भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय : हिन्दी गद्य के जन्मदाता

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय लिखिए ॥ Bhartendu Harishchandra Jivan Parichay Hindi 

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय लिखिए ॥ Bhartendu Harishchandra Jivan Parichay Hindi 

जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, संवत् १६०७ (9 सितम्बर 1850) को काशी में हुआ। वे काशी के प्रसिद्ध सेठ अमीचन्द के वंशज थे। उनके पूर्वज दिल्ली के शाही घराने से संबंध रखते थे। सं. १८१६ में इस वंश के श्री फतहचन्द काशी में स्थायी रूप से आकर बसे। भारतेन्दु जी के पिता का नाम गोपालचन्द्र था, जो ब्रजभाषा के कवि और गिरधरदास उपनामधारी थे। माता का नाम पार्वती देवी था।

भारतेन्दु जी की बाल्यावस्था दुखद घटनाओं से भरी रही। मात्र पाँच वर्ष की आयु में ही उनके पिता ने उनके साहित्यिक प्रतिभा का परिचय देख लिया था। भारतेन्दु ने पाँच वर्ष की अवस्था में अपने पिता को एक स्वरचित दोहा सुनाया, जो उनकी असाधारण प्रतिभा का परिचायक था। उनके माता-पिता का अल्पायु में निधन हो गया, फिर भी उन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी अपनी शिक्षा जारी रखी।

शिक्षा और प्रारंभिक अध्ययन

भारतेन्दु जी ने आरम्भिक शिक्षा काशी स्थित क्वींस-कॉलेज में प्राप्त की। इसके साथ ही स्वाध्याय के माध्यम से उन्होंने हिन्दी, अंग्रेज़ी, उर्दू, बंगला, गुजराती और मराठी सहित अनेक भाषाओं का अध्ययन किया। बाल्यावस्था से ही उनकी प्रतिभा का प्रदर्शन हुआ और वे विभिन्न भाषाओं में दक्षता प्राप्त कर चुके थे।

उनकी शिक्षा के साथ-साथ यात्राओं ने भी उनके व्यक्तित्व और ज्ञान को व्यापक रूप से प्रभावित किया। उन्होंने जगन्नाथपुरी, बुलंदशहर, कुचेसर, कानपुर, लखनऊ, सहारनपुर, मंसूरी, हरिद्वार, अमृतसर, आगरा, ब्रज और पुष्कर जैसी जगहों की यात्रा की। इन यात्राओं से उन्हें समाज, संस्कृति और जीवन की विविधताओं का गहन अनुभव प्राप्त हुआ।

साहित्यिक योगदान और पत्रकारिता

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी साहित्य के महान साहित्यकार, नाटककार, गद्यकार और पत्रकार थे। उन्होंने हिन्दी गद्य का रूप विकसित करने में अत्यधिक योगदान दिया। उन्होंने काशी में हरिश्चन्द्र विद्यालय की स्थापना की और पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। उनके संपादित प्रमुख पत्र-पत्रिकाएँ हैं—कवि वचन सुधा और हरिश्चन्द्र मैगजीन। इन माध्यमों से उन्होंने समाज में जागरूकता फैलाने के साथ-साथ साहित्य और संस्कृति के संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारतेन्दु जी का साहित्यिक मण्डल अत्यंत प्रभावशाली था। उनके मण्डल में ठा० जगमोहनसिंह, प्रेमघन, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी जैसे कवि एवं लेखक शामिल थे। मण्डल का उद्देश्य साहित्य की उच्च गुणवत्ता और हिन्दी भाषा के संवर्धन की दिशा में कार्य करना था।

गद्यकार भारतेन्दु

भारतेन्दु जी हिन्दी गद्य को उसके वर्तमान स्वरूप में ढालने वाले पहले लेखक माने जाते हैं। उनके पूर्व भी हिन्दी खड़ी बोली में लेखन हो चुका था, परंतु उनका स्वरूप अस्पष्ट और व्यावहारिक रूप में परिपक्व नहीं था।

उनके समय में गद्य लेखन दो धारा में विभाजित था—राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ और राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ की उर्दू-फारसी मिश्रित भाषा। भारतेन्दु जी ने इन दोनों के मध्य की व्यावहारिक खड़ी बोली को अपनाया, जो आज हिन्दी गद्य का आधार बनी। उन्होंने नाटक, उपन्यास, यात्रा वृतांत और निबंध आदि में इस भाषा का प्रयोग किया। उनकी भाषा में सरलता, माधुर्य और भाव की अभिव्यक्ति सहज दिखाई देती है।

नाटककार भारतेन्दु

भारतेन्दु जी ने हिन्दी नाट्य साहित्य को नई दिशा दी। उनके पूर्व हिन्दी नाटक साहित्य में नाटकीयता की कमी थी। रामलीला और कृष्णलीला जैसी पारंपरिक प्रस्तुतियों में संवाद और अभिनय सीमित थे।

भारतेन्दु जी ने नाट्यकला के सिद्धान्तों के अनुरूप नाटक, नाटिका, भाण और प्रहसन की रचना की। उनके नाटकों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:

मौलिक नाटक:

  • सत्य हरिश्चन्द्र
  • चन्द्रावली
  • नील देवी
  • भारत दुर्दशा
  • अंधेर नगरी
  • वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति
  • विषस्य विषमौषधम्
  • सती प्रताप
  • प्रेम योगिनी

अनूदित नाटक:

  • मुद्रा राक्षस
  • धनंजय विजय
  • चन्द्रावली नाटिका
  • कर्पूर मंजरी
  • विद्या सुंदर
  • भारत-जननी
  • पाखण्ड विडम्बना
  • दुर्लभ बन्धु

उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य नाट्य प्रणालियों का समन्वय कर नाटकों में सूत्रधार, प्रोलाग और नान्दी जैसी तकनीकों का उपयोग किया। वे स्वयं अभिनेता भी थे और उनके अभिनय से नागरिकों में नाट्यप्रति रुचि उत्पन्न हुई।

निबन्धकार भारतेन्दु

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी साहित्य के प्रख्यात निबन्धकार भी थे। उनके निबन्ध विषयों और शैली के आधार पर विभाजित किए जा सकते हैं:

  1. विचारप्रधान निबन्ध:
    • स्वामी दयानन्द का समय
    • हिन्दी में नाटक
    • काल-चक्र
  1. वर्णनात्मक निबन्ध:
    • यात्रा सम्बन्धी निबन्ध
  2. कथात्मक निबन्ध:
    • मदालसा
    • सुलोचना
    • कुछ आप बीती कुछ जग बीती
  1. कल्पना पूर्ण निबन्ध:
    • एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न

उनके निबन्धों में सरलता, भावाभिव्यक्ति, व्यंग्य और हास्य का संतुलित प्रयोग मिलता है।

कविता और भाषा शैली

भारतेन्दु जी ने कविता में ब्रजभाषा को स्वीकार किया, जबकि खड़ी बोली को कविता में अनुपयुक्त माना। गद्य में उन्होंने खड़ी बोली को व्यावहारिक रूप में अपनाया। उनके गद्य में न तो संस्कृत-तत्सम शब्दों की अधिकता थी, न ही अरबी-फारसी के अप्रचलित शब्द।

उनकी भाषा में लोकोक्तियों, मुहावरों और विविध स्थलों के स्थानीय प्रयोग भी दिखाई देते हैं। उदाहरण स्वरूप, चन्द्रावली में उन्होंने प्राकृतिक दृश्य का चित्रण बड़े प्रभावशाली ढंग से किया:

“सखी सचमुच आज तो इस कदम्ब के नीचे रंग बरस रहा है। जैसी समाँ बँधी है वैसी ही झूलने वाली हैं। झूलने में रंग-रंग की साड़ी की अर्द्ध चन्द्रकार रेखा इन्द्रधनुष की छवि दिखलाती है।”

इसके अतिरिक्त, वे व्याकरण-विरुद्ध प्रयोगों से बचते हुए भाषा की सहजता बनाए रखते थे।

भाषा की चार प्रमुख शैलियाँ

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने गद्य साहित्य में विषय-वस्तु और पात्र की प्रकृति के अनुसार विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया, जिनमें चार प्रमुख शैलियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पहली है परिचयात्मक शैली, जिसकी विशेषता सरल, सहज और सुबोध भाषा है। इसका उपयोग उन्होंने इतिहास, चरित्र-चित्रण और परिचयात्मक लेखन में किया। दूसरी है भावात्मक शैली, जिसमें नाटकों तथा रचनाओं के माध्यम से पात्रों के मनोविकारों, भावनाओं और काव्यात्मक सौंदर्य की अभिव्यक्ति होती है। तीसरी है विचारात्मक अथवा गवेषणात्मक शैली, जिसमें साहित्यिक, सामाजिक और ऐतिहासिक निबंधों के माध्यम से गंभीर चिंतन, तर्क और विश्लेषण प्रस्तुत किए जाते हैं। इस शैली में संस्कृत-गर्भित शब्दों और गूढ़ दार्शनिक विचारों का प्रयोग प्रमुखता से दिखाई देता है। चौथी है व्यंग्यात्मक शैली, जिसका उपयोग भारतेन्दु ने समाज में व्याप्त कुरीतियों, पाखंडों और अंधविश्वासों पर प्रहार करने के लिए किया। इसमें हास्य और व्यंग्य का संतुलित मेल मिलता है, जिससे उनके निबंध न केवल मनोरंजक बनते हैं बल्कि समाज सुधार का सशक्त संदेश भी देते हैं। इन चारों शैलियों के प्रयोग से उनके गद्य में विविधता, प्रभावशीलता और साहित्यिक परिपक्वता का विकास हुआ, जो उन्हें आधुनिक हिंदी गद्य का जनक सिद्ध करता है।

गद्य, नाटक और निबन्ध में योगदान

भारतेन्दु जी ने हिन्दी गद्य, नाटक और निबन्ध में अमूल्य योगदान दिया। उन्होंने गद्य को सरल, प्रभावशाली और व्यावहारिक बनाया। नाटक और निबन्ध में उन्होंने भारतीय संस्कृति, समाज और राजनीति के विभिन्न पक्षों को उजागर किया। उनकी रचनाएँ केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता और राष्ट्रप्रेम की दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान हैं।

उनके नाटकों ने भारतीय रंगमंच को स्थायी प्रतिष्ठा दी और उन्होंने भारतीय नाट्यकला के सिद्धान्तों का समावेश करते हुए पाश्चात्य नाट्य तकनीकों का प्रयोग किया। निबन्धों में उनका विचार, हास्य और व्यंग्य समाज सुधार में सहायक बने।

हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का स्थान

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी साहित्य में युग निर्माता साहित्यकार के रूप में सर्वोच्च स्थान रखते हैं। उन्हें “हिन्दी गद्य का जनक” कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने हिन्दी भाषा को गद्य की एक परिष्कृत, सशक्त और अभिव्यंजक भाषा का रूप प्रदान किया। आधुनिक हिन्दी साहित्य की समृद्ध परंपरा का आरम्भ उनके ही साहित्यिक प्रयासों से हुआ। उन्होंने न केवल गद्य को साहित्यिक गरिमा दी, बल्कि नाटक, निबंध, यात्रा-वृत्तांत, पत्र, पत्रकारिता और आलोचना जैसी अनेक विधाओं का शुभारम्भ कर हिन्दी साहित्य को बहुआयामी और समृद्ध बनाया।

भारतेन्दु केवल एक लेखक नहीं, बल्कि हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक और उसकी उन्नति के सच्चे साधक थे। उनका विश्वास था कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति उसके जनों की मातृभाषा की उन्नति पर ही निर्भर करती है। इसीलिए उन्होंने कहा—

“निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिनु निजभाषा ज्ञान के मिटे न हिय को सूल।।”

साहित्यकार सुमित्रानन्दन पन्त ने भी उनके योगदान को स्वीकारते हुए लिखा है—

“भारतेन्दु कर गए भारती की वीणा निर्माण,
किया अमर स्पर्शों ने जिसका बहुविध स्वर संधान।।”

भारतेन्दु जी की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे लेखक, कवि, नाटककार, आलोचक, पत्रकार और समाज-सुधारक — सब रूपों में हिन्दी के उत्थान के लिए समर्पित रहे। उन्होंने जिस मजबूत नींव पर हिन्दी साहित्य का भवन खड़ा किया, वही आज आधुनिक हिन्दी साहित्य की गौरवशाली इमारत का आधार है। इस प्रकार, हिन्दी भाषा और साहित्य को नई दिशा देने में उनका योगदान युगप्रवर्तक और अविस्मरणीय है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कृतियाँ

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने बहुमुखी साहित्यिक व्यक्तित्व से हिन्दी साहित्य को अत्यंत समृद्ध किया। उन्होंने काव्य, कथा, नाटक, निबंध, यात्रा-वृत्तांत, जीवनी और अनुवाद—सभी विधाओं में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी कृतियाँ न केवल साहित्यिक दृष्टि से मूल्यवान हैं, बल्कि उनमें समाज-सुधार, राष्ट्रभक्ति और जनजागरण का स्वर भी गूंजता है। उनकी प्रमुख कृतियों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है—

१. काव्य-संग्रह

भारतेन्दु ने अपने काव्य में प्रेम, भक्ति और राष्ट्रभावना का सशक्त चित्रण किया। उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं—

  • प्रेम सरोवर
  • प्रेम तरंग
  • भक्त-सर्वस्व
  • भारत-वीणा
  • सतसई-शृंगार
  • प्रेम-प्रलाप
  • प्रेम-फुलवारी
  • वैजयन्ती आदि।

२. कथा-साहित्य

उन्होंने कथा साहित्य को भी जीवन्त और रोचक बनाया। उनकी प्रमुख कथाएँ हैं—

  • मदालसोपाख्यान
  • हमीर हठ
  • सावित्री चरित्र
  • कुछ आप बीती, कुछ जग बीती आदि।

३. निबंध-संग्रह

भारतेन्दु ने अपने निबंधों में व्यंग्य, परिहास, तर्क और सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत किया। उनके निबंध संग्रह इस प्रकार हैं—

  • सुलोचना
  • परिहास वंचक
  • लीलावती
  • दिल्ली दरबार दर्पण
  • मदालसा

४. यात्रा-वृत्तांत

यात्राओं के माध्यम से उन्होंने समाज और संस्कृति का गहन चित्रण किया। प्रमुख यात्रा-वृत्तांत हैं—

  • सरयूपार की यात्रा
  • लखनऊ की यात्रा

५. जीवनियाँ

भारतेन्दु ने अनेक महापुरुषों की जीवनियाँ भी लिखीं—

  • सूरदास की जीवनी
  • जयदेव
  • महात्मा मुहम्मद

६. नाटक

भारतेन्दु का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान नाटक विधा में है। उन्होंने हिन्दी नाट्य साहित्य को नई दिशा दी।

(क) मौलिक नाटक

  • सत्य हरिश्चन्द्र
  • नील देवी
  • श्री चन्द्रावली
  • भारत दुर्दशा
  • अन्धेर नगरी
  • वैदिकी मिति
  • पण विषमाम्
  • सती प्रताप
  • प्रेम योगिनी

(ख) अनूदित नाटक

  • विधा सुन्दर
  • धुन्ध
  • नाव
  • मुद्राराक्षस
  • भारत जनः
  • पाखण्ड विडम्बन
  • कर्पूरमंजरी
  • धनंजय विजय

इस प्रकार, भारतेन्दु की रचनाएँ विषय-विविधता, गहन सामाजिक सरोकारों और साहित्यिक मौलिकता से परिपूर्ण हैं। उनकी कृतियों ने हिन्दी साहित्य को आधुनिक स्वरूप प्रदान किया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में अहम भूमिका निभाई।

अंतिम समय और मृत्यु

माघ कृष्ण ६, संवत् १९४१ को मात्र ३४ वर्ष की अल्पायु में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का देहावसान हुआ। उनके निधन पर सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य जगत शोकाकुल हो उठा। उनके अंतिम दर्शन और विदाई में साहित्यिक, सामाजिक और नागरिक वर्ग ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें सम्मानित किया।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन अल्प था, किन्तु उनकी रचनाएँ और योगदान अमर हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य को जो स्वरूप दिया, वह आज भी मार्गदर्शक है। उनके नाटक, गद्य और निबन्ध साहित्य में भारतीयता, सरलता और व्यावहारिकता का प्रतीक बने।

निष्कर्ष

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र न केवल हिन्दी साहित्य के जन्मदाता थे, बल्कि समाज सुधारक, राष्ट्रवादी और शिक्षाविद् भी थे। उन्होंने गद्य, नाटक, निबन्ध और पत्रकारिता के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान दिया। उनकी भाषा सरल, माधुर्यपूर्ण और प्रभावशाली थी। उन्होंने हिन्दी साहित्य को उसकी वर्तमान स्थिति तक पहुँचाया और आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

भारतेन्दु जी की अल्पायु में ही प्राप्त उपलब्धियों ने उन्हें भारतीय साहित्य के इतिहास में एक अमर स्थान दिलाया। उनके प्रयासों और रचनाओं के लिए हम सभी भारतवासी सदैव नतमस्तक रहेंगे।

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