ठाकुर का कुआँ कहानी का सारांश thakur ka kuan kahani ka saransh

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प्रस्तुत कहानी अंग्रेजी शासन काल के जमींदारी युग की है, जब छुआछूत की प्रथा इतनी अधिक बढ़ गयी थी कि मानवता उसके नीचे दब गयी थी। जहाँ धर्म में किसी को जल पिलाना अत्यन्त पुनीत कार्य माना जाता था, वहीं छुआ-छूत की परम्परा ने समाज में ऐसा विकृत रूप खड़ा कर दिया था कि गरीब और निम्न वर्ग के लोग यदि सवर्ण बिरादरी के कुएँ से पानी ले लें तो कुआँ ही अशुद्ध हो जायेगा-ऐसी धारणा बनी थी। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने धर्म के बाह्य आडम्बर और तत्कालीन विकृत सामाजिक व्यवस्था का प्रस्तुत कहानी में चित्रण किया है। कहानी इस प्रकार है-

‘ठाकुर का कुआँ’ का सारांश

जोखू गाँव के गरीब वर्ग का व्यक्ति है, वह कई दिन से बीमार है। रात में उसे प्यास लगती है, गला सूख रहा होता है। वह अपनी पत्नी गंगी से पानी माँगता है। गंगी पानी देती है, परंतु जैसे ही जोखू उसे पीने के लिये मुँह से लगाता है तो बड़ी तेज़ बदबू आती है। गंगी देखती है तो उसे भी बदबू आती है, वह कहती है – लगता है कुएँ में कोई जानवर गिरकर मर गया है। यह पानी पीने लायक नहीं है। इसे पीने से बीमारी बढ़ जायेगी।’
थोड़ी देर बाद जोखू कहता है कि अब प्यास से रहा नहीं जाता, ला वही पानी, नाक बन्द करके पी लूँ। पति की अधीरता देख गंगी कहती है कि मैं दूसरा पानी लाने जाती हूं। जोखू कहता है दूसरा पानी कहाँ से लायेगी ? गंगी कहती है ठाकुर और साहू के दो कुएँ है क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे? जोखू कहता है ‘हाथ-पाँव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ..गरीबों का दर्द कौन समझता है। हम तो मर भी जाते हैं तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, ……. ..ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे ?
रात के नौ बजे जब सारे गाँव में अँधेरा छा गया है और लोग प्रायः सो गये हैं तो वह घड़ा-रस्सी लेकर ठाकुर के कुएँ पर पानी भरने जाती है, परन्तु उस समय भी कुछ निठल्ले लोग ठाकुर के दरवाजे पर बैठे रहते हैं। वह उनके जाने का इंतजार करती हुई जगत की आड़ में छुपी बैठी रहती है। इतने में ठाकुर परिवार की दो स्त्रियाँ कुएँ पर पानी भरने के आ जाती हैं। गंगी झट से एक पेड़ की आड़ में अँधेरे में छिप जाती है।
स्त्रियाँ पानी भरकर वापस चली जाती हैं। ठाकुर के दरवाजे पर बैठे निठल्ले भी अपने-अपने घरों को चले जाते हैं। ठाकुर भी दरवाजा बन्द कर अन्दर सोने के लिए चला जाता है। गंगी चुपचाप बहुत सावधानी से दबे पाँव जगत पर चढ़ती है। रस्सी का फंदा घड़े में डालकर उसे इतने धीरे-धीरे कुएँ में डुबोती है कि जरा-सा भी शब्द न हो। घड़े के भर जाने पर जल्दी-जल्दी परंतु अत्यन्त सावधानीपूर्वक उसे ऊपर खींचती है। घड़ा कुएँ के मुँह तक ऊपर आ जाता है, गंगी घड़े को पकड़ने के लिये जैसे ही झुकती है ठीक उसी समय ठाकुर साहब का दरवाजा खुल जाता है। घबराहट के कारण गंगी के हाथ से रस्सी छूट जाती है घड़ा ‘धड़ाम’ की आवाज के साथ रस्सी सहित कुएँ में गिर जाता है। उधर से ठाकुर की आवाज ‘कौन है? कौन है?’ सुनाई देती है। गंगी तुरन्त कुएँ की जगत से कूदकर भागती है। उसे अब यह भय है कि अगर वह कहीं पकड़ी गयी तो पूरा ठाकुर मुहल्ला उसे मारकर अधमरा कर देगा। किसी प्रकार वह भागकर घर आती है और घर आने पर देखाती है कि जोखू वही मैला-गंदा और बदबूदार पानी पी रहा है।

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