चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जीवन परिचय ॥ Chandradhar Sharma Guleri Jivan Parichay

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जीवन परिचय ॥ Chandradhar Sharma Guleri Jivan Parichay

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जीवन परिचय ॥ Chandradhar Sharma Guleri Jivan Parichay

चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ हिंदी साहित्य के बहुचर्चित कथाकार, निबंधकार, भाषावैज्ञानिक, शोधकर्ता और अध्यापक थे। उनका जीवन बहुमुखी प्रतिभा, अध्यवसाय और मूल्यों की चित्रशाला था, जिसमें परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म 7 जुलाई 1883 को जयपुर, राजस्थान में हुआ। उनके पिता, पंडित शिवराम शास्त्री, मूल रूप से हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव के निवासी थे, जो राजसम्मान पाकर जयपुर में बस गए थे। उनकी माता लक्ष्मी देवी थीं। घर का वातावरण संस्कृत, वेद, पुराण, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन तथा धार्मिक कर्मकांड का था। बचपन से ही गुलेरी ने इन संस्कारों को आत्मसात् किया, परिणामस्वरूप वे कम उम्र में ही संस्कृत, वेद, पुराण, आदि में पारंगत हो गए। केवल दस वर्ष की आयु में उन्होंने संस्कृत में भाषण देकर विद्वानों को चकित कर दिया था। उन्हें अपने पिता से संस्कृत की गहरी शिक्षा मिली।

चन्द्रधर ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एफ.ए. (प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान) तथा प्रयाग विश्वविद्यालय से बी.ए. (प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान) की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे चाहकर भी आर्थिक कारणों से आगे की औपचारिक शिक्षा जारी नहीं रख सके, फिर भी उनका स्वाध्याय और अध्ययन निरंतर चलता रहा।

विद्वत्ता और भाषा ज्ञान

गुलेरी बहुभाषाविद् थे। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेज़ी, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, मराठी, गुजराती, बंगला, पंजाबी, लैटिन, फ्रेंच आदि भाषाओं में असाधारण अधिकार प्राप्त किया था। इतना ही नहीं, वे साहित्य, इतिहास, पुरातत्त्व, ज्योतिष, धर्म, दर्शन, भाषाविज्ञान आदि अनेक विषयों के विद्वान रहे।

कार्यक्षेत्र

गुलेरी जी का विद्वत्तापूर्ण और सक्रिय जीवन विभिन्न क्षेत्रों में फैला हुआ था। 20 वर्ष की आयु से पूर्व ही वे जयपुर वेधशाला के जीर्णोद्धार मंडल में शामिल किए गए और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर “द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एंड इट्स बिल्डर्स” नामक अंग्रेज़ी ग्रंथ की रचना की। 1904 में वे अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्यापक नियुक्त हुए तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राचार्य बने। उनकी कठोर अनुशासनप्रियता, कृतज्ञता और अनुशासन के लिए वे प्रसिद्ध थे। मदन मोहन मालवीय जी के आग्रह पर वे बनारस भी गए, जहाँ हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य नियुक्त किए गए।

उनका संबंध अनेक विद्वत संस्थाओं और शोध परियोजनाओं से रहा। वे नागरी मंच (जयपुर), मासिक पत्र “समालोचक” के संपादक भी रहे। नागरी प्रचारिणी सभा के संपादक मंडल और सभापति के रूप में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया।

साहित्यिक योगदान

गुलेरी का हिन्दी साहित्य में सबसे बड़ा योगदान कहानी विधा के क्षेत्र में है। 1915 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित ‘उसने कहा था’ को हिन्दी की पहली मौलिक एवं आदर्श कहानी माना जाता है, जिसने न केवल हिंदी कहानी को पहचान दी, बल्कि उसे विश्वस्तरीय भी बनाया। गुलेरी की प्रमुख कहानियाँ हैं:
– “उसने कहा था”
– “सुखमय जीवन”
– “बुद्धू का काँटा”

इनके निबंधों की शैली विद्वत्तापूर्ण, गूढ़, संयमित हास्य व व्यंग्य से भरपूर रही। “कछुआ धरम”, “मारेसि मोहि कुठाऊं”, “पुरानी हिन्दी” आदि उनके चर्चित निबंध हैं। उनके रचनाकार का मन न केवल कहानी, बल्कि शोध, आलोचना, भाषा विज्ञान, निबंध और संस्कृत साहित्य पर भी एकसमान अधिकार दिखाता है। ग्रंथों की अपेक्षा उन्होंने प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में स्फुट रचनाएँ अधिक दीं।

कहानी-कला की विशेषताएँ

गुलेरी के कहानी-साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है – उसमें जीवन की ज्वलंत संवेदनाएँ, मानवीय गहराई, संवेदना, कथावस्तु की कसावट, कलात्मकता, सजीव चरित्र-चित्रण तथा उत्कृष्ट भाषा-शैली। उनकी कहानियों में बेजोड़ मौलिकता, गहराई और मनोविश्लेषण मिलता है। जीवन के यथार्थ और सच्चाई को वह पूरी सच्चाई के साथ मंच पर प्रस्तुत करते हैं। उनकी भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत विकसित, सरल, सरस, बिंबग्राही और प्रासंगिक है।

व्यक्तित्व और प्रभाव

गुलेरी जी दृढ़ व्यक्तित्व, अनुशासन, कृतज्ञता, विनयशीलता और साहस के प्रतीक रहे। उनके व्यक्तित्व में परंपरा के प्रति सम्मान और नवीनता के प्रति झुकाव दोनों विद्यमान थे। वे आधुनिक चेतना, स्वतंत्र चिंतन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के पोषक रहे। उनका जीवन सादा, विचार उच्च और व्यवहार में परस्परता का उदाहरण था।

साहित्यिक क्षेत्र में उनका योगदान बहुआयामी था। वे हिन्दी कहानी को प्रौढ़ता के शिखर पर पहुँचाने में सफल रहे और निबंध विधा को व्यंग्य और बौद्धिकता का नया आयाम दिया। शोध, आलोचना, भाषाशास्त्र, शिक्षा और सांस्कृतिक जागरण में उनका प्रभाव स्थायी रहा। आज भी उनकी रचनाएँ अध्ययन, अनुकरण और प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।

निधन और स्मृति

गुलेरी जी अल्पायु में ही तमाम उपलब्धियों को अर्जित कर 12 सितम्बर 1922 को काशी में महज 39 वर्ष की आयु में इस संसार से विदा हो गए। उनका अचानक निधन हिंदी-साहित्य जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति रहा। उनकी स्मृति और कृतित्व आज भी साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

उपसंहार

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जीवन एक प्रेरणादायी यात्रा की तरह है, जिसमें परंपरा, विद्वत्ता, नवाचार और बौद्धिकता का सुंदर समावेश मिलता है। वे आज भी हिंदी साहित्य में कहानी और निबंध के क्षेत्र में एक अमर नक्षत्र की भांति चमकते हैं।

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