शिक्षा मनोविज्ञान का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान बताइए

शिक्षा मनोविज्ञान का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान ॥ Contribution of Educational Psychology in the Field of Education

शिक्षा मनोविज्ञान का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान ॥ Contribution of Educational Psychology in the Field of Education

“The teacher needs psychology to bridge the lives of the young and the aims of education in our democratic society.”
Skinner

शिक्षा-मनोविज्ञान (Educational Psychology) वह विज्ञान है, जो शिक्षा और अधिगम (Learning) की प्रक्रिया को समझने में मदद करता है। यह व्यक्ति के व्यवहार, उसकी मानसिक प्रवृत्तियों, रुचियों, आवश्यकताओं, स्मृति, अवधान और व्यक्तित्व का अध्ययन करके शिक्षण-प्रक्रिया को अधिक प्रभावी बनाने का मार्ग दिखाता है। प्राचीन काल में जब शिक्षा केवल विषय-प्रधान और अध्यापक-प्रधान थी, तब बालकों की वास्तविक आवश्यकताओं, उनकी मानसिक दशा और रुचियों को अनदेखा कर दिया जाता था। परिणामस्वरूप शिक्षा का उद्देश्य अधूरा रह जाता था। परंतु आधुनिक युग में शिक्षा-मनोविज्ञान ने इस कमी को दूर किया और शिक्षा क्षेत्र में कई क्रांतिकारी परिवर्तन लाए।

शिक्षा-मनोविज्ञान का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान निम्नलिखित रूपों में समझा जा सकता है—

(i) बाल-केन्द्रित शिक्षा (Child-Centred Education)

आधुनिक शिक्षा का मूल सिद्धांत है कि बालक शिक्षा का केंद्र है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली में ध्यान विषय और अध्यापक पर था, परंतु आज मनोविज्ञान ने यह सिद्ध किया कि शिक्षा बालक की रुचियों, आवश्यकताओं और क्षमताओं के अनुरूप होनी चाहिए। जॉन एडम्स का कथन है—
“अध्यापक को केवल विषय नहीं जानना चाहिए, बल्कि उस विद्यार्थी को भी जानना चाहिए, जिसे वह पढ़ाता है।”
इस प्रकार शिक्षा अब केवल ज्ञान का हस्तांतरण नहीं, बल्कि बालक के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया है।

(ii) पाठ्यचर्या का निर्माण (Curriculum Development)

पाठ्यचर्या का निर्माण (Curriculum Development) प्राचीन समय में केवल विषयों की एक साधारण सूची भर हुआ करता था, जिसमें न तो बालक की रुचियों पर ध्यान दिया जाता था और न ही उसकी मानसिक आवश्यकताओं को महत्व दिया जाता था। शिक्षा-मनोविज्ञान ने यह सिद्ध किया कि पाठ्यक्रम को बालक की आयु, मानसिक विकास, रुचि तथा भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना आवश्यक है। साथ ही, विभिन्न शैक्षिक स्तरों पर बालक की बौद्धिक, भावनात्मक और सामाजिक आवश्यकताओं के आधार पर विषयों का चयन किया जाना चाहिए। यही कारण है कि आधुनिक पाठ्यचर्या अब केवल ज्ञानार्जन तक सीमित न रहकर बालकों के सर्वांगीण विकास का साधन बन गई है और उन्हें जीवन के practically (व्यावहारिक) पक्षों के लिए भी तैयार करती है।

(iii) अनुशासन की नई परिभाषा (Redefining Discipline)

अनुशासन की नई परिभाषा (Redefining Discipline) के अंतर्गत शिक्षा में पहले जहाँ अनुशासन का अर्थ कठोरता और दंड से जोड़ा जाता था तथा “छड़ी के बिना शिक्षा अधूरी है” जैसी धारणाएँ प्रचलित थीं, वहीं शिक्षा-मनोविज्ञान ने यह सिद्ध किया कि वास्तविक अनुशासन का आधार दंड नहीं, बल्कि प्रेम, सहानुभूति और लोकतांत्रिक वातावरण है। आज के संदर्भ में अनुशासन का अर्थ विद्यार्थियों में आत्म-अनुशासन विकसित करना है, ताकि वे स्वयं सही और गलत का विवेक कर सकें। शिक्षक का स्नेहपूर्ण और सहृदय व्यवहार न केवल विद्यार्थियों में अनुशासन को सुनिश्चित करता है, बल्कि उन्हें जिम्मेदार, संवेदनशील और आत्मनिर्भर नागरिक बनने की दिशा में भी मार्गदर्शन प्रदान करता है।

(iv) सीखने की प्रक्रिया (Process of Learning)

सीखने की प्रक्रिया (Process of Learning) को मनोविज्ञान ने केवल रटने (Rote Learning) तक सीमित नहीं माना, बल्कि इसे समझने, अनुभव करने और व्यवहार में प्रयोग करने की एक सतत प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया है। विभिन्न शिक्षण-सिद्धांतों जैसे व्यवहारवाद, संज्ञानवाद और निर्माणवाद ने यह स्पष्ट किया कि अधिगम तभी प्रभावी होता है जब विद्यार्थी सक्रिय रूप से उसमें भाग लेता है, ज्ञान को अपने अनुभवों से जोड़ता है और उसे वास्तविक जीवन में लागू करता है। इस प्रकार, सीखना केवल जानकारी प्राप्त करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह बौद्धिक, भावनात्मक और सामाजिक विकास का आधार बनकर विद्यार्थियों के व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है।

(v) शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)

शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) पहले मुख्यतः व्याख्यान पद्धति (Lecture Method) पर आधारित थीं, जिसमें विद्यार्थियों की सक्रिय भागीदारी न के बराबर होती थी और शिक्षा एक नीरस प्रक्रिया बन जाती थी। शिक्षा-मनोविज्ञान ने इस परंपरा को बदलते हुए कई नई शिक्षण पद्धतियाँ प्रस्तुत कीं, जैसे किंडरगार्टन पद्धति, मोंटेसरी पद्धति, प्रोजेक्ट पद्धति तथा गतिविधि-आधारित शिक्षण (Activity Based Learning)। इन पद्धतियों के माध्यम से शिक्षण अब अधिक बालक-केंद्रित, रोचक और प्रभावी हो गया है। कठिन और अरुचिकर माने जाने वाले विषय, जैसे गणित और इतिहास, भी अब खेल, गतिविधियों और प्रयोगों के द्वारा सरल एवं रुचिकर रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। इस प्रकार, आधुनिक शिक्षण विधियाँ न केवल विद्यार्थियों की जिज्ञासा को संतुष्ट करती हैं, बल्कि उनके सर्वांगीण विकास में भी सहायक सिद्ध होती हैं।

(vi) स्मृति और अवधान (Memory and Attention)

स्मृति और अवधान (Memory and Attention) के संबंध में शिक्षा-मनोविज्ञान ने यह स्पष्ट किया है कि अधिगम की सफलता में स्मृति की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि जो भी ज्ञान अर्जित किया जाता है, वह स्मृति में सुरक्षित रहकर आगे के जीवन में प्रयोग के योग्य बनता है। साथ ही, अवधान का सीखने से गहरा संबंध है और यह तभी संभव है जब बालक उस विषय में रुचि ले। यदि शिक्षक शिक्षण सामग्री को रोचक, आकर्षक और बालकों की आवश्यकताओं के अनुरूप प्रस्तुत करता है, तो उनका अवधान स्वाभाविक रूप से केंद्रित हो जाता है। इस प्रकार स्मृति और अवधान दोनों ही अधिगम की प्रक्रिया के आधारभूत स्तंभ हैं, जो शिक्षा को प्रभावी और सार्थक बनाते हैं।

(vii) वैयक्तिक भेद और निर्देशन (Individual Difference and Guidance)

वैयक्तिक भेद और निर्देशन (Individual Difference and Guidance) के संदर्भ में शिक्षा-मनोविज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि प्रत्येक बालक की बुद्धि, रुचि, क्षमता और व्यक्तित्व एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। प्राचीन समय में यह मानना असंभव माना जाता था कि अलग-अलग विद्यार्थियों को उनकी योग्यता और रुचि के अनुसार शिक्षा दी जाए, किंतु आज यह शिक्षा का आवश्यक आधार बन चुका है। अब शिक्षा को बालक की व्यक्तिगत क्षमताओं और आवश्यकताओं के अनुरूप ढालना जरूरी समझा जाता है। बुद्धि-परीक्षण और अन्य मनोवैज्ञानिक परीक्षणों की सहायता से विद्यार्थियों की क्षमता और रुचि को पहचानना सरल हो गया है, जिसके आधार पर उन्हें उचित मार्गदर्शन प्रदान किया जा सकता है। यही कारण है कि आधुनिक शिक्षा में करियर गाइडेंस और व्यावसायिक निर्देशन एक अनिवार्य अंग बन गए हैं, जो न केवल विद्यार्थियों की संभावनाओं को दिशा देते हैं, बल्कि उन्हें जीवन में उचित लक्ष्य चुनने और सफलता प्राप्त करने में भी सहायक सिद्ध होते हैं।

(viii) पाठ्य सहगामी क्रियाएँ (Co-Curricular Activities)

पाठ्य सहगामी क्रियाएँ (Co-Curricular Activities) शिक्षा-मनोविज्ञान के अनुसार शिक्षा को केवल पुस्तकों और कक्षाओं तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए विभिन्न सहगामी गतिविधियों को भी अनिवार्य रूप से शामिल करना चाहिए। खेल-कूद, वाद-विवाद प्रतियोगिता, नाटक, छात्र संघ, स्काउट-गाइड जैसी गतिविधियाँ न केवल विद्यार्थियों की छिपी हुई प्रतिभाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करती हैं, बल्कि उनमें आत्मविश्वास, सामाजिक सहयोग, टीम भावना और नेतृत्व क्षमता का भी विकास करती हैं। इन क्रियाओं के माध्यम से विद्यार्थी व्यवहारिक जीवन के लिए अधिक सक्षम बनते हैं और उनका व्यक्तित्व संतुलित, सशक्त तथा पूर्ण रूप से विकसित होता है।

(ix) समस्यात्मक बालक (Problematic Children)

समस्यात्मक बालक (Problematic Children) के संदर्भ में शिक्षा-मनोविज्ञान ने यह स्पष्ट किया है कि कोई भी बालक जन्म से समस्या-ग्रस्त नहीं होता, बल्कि उसकी समस्याएँ परिवार, सामाजिक वातावरण या विद्यालयीय परिस्थितियों से उत्पन्न होती हैं। असामाजिक व्यवहार, अनुशासनहीनता, पलायन, चोरी, जुआ जैसी प्रवृत्तियाँ वास्तव में किसी गहरे मनोवैज्ञानिक कारण की ओर संकेत करती हैं। ऐसे बालकों को दंडित करने के बजाय उन्हें समझदारी, सहानुभूति और उचित परामर्श (Counselling) की आवश्यकता होती है, ताकि उनकी समस्याओं के मूल कारण को समझकर उनका समाधान किया जा सके। इसी कारण आज अधिकांश विद्यालयों में काउंसलिंग और मनोवैज्ञानिक सहायता की व्यवस्था की जाती है, जिससे समस्यात्मक बालक भी सकारात्मक दिशा में अग्रसर होकर समाज के उपयोगी सदस्य बन सकें।

(x) वातावरण का महत्व (Importance of Environment)

वातावरण का महत्व (Importance of Environment) शिक्षा-मनोविज्ञान के अनुसार बालक के विकास में केवल वंशानुगति (Heredity) ही नहीं, बल्कि वातावरण की भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विद्यालय, घर और समाज का अनुकूल और सकारात्मक वातावरण बालक के मानसिक स्वास्थ्य, बौद्धिक विकास और व्यक्तित्व निर्माण के लिए आवश्यक है। जब बालक अनुशासित, सहयोगात्मक और प्रोत्साहनपूर्ण वातावरण में शिक्षा प्राप्त करता है, तो उसका सीखने का उत्साह बढ़ता है और शिक्षा अधिक प्रभावी एवं सार्थक सिद्ध होती है। इस प्रकार, वातावरण शिक्षा की सफलता और बालक के सर्वांगीण विकास में एक निर्णायक कारक के रूप में कार्य करता है।

निष्कर्ष (Conclusion)

शिक्षा-मनोविज्ञान ने शिक्षा को अध्यापक-प्रधान और विषय-प्रधान दृष्टिकोण से निकालकर बालक-प्रधान दृष्टिकोण प्रदान किया है। इसने पाठ्यचर्या, अनुशासन, शिक्षण विधियों, अधिगम प्रक्रिया, वैयक्तिक भेद, सहगामी क्रियाओं और वातावरण की भूमिका को स्पष्ट कर शिक्षा को वैज्ञानिक और मानवीय आधार प्रदान किया है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि—
“शिक्षा-मनोविज्ञान वह सेतु है, जो शिक्षक को विद्यार्थियों की आवश्यकताओं से जोड़कर शिक्षा के उद्देश्यों को सफल बनाता है।”

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