द्विवेदी युग की प्रमुख विशेषता |
इस युग की कविता में विषय की दृष्टि से अपार वैविध्य एवं नवीनता आई। द्विवेदी जी के प्रयत्नो से खड़ी बोली काव्य की मुख्य भाषा बन गई।
डॉ अमाकांत
द्विवेदी युग की कविताओं में खड़ी बोली का प्रचलन प्रतिष्ठित में था। इस युग की जितने भी कवि लेखक एवं साहित्यकार थे वे सभी ब्रजभाषा को छोड़कर खड़ी बोली को अपना आया और उसी में अपनी लेख लिखें। इस युग में एक और खड़ी बोली को ब्रजभाषा के समक्ष काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठत किया गया दूसरी ओर विकसित चेतना के कारण कविता नई भूमि पर संचरण करने लगे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा एवं वात्सल्यमय प्रोत्साहन के परिणाम स्वरूप अनेक कवि सामने आए जो उन्हीं के आदर्शों को लेकर आगे बढ़ें। इस युग के महत्वपूर्ण कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय, श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी आदि का नाम उल्लेखनीय है। द्विवेदी युगीन कविता की मुख्य प्रवृत्तियां या विशेषता इस प्रकार है-
१ बढ़ती हुई
सांस्कृतिक पुनर्त्थान के परिणाम स्वरूप राष्ट्रीयता द्विवेदी युग की प्रधान भावधार थी। अंत: इस युग की कविता का मुख्य स्वर भी राष्ट्रीयता ही है। इस युग के प्राय: सभी कवियों ने देशभक्ति पूर्ण कविताओं का प्रणयन किया। उन्होंने पराधीनता को सबसे बड़ा अभिशाप बताया तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए क्रांतिकारी एवं आत्मा की प्रेरणा दी। रामनरेश त्रिपाठी अपने खंडकाव्य में परोक्ष रूप से परतंत्रता के बंधन काटने का संदेश देते हैं इस प्रकार की रचनाओं में गुप्त जी की ‘भारत भारती’ श्रेष्ठ और सशक्त रचना है। कितने विश्वास के साथ भारत भारती का भारतवर्ष की श्रेष्ठता की घोषणा करता है-
भूलोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला स्थान कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहां
– मैथिलीशरण गुप्त
२. नीति और आदर्श
द्विवेदी युगीन काव्य आदर्शवादी और नीतिपरक है। इतिहास पुराण से गृहीत कथा प्रसंगो के आधार पर अथवा कल्पनाश्रित कथाएं लेकर आदर्श प्रबंध अनेक काव्य लिखे गए सभी में असत्य पर सत्य की विजय है दिखाई गई स्वार्थ, त्याग, आत्मगौरव आदि कुछ आदर्शों की प्रेरणा दी गई है हरिऔध कृति प्रिया प्रवास, मैथिलीशरण गुप्त की साकेत, रंग में भंग, राम नरेश त्रिपाठी कृत मिलन आदि आदर्शवादी रचनाएं हैं इस प्रकार के पद्य लेखकों में महावीर प्रसाद द्विवेदी, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त आदि प्रमुख है प्रेम की महिमा निम्न पंक्तियों में व्यंजित है-
गंद विहीन फूल है जैसे चंद्र चंद्रिका हीन।
यों फीका है मनुष्य का जीवन प्रेम विहीन।।
– रामनरेश त्रिपाठी
३. वर्ण्य विषय का क्षेत्र विस्तार :-
द्विवेदी युग में वर्ण्य विषय का अद्भुत विस्तार हुआ। उसमें अपार वैविध्य और व्यापकत्व आया। अनेक नूतन विषयों को भी काव्य में स्थान मिला अनेक छोटे-छोटे साधारण विषयों पर कविताएं लिखी गई कोई ऐसा क्षेत्र नहीं रहा जिधर कवियों की दृष्टि न गई हो प्रकृति भी स्वतंत्र रूप से काव्य का विषय बनी मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, रामचंद्र शुक्ल, रामनरेश त्रिपाठी, गोपाल शरण सिंह आदि के काव्य में बड़ा मनोहारी प्रकृति चित्रण मिलता है यद्यपि द्विवेदी युगीन प्रकृति चित्रण में भी पर्याप्त स्थूलता है। कल्पना वैभव का अभाव है फिर भी उसमें यथार्थता एवं ताजगी है इस संदर्भ में निम्न कथन उल्लेखनीय हैं-
दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला।
-अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
४. हास्य व्यंग्य काव्य
भारतेंदु युग में जैसे जिंदादिली चालबाजी और फक्कड़पन इस युग में नहीं रह गया था। अतः उस युग के समान हास्य व्यंग्य पूर्ण कविता का प्रचूर्य त्रिवेदी युग में नहीं है। इस दिशा में जितना कुछ लिखा भी गया है वे द्विवेदी जी के व्यक्तित्व के प्रभाव से अपेक्षाकृत संयमित और मर्यादित है। हास्य और व्यंग्य के विषय राजनीतिक शोषण, सामाजिक कुरीतियां, धर्माडंबर, व्यभिचार आदि है। बाल मुकुंद गुप्त इस युग के सशक्त व्यंग्यकार हैं उन्होंने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन को अपने व्यंग्य और हास्य का प्रमुख विषय बनाया। एक बार कर्जन ने भारत वासियों को झूठा को लक्ष्य करके गुप्त जी ने तीखा प्रहार किया है
हमसे सच की सुनो कहानी जिससे मारे झूठ की नानी
सच है स्मरण देश की चीज तुमको उसकी कहां तमीज।
– बालमुकुंद गुप्त
पूर्व वती काव्य में असामान्य ईश्वर अवतार राजा सामंत या नायिकाओं आदमी को ही स्थान मिला था किंतु इस युग की कविता में सामान्य मानव को यह गौरव प्राप्त हुआ। मानव मात्रा के सुख-दुख और परिस्थितियों का वर्णन काव्य में बड़े ही सहज भाव से किया जाने लगा दीन हीन कृषक तथा विधवा के दुखों का भी बड़ी कारूणिक वर्णन इस काल के कवियों ने किया विधवाओं के कष्ट पूर्ण जीवन और शिक्षा विहीन नारियों की दुर्दशा की ओर भी इस युग के कवियों ने संकेत दिए हैं। वस्तुतः मानव सुलभ सहानुभूति ही इस प्रकार की कविताओं की प्रेरक भावना है इसी भावना से प्रेरित होकर हरिऔध नीम पंछियों की रचना की है-
आप आंखें खोल कर देखिए
आज जितनी जातियां है सिर धरे
पेट में उनकी पड़ी दिखलाएंगी
जातियां कितनी सिसकती या मारी।
– हरिऔध
६. सभी काव्य रूपों का प्रयोग
द्विवेदी युग में काव्य क्षेत्र में प्रचलित प्रबंध मुक्तक प्रगीत आदि सभी काव्य रूपों में रचना हुई। कथाश्रित काव्य रचना कवियों को अधिक सुगम प्रतीत हुई। प्रियप्रवास साकेत आदि महाकाव्यों का प्रणयन इसी युग में हुआ। हिंदी के अनेक श्रेष्ठ खंड काव्य भी इस काल में लिखे गए। मुक्तक रचना की ओर भी इस युग के कवि प्रवर्तक हुए। छोटे-छोटे विषयों को लेकर स्वतंत्र पदों की रचना वृहत परिमाण में हुई। द्विवेदी युग प्रगीतों का भी प्रणयन हुआ यद्यपि इस विधा का वास्तविक विकास तो द्विवेदी युग के बाद ही हुआ किंतु इस युग के कवियों ने भी इसे अपना लिया था निम्न पंक्तियां उल्लेखनीय है –
केवल मनोरंजन ना कवि का कर्म होना चाहिए
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।
मैथिलीशरण गुप्त
७. भाषा परिवर्तन
द्विवेदी युग में काव्य की मुख्य भाषा ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली बन गई। आज खड़ी बोली के भाषा सौंदर्य और अभिव्यंजना क्षमता के दर्शन के पश्चात इसकी काव्योपयुक्तता विवादास्पद नहीं रह गई है किंतु द्विवेदी काल के पूर्व ऐसी बात नहीं थी द्विवेदी युगीन काव्य ने इस क्षमता को निर्मल कर दिया यद्यपि आरंभ में खड़ी बोली काव्य नीरस तुकबंदी के अतिरिक्त कुछ नहीं था किंतु उसमें उत्तरोत्तर निखार आया। जयद्रत वक्त की प्रसिद्धि ब्रजभाषा के मोह का वध कर दिया। भारत भारती की लोकप्रियता विजय भारती सिद्ध हुई और काव्य की भाषा पूर्णतः खड़ी बोली हो गई निम्न पंक्तियां उल्लेखनीय है
प्रेम स्वर्ग है स्वर्ग प्रेम है प्रेम अशंक अशोक
ईश्वर का प्रतिबिंब प्रेम है प्रेम ह्रदय आलोक।
– रामनरेश त्रिपाठी
८.राष्ट्रीयता की भावना
द्विवेदी युग कि लगभग सभी कवियों ने देशभक्ति एवं राष्ट्रीय भावना से युक्त रचनाएं की जो स्वाभाविक रूप से उस युग की राजनीतिक चेतना एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान की भावना आरा का परिणाम था इनकी कविताओं में अंग्रेजी सत्ता के प्रति आक्रोश एवं भारत वासियों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करने वाला क्रांतिकारी स्वर है।
द्विवेदी युग के कवियों ने अपने काव्य में मानवतावाद को स्थान दिया है इस युग के कवियों ने सामान्य जनजीवन में अपनी रुचि दिखलाकर अपने मानवतावाद का परिचय दिया है।
१०.खड़ी बोली की प्रतिष्ठा
द्विवेदी युग में काव्य की मुख्य भाषा खड़ी बोली के रूप में प्रतिष्ठित होगी अब तक जो खड़ी बोली भारतेंदु युग में गद्य के क्षेत्र में ही प्रयोग की जा रही थी, वह द्विवेदी युग में आकर गद्य एवं पद्य दोनों के लिए समान रूप से उपयोगी हो गई। द्विवेदी जी के पर्यटन से ही अव्यवस्थित खड़ी बोली परिमार्जित हुई।
११.श्रृंगार के विकृत रूप का बहिष्कार
प्रीति युगीन काव्य प्रवृत्तियों के अनुवर्तन के कारण श्रृंगार का जो रूप भारतेंदु युग में अपनाया गया था वह द्विवेदी युगीन कवियों के लिए ग्राह्य न था। उन्होंने श्रृंगार स्वच्छ एवं सुंदर रूप को की काव्य विषय बनाने पर जोर दिया।
१२.प्रकृति चित्रण
द्विवेदी युगीन काव्य ने अपने काव्य में प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण किया है। प्रकृति आलंबन, उद्दीपन एवं वातावरण निर्माण आदि रूपों का मनोहारी वर्णन इनके काव्य में मिलता है।
१३.छंद विधान
भाषा के अतिरिक्त छंद तथा भाव के क्षेत्र में भी परिवर्तन हुआ। कवित्त, सवैया जैसे पुराने छंदों का बहिष्कार इस युग में किया गया और संस्कृत छंदों को अपनाया गया। कुछ नये छंद भी प्रयोग में लाए गए।
निष्कर्ष
भारतेंदु युग में राज भक्ति और देश भक्ति के साथ समाज सुधार की कविता होती थी। साथ ही काव्य की भाषा ब्रज भाषा थी और गद्य की भाषा खड़ी बोली पर द्विवेदी युग की कविता राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता है इस युग की राष्ट्रीयता संप्रदायिकता और प्रांतीयता से उपर अति उदार और व्यापक राष्ट्रीयता है मातृभूमि के लिए सर्वस्व बलिदान स्वार्थ त्याग तथा पारस्पारीक वैषभ्य को दूर करने की अमूर्त प्रेरणा देकर इन कवियों ने राष्ट्रीय भावना को विकसित किया तथा तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन को बल प्रदान किया। जहां उन्होंने सामाजिक कुरीतियों धार्मिक आडंबर ओ तथा निरर्थक रुढ़ियों पर जोरदार प्रहार किए वहां अपनी परंपरा के उपयोगी तत्वों का सबल समर्थन और पोषण भी किया इस युग की कविता का संस्कृतिक पक्ष अत्यंत सबल है उसी में इसकी शक्ति निहित है निम्न कथन उल्लेखनीय हैं
द्विवेदी युग का काव्य छायावाद के मार्ग पर चलता है
विश्वनाथ त्रिपाठी