूषित किया गया। उनके विचारों का प्रभाव अमेरिका से बाहर रूस तुर्की चीन आदि देशों में देखा गया। आधुनिक जनतंत्रीय शिक्षा प्रणाली पर ड्यूवी के विचार विद्यमान है।
जॉन डीवी अपने घर के सदस्य (परिवार) के विचारों पर आचरण(अमल) करते था। उनके कुल 6 बच्चे थे। जॉन डीवी दर्शन और शिक्षा की समस्या का हल अपने बच्चों के साथ खेलते-खेलते प्राप्त किए थे बल्कि उन्होंने स्वयं अमल करके सीखा। सन् 1952 में इस(जॉन डीवी) महान दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्री का निधन हो गया।
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education According to John Dewey)
प्रसिद्ध अमेरिकी शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी (John Dewey) ने शिक्षा को केवल पुस्तकीय ज्ञान या परीक्षा की तैयारी तक सीमित नहीं माना। उनके अनुसार, शिक्षा एक निरंतर और सक्रिय प्रक्रिया है, जो बालक के समग्र विकास (शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक) के लिए आवश्यक है। उन्होंने शिक्षा को जीवन से अलग न मानकर, स्वयं जीवन का अंग माना।
डीवी का मानना था कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य यह है कि वह व्यक्ति को समाज के साथ रहने योग्य बनाए, उसमें सामाजिक चेतना, नैतिक मूल्यों और रचनात्मक सोच का विकास करे।
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा की परिभाषा
(Definition of Education According to John Dewey)
जॉन डीवी ने शिक्षा को जीवन की प्रक्रिया माना है, न कि केवल भविष्य की तैयारी। उन्होंने परंपरागत शिक्षा प्रणाली की आलोचना करते हुए यह विचार प्रस्तुत किया कि शिक्षा को बच्चों के अनुभव, रुचि और सामाजिक जीवन से जोड़ना चाहिए।
डीवी द्वारा दी गई शिक्षा की परिभाषा:
“Education is the process of living and not a preparation for future living.”
अर्थात् –
“शिक्षा जीवन की प्रक्रिया है, न कि केवल भविष्य के जीवन की तैयारी।”
इस परिभाषा में डीवी यह स्पष्ट करते हैं कि शिक्षा केवल स्कूल की पढ़ाई या डिग्री तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक निरंतर चलने वाली जीवन प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति रोज़मर्रा के अनुभवों से सीखता है।
जॉन डीवी द्वारा लिखें गए पुस्तकों के नाम,जॉन डीवी के पुस्तकों के नाम
जॉन डीवी(john dewey) ने बहुत सी पुस्तकें हैं और असंख्या निबंध लिखें। इनकी अधिकांश रचनाएं शुद्ध दर्शनशास्त्र पर आधारित है। शिक्षा पर इन्होंने निम्नलिखित प्रमुख रचनाएं प्रकाशित किए हैं-
- दी स्कूल एंड दी सोसाइटी (1899 ई.)
- द चाइल्ड एंड द करिकुलम (1902 ई.)
- हाउ वी थिंग (1910 ईस्वी)
- इनट्रेस्ट एंड एफर्ट इन एजुकेशन (1913 ईस्वी)
- डेमोक्रेसी एंड एज्युकेशन (1916 ई.)
- रिकान्स्ट्रक्शन इन फिलासफी (1920 ईस्वी)
- एक्सपीरियंस एंड नेचर (1925 ईस्वी)
- स्कूल ऑफ टुमारो
जॉन डीवी का शिक्षा दर्शन क्या है/ जॉन डीवी का शिक्षा दर्शन लिखिए / जॉन डीवी के शिक्षा संबंधी विचार / जॉन डीवी के शैक्षिक विचार(john dewey on education in hindi/ john dewey ka shiksha darshan in hindi:-
जॉन डीवी(john dewey) मानते थे कि शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है वे शिक्षा को ना तो साध्य और ना ही मनुष्य जीवन की तैयारी का साधन ही मानते थे। यह तो स्वयं जीवन है। इनका मानना था कि मनुष्य कुछ जन्मजात शक्तियां लेकर पैदा होता है सामाजिक चेतना में भाग लेने से उनकी इन शक्तियों का विकास होता है।
जॉन डीवी(john dewey) ने शिक्षा को मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पक्ष कहा है मनोवैज्ञानिक पक्ष में बालक की जन्मजात शक्तियां, रुचियां एवं व्यक्तिगत विशेषताएं आती है और सामाजिक पक्ष में समाजिक दशाएं परिवार पास पड़ोस संघ समूह सभ्यता संस्कृति आते हैं जॉन डीवी का कहना है कि मनुष्य समाज में रहकर नित्य नए-नए अनुभव करता है। और इन अनुभवों में से समाज का अनुभव का चुनाव करता है। इनके अनुसार “शिक्षा अनुभव के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया हैं।”
जॉन डीवी के अनुसार मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी विशेषता विकास है। यह विकास अनेक दिशाओं में होता है-
- शारीरिक विकास
- मानसिक विकास
- सामाजिक विकास
इस विकास से ही मनुष्य अपने प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण पर नियंत्रण रखता है और जो प्राप्त किया जा सकता है उसे प्राप्त करता है।
जॉन डीवी के शिक्षा के अन्य पक्ष
१. जन शिक्षा
जॉन डीवी(john dewey) लोकतंत्र के समर्थक थे और समाज को आदर की दृष्टि से देखते थे। उन्होंने लोकतांत्रिक शिक्षा को मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे तथा उसकी व्यवस्था करना राज्य का अनिवार्य कर्तव्य मानते थे। जॉन डीवी के अनुसार राज्य के सभी बच्चों को विकास का समान अवसर मिलना चाहिए।
२. स्त्री शिक्षा
जॉन डीवी लोकतंत्र के समर्थक थे और लोकतंत्र स्त्री पुरुष में कोई भेद नहीं करता सभी को अपनी रुचि रुझान योग्यता और आवश्यकता अनुसार विकास का स्वतंत्र अवसर मिलना चाहिए। जॉन डीवी के अनुसार स्त्री पुरुष दोनों को शिक्षा का सम्मान अवसर मिलनी चाहिए।
३. व्यवसायिक शिक्षा
इनके द्वारा ना तो शिक्षा का कोई निश्चित उद्देश्य है और ना तो पाठ्य चर्चा की कोई निश्चितता बल्कि सामाजिक कुशलता की चर्चा करते हुए उन्होंने मनुष्य को रोजी रोटी कमाने पर बल दिया है। इनके इन विचारों से व्यवसायिक शिक्षा को बढ़ावा मिलता है।
५. धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा
जॉन डीवी अपने प्रारंभिक काल में आदर्शवाद से प्रभावित थे उस समय उन्होंने धार्मिक एवं नैतिक महत्व को मानते थे। बाद में वे जेम्स के प्रयोगवाद से प्रभावित हुए। वह प्रत्येक ज्ञान और क्रिया को वास्तविक जीवन की कसौटी पर कसने लगे और व्यक्ति के जीवन के लिए क्या उपयोगिता है उसे देखते हुए ज्ञान एवं कार्य का समर्थन करने लगे।
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य या जॉन डीवी के शिक्षा के उद्देश्य
जॉन डीवी जीवन के किसी अंतिम उद्देश्य में विश्वास नहीं करते थे। वे शिक्षा को साध्य एवं साधन न मानते हुए जीवन मानते थे। उनके जीवन में शिक्षा का कोई निश्चित उद्देश्य नहीं हो सकता। उनके अनुसार यदि शिक्षा का कोई उद्देश्य है तो सिर्फ मनुष्यों के गुणों का विकास करना। वर्तमान जीवन को कुशलतापूर्वक जीवन के लिए जीवन का रास्ता प्रसस्त हो सके।
जॉन डीवी के शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
१.अनुभवों का पुनर्निर्माण और पर्यावरण के साथ समायोजन:
जॉन डीवी के अनुसार मानव जीवन गतिशील हैं परिवर्तन शील है। अतः उसकी शिक्षा भी गतिशील एवं परिवर्तनशील होना चाहिए।
२. सामाजिक कुशलता का विकास
जॉन डीवी के अनुसार मनुष्य जो कुछ विचार करता है वह समाज में रहकर उसकी चेतना में भाग लेकर ही करता है।
३. वातावरण के साथ अनुकूलन
जॉन डीवी ने लिखा है कि शिक्षा की प्रक्रिया समायोजन की एक निरंतर प्रक्रिया है जिसका प्रत्येक अवस्था में उद्देश्य होता है।
४. गतिशील एवं लचीलापन का निर्माण:
जॉन डीवी ने शिक्षा का एक तत्कालिक उद्देश्य गतिशील एवं लचीले मनका निर्माण मानते हैं। यदि हम समाजिक प्रयोगवादी पद्धति चाहते हैं तो हमें पूर्व निर्धारित मूल्यों का परित्याग करना होगा।
५. लोकतंत्रीय जीवन का प्रशिक्षण
जॉन डीवी लोकतंत्र के समाज के समर्थक थे। समाज के कार्यों में भाग लेने के लिए व्यक्ति में सात प्रकार की क्षमता होनी चाहिए नागरिकता, कार्य करने की क्षमता, योग गृहस्थ, व्यवसाय, स्वस्थ शरीर, अवकाश का उचित उपयोग, नैतिकता एवं चरित्र निर्माण।
जॉन डीवी के अनुसार पाठ्यक्रम
जॉन डीवी एक प्रसिद्ध अमेरिकी दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं शिक्षाशास्त्री थे, जिनका शिक्षा के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वे प्रगतिशील शिक्षा (Progressive Education) के समर्थक थे और उनका यह दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह बालकों के वास्तविक जीवन से जुड़ी होनी चाहिए। डीवी ने शिक्षा को जीवन की तैयारी न मानकर स्वयं जीवन माना है।
डीवी के अनुसार, पाठ्यक्रम का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वह बालक की प्राकृतिक प्रवृत्तियों, अनुभवों, आवश्यकताओं, तथा सामाजिक वातावरण के अनुकूल हो। वे परंपरागत विषय-केंद्रित पाठ्यक्रम की आलोचना करते हुए कहते हैं कि ऐसा पाठ्यक्रम बच्चों के विकास में बाधक होता है, क्योंकि यह केवल जानकारी देने तक सीमित रहता है। उनका मानना था कि शिक्षा एक गतिशील और क्रियात्मक प्रक्रिया है, जिसमें बालक को अपनी रुचि, जिज्ञासा और अनुभवों के अनुसार सीखने का अवसर मिलना चाहिए।
डीवी के अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत:
- बालक केंद्रित पाठ्यक्रम – डीवी के अनुसार, पाठ्यक्रम का मुख्य केंद्र बालक होना चाहिए। बालक की मानसिक अवस्था, उसकी रुचियाँ, क्षमताएँ और उसकी विकास प्रक्रिया को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए। उनका मानना था कि जब शिक्षा बालक की रुचि और आवश्यकता के अनुसार होती है, तभी वह प्रभावशाली बनती है।
- समाज केंद्रित पाठ्यक्रम – यद्यपि डीवी बालक केंद्रित शिक्षा के समर्थक थे, परंतु वे यह भी मानते थे कि शिक्षा का उद्देश्य बच्चे को समाज के साथ जोड़ना भी है। इसलिए पाठ्यक्रम में ऐसी गतिविधियाँ और विषय शामिल होने चाहिए जो बालक को सामाजिक जीवन के लिए तैयार करें। सामाजिक समस्याओं, सांस्कृतिक मूल्यों और नागरिक कर्तव्यों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना आवश्यक है।
- अनुभव आधारित पाठ्यक्रम – डीवी ने अनुभव को शिक्षा का मूल आधार माना। उनका कहना था कि बच्चा अपने अनुभवों के माध्यम से ही वास्तविक रूप से सीखता है। इसलिए पाठ्यक्रम में ऐसा प्रबंध होना चाहिए कि बालक को प्रत्यक्ष अनुभव मिल सकें, जैसे प्रयोग, भ्रमण, परियोजना कार्य, समूह चर्चा आदि।
- रुचि पर आधारित पाठ्यक्रम – डीवी का मानना था कि यदि शिक्षा बच्चों की रुचि से जुड़ी हुई हो, तो वे उसमें अधिक सक्रियता और उत्साह के साथ भाग लेते हैं। जब बालक किसी कार्य में अपनी स्वाभाविक रुचि के साथ भाग लेता है, तो उसका ज्ञान अधिक स्थायी और प्रभावी होता है।
- उपयोगिता प्रधान पाठ्यक्रम – डीवी ने शिक्षा को व्यावहारिक जीवन के लिए उपयोगी बनाने पर बल दिया। पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिससे बालक जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान कर सके, आत्मनिर्भर बन सके और समाज में एक सक्रिय नागरिक के रूप में योगदान दे सके।
- जीवनोपयोगी और वास्तविक जीवन से जुड़ा हुआ पाठ्यक्रम – डीवी के अनुसार, पाठ्यक्रम में ऐसी सामग्री और गतिविधियाँ शामिल होनी चाहिए जो बच्चों के दैनिक जीवन से जुड़ी हुई हों। जब बच्चे को यह अनुभव होता है कि वह जो कुछ भी सीख रहा है, वह उसके जीवन के लिए उपयोगी है, तो उसकी सीखने की प्रेरणा स्वतः बढ़ जाती है।
जॉन डीवी की शिक्षण विधि (John Dewey’s Teaching Method)
जॉन डीवी(john dewey) मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानते थे और वह मानते थे कि मनुष्य का विकास जाति की सामाजिक चेतना में भाग लेने से होता है। उनके अनुसार शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है उन्होंने शिक्षा पद्धति के विषय में महत्वपूर्ण विचार दिए हैं जो उनकी पुस्तक हाउ वी थिंग तथा इनट्रेस्ट एंड एफर्ट इन एजुकेशन में देखा गया है। उनका सबसे प्रसिद्ध सिद्धांत करके सीखने का सिद्धांत है। उनके अनुसार सबसे अच्छी पद्धति वह है जिसमें बच्चे स्वयं कार्य करके विभिन्न विषयों को सीखते हैं।
- रुचि
- प्रयास
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डीवी के शिक्षण सिद्धांतों के मुख्य बिंदु:
1. करके सीखने की विधि (Learning by Doing)
डीवी का सबसे प्रसिद्ध शिक्षण सिद्धांत है – “Learning by Doing”, यानी “करते हुए सीखना”। उनके अनुसार, बालक केवल सुनकर या पढ़कर नहीं, बल्कि स्वयं कार्य करके बेहतर तरीके से सीखता है। यह शिक्षण पद्धति बच्चों को सक्रिय बनाती है और उन्हें प्रयोग, खोज, निर्माण और समस्याओं के समाधान की दिशा में प्रेरित करती है।
उदाहरण के लिए, अगर कोई बच्चा विज्ञान विषय में पानी के चक्र को समझना चाहता है, तो उसे केवल चित्र दिखाने की बजाय यदि प्रयोग के माध्यम से पानी को गर्म करके वाष्प बनने, संघनन और वर्षा की प्रक्रिया दिखाई जाए, तो वह उसे बेहतर समझेगा।
2. रुचि और प्रयास (Interest and Effort)
डीवी ने शिक्षा में रुचि (Interest) और प्रयास (Effort) को दो मूलभूत तत्व माना है। उनका मानना था कि अगर कोई बच्चा किसी कार्य में स्वाभाविक रुचि लेता है, तो वह उसमें पूरे मन से प्रयास करेगा और सीखना उसके लिए आनंददायक बन जाएगा।
- रुचि से आशय है – बालक की स्वाभाविक जिज्ञासा और सीखने की प्रेरणा।
- प्रयास का अर्थ है – उस जिज्ञासा को क्रियात्मक रूप में बदलने की क्षमता और ऊर्जा।
शिक्षक को चाहिए कि वह बच्चों की रुचियों को पहचाने और उन्हें प्रोत्साहित करे ताकि वे स्वयं प्रयास करके ज्ञान अर्जित कर सकें।
3. बालक केंद्रित शिक्षण (Child-Centered Teaching)
डीवी के अनुसार शिक्षा का केंद्र बालक होना चाहिए, न कि विषय या शिक्षक। बालक की मानसिक स्थिति, विकास की अवस्था, उसकी रुचियाँ और आवश्यकताएँ शिक्षण प्रक्रिया में सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। शिक्षक का कार्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि बालक के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना है जहाँ वह स्वयं सीख सके।
4. अनुभव आधारित शिक्षण (Experience-Based Learning)
डीवी का कहना था कि शिक्षा का आधार अनुभव होना चाहिए। अनुभवों के माध्यम से ही बालक समाज, प्रकृति और जीवन की वास्तविकताओं को समझता है। शिक्षण में प्रयोगशालाओं, परियोजनाओं, भ्रमण, समूह कार्य आदि को शामिल करके अनुभव आधारित शिक्षा दी जा सकती है।
5. समस्या समाधान पर आधारित शिक्षण (Problem Solving Method)
डीवी ने यह विचार भी प्रस्तुत किया कि शिक्षा में बच्चों को समस्याओं का समाधान करना सिखाया जाना चाहिए। जब बच्चा किसी समस्या का समाधान खोजता है, तो वह अधिक गहराई से सोचता है और उसका चिंतन तथा विश्लेषण क्षमता विकसित होती है।
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षक का स्थान (John Dewey’s View on the Role of Teacher)
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डीवी का मानना था कि विद्यालय एक लघु समाज है और शिक्षक उस समाज का सजग आयोजक है। शिक्षक का उत्तरदायित्व है कि वह बच्चों के लिए ऐसा सामाजिक वातावरण निर्मित करे, जिसमें रहकर वे अपने सामाजिक गुणों का विकास कर सकें और भविष्य में लोकतांत्रिक समाज के योग्य नागरिक बन सकें।
शिक्षक की भूमिका से जुड़े प्रमुख बिंदु:
- शिक्षक एक समाज सेवक होता है
डीवी के अनुसार शिक्षक समाज के निर्माण में एक सच्चा सेवक होता है। वह भावी पीढ़ी को न केवल ज्ञान देता है, बल्कि उन्हें सामाजिक, नैतिक और नागरिक मूल्यों से भी परिचित कराता है। उसकी जिम्मेदारी है कि वह ऐसे व्यक्तित्वों का निर्माण करे जो समाज में सहयोग, समता और लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन करें। - शिक्षक को बालकों से स्वयं को बड़ा नहीं समझना चाहिए
डीवी यह मानते थे कि शिक्षक और छात्र के बीच समानता का संबंध होना चाहिए। शिक्षक को यह नहीं समझना चाहिए कि वह सर्वोच्च है और बालक केवल आज्ञा पालन करने वाला प्राणी है। शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक को मार्गदर्शक और सहभागी की भूमिका निभानी चाहिए, न कि शासक की। - शिक्षक को आज्ञा और उपदेश थोपने से बचना चाहिए
डीवी के अनुसार शिक्षक को अपने विचार और आदेश बालकों पर थोपने नहीं चाहिए। शिक्षा की प्रक्रिया संवाद आधारित और सहभागिता युक्त होनी चाहिए। शिक्षक को बच्चों को सोचने, प्रश्न करने और अनुभव करने की स्वतंत्रता देनी चाहिए। - बालकों की रुचियों और योग्यताओं का निरीक्षण करना चाहिए
एक अच्छा शिक्षक वही है जो बच्चों की रुचियों, क्षमताओं और स्वाभाविक प्रवृत्तियों को ध्यान से समझता है। डीवी का मानना था कि शिक्षक को बालकों का सतत निरीक्षण करके यह समझना चाहिए कि वे किस दिशा में अधिक रुचि रखते हैं, और फिर उन्हें उसी के अनुसार सृजनात्मक कार्यों में प्रवृत्त करना चाहिए। - विद्यालय में लोकतांत्रिक वातावरण का निर्माण
डीवी का यह भी कहना था कि शिक्षक को विद्यालय में स्वतंत्रता, समानता, सहयोग और उत्तरदायित्व जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना चाहिए। ऐसा वातावरण बालक को समाज के प्रति जागरूक और जिम्मेदार बनाता है।
जॉन डीवी के अनुसार, शिक्षक का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है, परंतु यह शक्ति और अनुशासन के आधार पर नहीं, बल्कि सहयोग, मार्गदर्शन और सेवा के आधार पर तय होता है। एक आदर्श शिक्षक वह है जो बच्चों के भीतर छिपी क्षमताओं को पहचानकर उन्हें सृजनशीलता, सामाजिकता और उत्तरदायित्व की ओर प्रेरित करे। डीवी का यह दृष्टिकोण आज की बालक केंद्रित शिक्षा प्रणाली के लिए अत्यंत प्रासंगिक और उपयोगी है।
जॉन डीवी के अनुसार विद्यालय क्या है (John Dewey’s Concept of School)
आपका उत्तर जॉन डीवी के “विद्यालय” संबंधी दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। नीचे इसे और अधिक शब्दों में विस्तारपूर्वक, व्यवस्थित और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है, ताकि यह परीक्षा, निबंध लेखन या शैक्षणिक प्रोजेक्ट में और भी उपयोगी हो सके।
डीवी के अनुसार विद्यालय की विशेषताएं:
1. समाज का लघु रूप (Miniature Society)
जॉन डीवी के अनुसार विद्यालय को समाज का प्रतिरूप होना चाहिए। बच्चों को वहाँ ऐसा माहौल मिलना चाहिए जहाँ वे सामाजिक जीवन की छोटी-छोटी भूमिकाएँ निभाकर सामाजिकता सीख सकें। विद्यालय में समूह कार्य, सह-अस्तित्व, साझा निर्णय, और सहभागिता के अवसर मिलने चाहिए जिससे वे समाज में आगे चलकर जिम्मेदार नागरिक बन सकें।
2. सामाजिक विकास का केंद्र
विद्यालय वह स्थान है जहाँ बालक को समाज की सांस्कृतिक और नैतिक विरासत दी जाती है। जैसे-जैसे समाज बदलता है, विद्यालय को भी अपने पाठ्यक्रम और गतिविधियों में समाज की बदलती आवश्यकताओं और मूल्यों को सम्मिलित करना चाहिए। इससे बालक में लचीलापन, समायोजन और सामाजिक चेतना का विकास होता है।
3. जनतांत्रिक मूल्यों का पोषण
डीवी का यह भी मानना था कि आधुनिक समाज में जनतंत्र के मूल्यों जैसे – स्वतंत्रता, समानता, और भ्रातृत्व को सर्वोपरि माना जाता है। विद्यालय को चाहिए कि वह ऐसे कार्यक्रम और गतिविधियाँ आयोजित करे जो इन मूल्यों को व्यवहार में उतारने का अवसर दें, जैसे – चुनाव प्रक्रिया, समूह चर्चा, विचार-विमर्श, सहयोगात्मक परियोजनाएँ आदि।
4. व्यवहारिक जीवन की तैयारी का स्थल
विद्यालय केवल किताबी ज्ञान का केंद्र नहीं होना चाहिए। डीवी के अनुसार शिक्षा का संबंध वास्तविक जीवन से होना चाहिए। विद्यालय में बच्चों को वास्तविक जीवन की परिस्थितियों से परिचित कराया जाना चाहिए ताकि वे आत्मनिर्भर और समस्या-समाधान में सक्षम बन सकें।
5. सामाजिक उत्तरदायित्व का बोध
डीवी यह मानते थे कि शिक्षा का उद्देश्य है बच्चों में सामाजिक उत्तरदायित्व और सेवा भावना का विकास करना। विद्यालय में ऐसे अनुभव प्रदान किए जाने चाहिए जिनसे बालकों को यह अनुभव हो कि वे समाज का अभिन्न अंग हैं और उन्हें समाज के विकास में अपना योगदान देना है।
अन्य विचारकों की पुष्टि:
जॉन डीवी के इस दृष्टिकोण को प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तु ने भी समर्थन दिया है। अरस्तु का प्रसिद्ध कथन है:
“हम जैसा समाज बनाना चाहते हैं, वैसा ही प्रतिरूप विद्यालय में बनाया जाना चाहिए।”
इस विचार से स्पष्ट होता है कि विद्यालय एक समाज निर्माण की प्रयोगशाला है।
जॉन डीवी के अनुसार विद्यालय केवल शिक्षा प्रदान करने का स्थान नहीं, बल्कि वह समाज का लघु रूप है, जो बालकों को सामाजिक जीवन जीने की पूर्व तैयारी कराता है। विद्यालय में ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाना चाहिए जो बालकों में सहयोग, लोकतंत्र, उत्तरदायित्व, स्वतंत्रता और समानता जैसे गुणों का विकास करे। इस प्रकार विद्यालय, समाज के एक आदर्श, जागरूक और उत्तरदायी नागरिक के निर्माण की दिशा में पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम होता है।
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