फणीश्वरनाथ रेणु का जीवन परिचय ॥ Phanishwar Nath Renu Ka Jivan Parichay 

फणीश्वरनाथ रेणु का जीवन परिचय ॥ Phanishwar Nath Renu Ka Jivan Parichay 

फणीश्वरनाथ रेणु का जीवन परिचय ॥ Phanishwar Nath Renu Ka Jivan Parichay 

प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि

फणीश्वरनाथ मंडल ‘रेणु’ का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले के फॉरबिसगंज के पास औराही हिंगना नामक एक छोटे से गाँव में हुआ। उनका परिवार मध्यम वर्गीय किसान था। उनके पिता शिलानाथ मंडल स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े कांग्रेसी कार्यकर्ता थे, जिन्होंने घर में स्वराज एवं देशभक्ति की भावना पैदा की। इस परिवारिक और सामाजिक माहौल ने रेणु के जीवन और सोच पर गहरा प्रभाव डाला। बचपन से ही उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम और उसके उद्देश्य को समझा। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने अररिया, फारबिसगंज तथा नेपाल के विराटनगर के आदर्श विद्यालय से प्राप्त की। बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट पास किया।

राजनीतिक सक्रियता एवं स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

रेणु ने बहुत कम उम्र से ही राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी शुरू कर दी थी। 1930-31 में जब वे स्कूल में पढ़ रहे थे, तब महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के बाद पूरे इलाके के विद्यार्थी हड़ताल पर चले गए, जिसमें रेणु ने भी हिस्सा लिया। इसके कारण स्कूल में उन्हें दंड भी मिला लेकिन उन्हें इलाके में बहादुर सूराजी के रूप में जाना गया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वे जेल गए और सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उभरे। पटना विश्वविद्यालय के छात्र संघर्ष समिति से जुड़े और जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति में भी भूमिका निभाई।

नेपाल क्रांति में भागीदारी

1950 में जब नेपाल में एकतंत्रीय राजशाही के दमन के विरोध में विद्रोह शुरू हुआ, तो रेणु वहां गया और विद्रोही सेना के साथ पूरी सक्रियता से जुड़ा। वे नेपाल रेडियो के प्रथम डायरेक्टर जनरल भी बने। इस घनघोर राजनीतिक संघर्ष के बावजूद उनका साहित्यिक पक्ष भी पनप रहा था।

रोग और साहित्य की ओर झुकाव

1952-53 में गंभीर रूप से रोगग्रस्त होने के कारण वे सक्रिय राजनीति से दूर हो गए और साहित्य लेखन में मन लगाना शुरू किया। इस काल की पीड़ा और अनुभव उनकी कहानी ‘तबे एकला चलो रे’ में झलकते हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य में आंचलिक कथा विधा की नींव डाली, जो बाद के उपन्यासकारों के लिए संस्कार बन गई।

साहित्यिक योगदान: मैला आंचल और अन्य कृतियां

रेणु को हिंदी साहित्य में सबसे अधिक ख्याति उनके प्रथम उपन्यास “मैला आंचल” से मिली। यह उपन्यास ग्रामीण जीवन का यथार्थ और सामाजिक विसंगतियों को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करता है। इसे प्रेमचंद के ‘गोदान’ के बाद हिंदी का दूसरा महान ग्रामीण उपन्यास माना जाता है। इस उपन्यास ने हिंदी साहित्य में आंचलिक उपन्यास को एक नया मुकाम दिया और रेणु को रातों-रात प्रसिद्धि दिलाई।

उनकी अन्य महत्वपूर्ण कृतियों में उपन्यास ‘परती परिकथा’, ‘जूलूस’, ‘कितने चौराहे’ तथा कहानियाँ ‘मारे गये गुलफाम’, ‘बटबाबा’, ‘पहलवान की ढोलक’, ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ आदि शामिल हैं। ‘मारे गये गुलफाम’ पर बनी फिल्म ने उनकी लोकप्रियता को और बढ़ावा दिया।

भाषा और शैली की विशेषताएँ

रेणु की भाषा शैली सरल, स्वाभाविक तथा क्षेत्रीय थी जो उनकी रचनाओं की एक प्रमुख विशेषता थी। बिहार के कटिहार क्षेत्रीय बोलियाँ और संस्कृति उनकी रचनाओं में समाई हुई थी। उन्होंने ग्रामीण जीवन के रागात्मक और रसपूर्ण चित्र खींचे, मानव मनोविज्ञान और सामाजिक यथार्थ को गहराई से उभारा। उनकी कहानियाँ और उपन्यास सामाजिक और मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत थे, जो पाठकों के दिलों को छू जाते हैं।

सामाजिक और राजनीतिक चेतना

फणीश्वरनाथ रेणु केवल एक लेखक नहीं, बल्कि एक सजग नागरिक, देशभक्त और समाज सुधारक भी थे। उनका साहित्य सत्ता में पड़ी बुराइयों, आर्थिक शोषण और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध एक तीव्र प्रतिक्रिया थी। वे जनता के दर्द, उनका संघर्ष और आशा-निराशा को अपनी रचनाओं में संजोते थे। उनकी राजनीतिक जागरूकता कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थी।

व्यक्तिगत जीवन

रेणु का विवाह तीन बार हुआ। उनकी पत्नियाँ रेखा, पद्मा और लतिका थीं, जिनके साथ उनका पारिवारिक जीवन रहा। उनकी संतान में कविता रॉय और वहीदा रॉय प्रमुख हैं। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे गहरे रोगग्रस्त रहे और 11 अप्रैल 1977 को उनका निधन हो गया।

विरासत और प्रभाव

फणीश्वरनाथ रेणु ने हिंदी साहित्य को ग्रामीणता की आत्मा का परिचय दिया। उनका लेखन आज भी हिंदी भाषा और साहित्य में गहन प्रभाव रखता है। उन्होंने ग्रामीण जीवन की यथार्थवादी छवि प्रस्तुत करके साहित्य में आंचलिकता की नवीन परिभाषा दी। उनकी रचनाएँ सामाजिक जागरूकता, संवेदनशीलता और साहित्यिक सौंदर्य से परिपूर्ण हैं। वे स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी चिंतक के रूप में भी याद किए जाते हैं।

फणीश्वरनाथ रेणु का जीवन संघर्ष, देशभक्ति और सृजनात्मकता की प्रेरणा है। उन्होंने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि ग्रामीण भारत की सांस्कृतिक धरोहर और सामाजिक यथार्थता को भी उजागर किया। उनका साहित्य आज के युग में भी प्रासंगिक है और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।

फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी साहित्य के ऐसे स्तम्भ हैं जिनकी लेखनी ने ग्रामीण जीवन की खुशियों, पीड़ाओं और संघर्षों को अमर बना दिया। उनकी कथाएँ और उपन्यास सदैव हिंदी साहित्य के अमूल्य रत्न रहेंगे।

फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाएँ

फणीश्वरनाथ रेणु की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं, जो हिंदी साहित्य में उनका महत्वपूर्ण स्थान दर्शाती हैं:

प्रसिद्ध उपन्यास
– मैला आंचल (1954) — ग्रामीण बिहार के एक गाँव की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण जो स्वतंत्रता-पूर्व युग पर आधारित है।
– परती परिकथा (1957)
– दीर्घतया (1962)
– जूलूस (1965)
– कितने चौराहे (1966)
– पलटू बाबू रोड (मरणोपरांत 1979 में प्रकाशित)

कहानी संग्रह और लघुकथाएँ
– किसान (1957) — किसानों के जीवन के विषय में कविताएँ।
– बिहार की विधवा (1956) — विधवाओं के जीवन के संघर्षों का चित्रण।
– जम्मू काशी (1957)
– परमाणु (1962)
– रेणु की कहानियां (1967)
– तीसरी कसम (1967) — कहानी और फिल्म दोनों प्रसिद्ध।
– समाधि (1971) — ग्रामीण जीवन की गहरी मानवीय समझ।

अन्य उल्लेखनीय कहानियाँ
– रसप्रिया, ठेस, मारे गये गुलफाम, पंचलाईट, नैना जोगिन, लालपान की बेगम, पहलवान की ढोलक, संवदिया, अक्ल और भैंस, अग्निखोर, अच्छे आदमी आदि।

कविताएँ
– फणीश्वरनाथ रेणु ने कई कविताएँ भी लिखीं, जिनमें भावात्मक और प्राकृतिक प्रतिमाएँ समाहित हैं।

फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं में मुख्य आकर्षण ग्रामीण जीवनकरण, आंचलिक संस्कृति, लोकगीत, लोकनाटक एवं सामाजिक-राजनीतिक परिस्थिति की सजीव प्रस्तुति है। उनकी भाषा और शिल्प में स्थानीय बोली का उपयोग उनकी रचनाओं की प्रमुख विशेषता है जो पाठकों को उस क्षेत्र की वास्तविक अनुभूति कराता है।

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