विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के सुझाव, राधाकृष्णन कमीशन बी एड नोट्स

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के सुझाव, राधाकृष्णन कमीशन बी एड नोट्स Vishwavidyalaya Shiksha Aayog 1948-49

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के सुझाव, राधाकृष्णन कमीशन बी एड नोट्स Vishwavidyalaya Shiksha Aayog 1948-49

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-49) का परिचय

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर प्रगति की, विशेष रूप से विश्वविद्यालयी शिक्षा में। परंतु यह विकास मात्र सांख्यिकीय था, गुणात्मक नहीं। आज़ादी के पश्चात जब विश्वविद्यालयों में छात्रों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी, तब यह स्पष्ट हुआ कि तत्कालीन शिक्षा प्रणाली एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक राष्ट्र की ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ है। शिक्षा का स्तर धीरे-धीरे गिरता गया और यह व्यवस्था सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय लक्ष्यों से कटती चली गई।

वास्तविक ज्ञान और नवाचार के स्थान पर शिक्षा केवल परीक्षा पास कर डिग्रियाँ प्राप्त करने का माध्यम बनकर रह गई थी। इससे न केवल विद्यार्थी निराश थे, बल्कि समाज में भी शिक्षा की उपयोगिता को लेकर संशय उत्पन्न होने लगा। ऐसे माहौल में उच्च शिक्षा की रूपरेखा को फिर से गढ़ने की आवश्यकता सामने आई — एक ऐसी व्यवस्था जो भारत की स्वतंत्रता के मूल्यों, विकास के सपनों और युवाओं की संभावनाओं से मेल खा सके।

इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए अन्तर्विश्वविद्यालय शिक्षा परिषद और केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने भारत सरकार को सुझाव दिया कि एक अखिल भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की स्थापना की जाए, जो उच्च शिक्षा के सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाए।

भारत सरकार ने इस सुझाव को गंभीरता से स्वीकार किया और 4 नवम्बर, 1948 को एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया। इस आयोग की बागडोर देश के महान शिक्षाविद्, दार्शनिक और आगे चलकर भारत के राष्ट्रपति बने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को सौंपी गई। आयोग के सचिव पद पर नियुक्त हुए प्रोफेसर निर्मल कुमार सिद्धान्त, जो लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के विद्वान और कला संकाय के डीन थे।

यह आयोग प्रतिभाओं का संगम था। इसके प्रमुख सदस्यों में सम्मिलित थे— डॉ. ज़ाकिर हुसैन (उपकुलपति, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय), डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुदालियर (मद्रास विश्वविद्यालय), डॉ. आर्थर मॉर्गन (कम्युनिटी सर्विस के प्रेसिडेंट), डॉ. जेम्स एफ. डफ (डरहम विश्वविद्यालय), प्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक डॉ. मेघनाद साहा (कलकत्ता विश्वविद्यालय), डॉ. कर्म नारायण बहल और इतिहासकार डॉ. तारा चंद्र।

इस आयोग की स्थापना ने भारतीय उच्च शिक्षा को एक नई दिशा दी और यह समझाने की कोशिश की कि शिक्षा केवल जानकारी नहीं, बल्कि राष्ट्रीय निर्माण का आधार होती है।

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के उद्देश्य

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत को केवल राजनीतिक आज़ादी ही नहीं मिली थी, बल्कि अपने समूचे शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को पुनर्संगठित करने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी मिली थी। इस संदर्भ में, शिक्षा प्रणाली को लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक और मानवतावादी मूल्यों पर आधारित बनाना अत्यावश्यक था। भारत सरकार द्वारा 1948 में स्थापित विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का उद्देश्य एक ऐसी उच्च शिक्षा प्रणाली की नींव रखना था जो न केवल भारत की तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे, बल्कि भविष्य के समृद्ध राष्ट्र का मार्ग भी प्रशस्त करे।

इस आयोग के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे:

1. स्वतंत्र भारत के लिए एक उपयुक्त, समावेशी और भविष्य उन्मुख उच्च शिक्षा प्रणाली की रूपरेखा तैयार करना

स्वतंत्रता के बाद भारतीय समाज में जो परिवर्तन हो रहे थे, वे एक नई प्रकार की शिक्षा प्रणाली की मांग कर रहे थे। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का सबसे बड़ा उद्देश्य था— एक ऐसी व्यापक, बहुआयामी और विकासपरक उच्च शिक्षा प्रणाली का निर्माण करना, जो भारतीय संस्कृति, लोकतांत्रिक मूल्यों और राष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों के साथ तालमेल बैठा सके। इस प्रणाली को केवल अकादमिक ज्ञान तक सीमित न रखते हुए उसे सामाजिक न्याय, आर्थिक सशक्तिकरण और वैज्ञानिक सोच से जोड़ना आयोग की प्राथमिकता थी।

2. भारतीय विश्वविद्यालयों की मौजूदा स्थिति का गहन मूल्यांकन करना

आयोग ने यह महसूस किया कि बिना किसी निष्पक्ष समीक्षा के कोई भी सुधार प्रभावी नहीं हो सकता। इसलिए आयोग का दूसरा प्रमुख उद्देश्य था— देशभर के विश्वविद्यालयों की वर्तमान दशा, संरचना, कार्यप्रणाली, प्रशासनिक व्यवस्था और शिक्षण गुणवत्ता का समग्र मूल्यांकन करना। इसके माध्यम से यह जाना गया कि विश्वविद्यालय किस हद तक अपने उद्देश्यों में सफल हो रहे हैं और कहाँ-कहाँ सुधार की आवश्यकता है।

3. उच्च शिक्षा को राष्ट्रीय आवश्यकताओं, सामाजिक बदलाव और वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाना

शिक्षा प्रणाली का मुख्य कार्य केवल डिग्रियाँ देना नहीं होता, बल्कि वह राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की रीढ़ होती है। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य था— उच्च शिक्षा को ऐसी दिशा देना जो कृषि, उद्योग, विज्ञान, तकनीक, प्रशासन, स्वास्थ्य, और सामाजिक कल्याण जैसे विविध क्षेत्रों की ज़रूरतों को पूरा कर सके। यह आवश्यक था कि उच्च शिक्षा युवाओं को रोजगार के साथ-साथ देशभक्ति, मानवता और वैश्विक चेतना से भी जोड़ सके।

4. उच्च शिक्षा में गुणवत्ता, नवाचार और प्रासंगिकता को बढ़ावा देने के ठोस सुझाव प्रस्तुत करना

आयोग यह मानता था कि मात्र संस्थानों की संख्या बढ़ाने से शिक्षा का स्तर नहीं उठाया जा सकता। गुणवत्ता ही किसी भी शिक्षा प्रणाली की आत्मा होती है। इसलिए आयोग ने शिक्षकों की नियुक्ति, पाठ्यक्रम की रचनात्मकता, शिक्षण विधियों, शोध गतिविधियों, परीक्षा प्रणाली और विद्यार्थियों के अनुशासन जैसे पहलुओं पर ध्यान देते हुए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए ठोस सुझाव देने को अपना उद्देश्य बनाया।

      इन उद्देश्यों के माध्यम से विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने भारत की शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी सुधारों की नींव रखी। आयोग का कार्य केवल सलाह तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक शिक्षा दर्शन था, जिसमें शिक्षा को राष्ट्र के पुनर्निर्माण का सबसे प्रभावशाली उपकरण माना गया। इसकी सिफारिशें आज भी भारतीय शिक्षा प्रणाली की नींव में प्रतिध्वनित होती हैं।

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के कार्य क्षेत्र 

भारत के स्वतंत्र होने के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि यदि राष्ट्र को प्रगति की राह पर अग्रसर करना है, तो उच्च शिक्षा प्रणाली को आधुनिक, सशक्त और राष्ट्रहितैषी बनाना अत्यंत आवश्यक है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की स्थापना की। इस आयोग का प्रमुख कार्य था— भारतीय विश्वविद्यालयों की मौजूदा स्थिति का विश्लेषण कर एक समग्र रिपोर्ट प्रस्तुत करना तथा देश की वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप उच्च शिक्षा प्रणाली में आवश्यक सुधार और विस्तार के सुझाव देना।

“To report on Indian universities and suggest improvement and extension that may be desirable to suit present and future requirements of the country.”
University Education Commission Report, Page 1

आयोग का कार्य क्षेत्र व्यापक था और इसके कार्यों को स्पष्ट रूप से कुछ प्रमुख बिंदुओं में विभाजित किया गया, जो निम्नलिखित हैं:

1. वर्तमान व्यवस्था का विश्लेषण

भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा प्रणाली की विस्तृत समीक्षा कर उसमें व्याप्त त्रुटियों और कमजोरियों की पहचान करना।

2. प्रशासनिक एवं वित्तीय संरचना में सुधार

विश्वविद्यालयों के प्रशासन और वित्तीय प्रबंधन में पारदर्शिता, दक्षता और उत्तरदायित्व बढ़ाने हेतु सुझाव देना।

3. सम्बद्ध महाविद्यालयों का सुदृढ़ीकरण

महाविद्यालयों के प्रशासन, वित्त, शिक्षण और परीक्षा व्यवस्था को अधिक प्रभावी और गुणवत्तापूर्ण बनाने के उपाय प्रस्तुत करना।

4. संगठनात्मक और विधिक ढाँचे का पुनर्गठन

विश्वविद्यालयों के संगठन, नियंत्रण, कार्यक्षेत्र और कानूनों की पुनर्समीक्षा कर आवश्यक संशोधन सुझाना।

5. उच्च शिक्षा के उद्देश्य एवं पाठ्यचर्या में नवाचार

उच्च शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों की पुनर्परिभाषा करते हुए, पाठ्यक्रम में नवाचार और व्यावहारिकता लाने के उपाय सुझाना।

6. शिक्षण माध्यम, अवधि और पाठ्यक्रम की दिशा तय करना

उच्च शिक्षा की भाषा, अवधि और पाठ्यक्रम जैसे मूलभूत विषयों पर स्पष्ट दिशा-निर्देश देना।

7. प्राध्यापकों की नियुक्ति व सेवा शर्तें

शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया, वेतनमान और सेवा शर्तों को मानकीकृत और आकर्षक बनाने हेतु मार्गदर्शन देना।

8. अनुशासनहीनता से निपटने के उपाय

विश्वविद्यालय परिसरों में फैली अनुशासनहीनता पर नियंत्रण हेतु ठोस और प्रभावशाली उपाय सुझाना।

9. छात्रों के कल्याण की योजनाएं

छात्रों के सर्वांगीण विकास और कल्याण के लिए योजनाओं और सुविधाओं का प्रस्ताव करना।

10. छात्रावास, ट्यूटोरियल वर्क और अन्य गतिविधियों का समायोजन

छात्रावास व्यवस्था, व्यक्तिगत शिक्षण (Tutorials), सह-पाठ्यक्रम गतिविधियाँ और छात्रों के दैनिक जीवन से जुड़ी व्यवस्थाओं में संतुलन और समन्वय स्थापित करना।

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के सुझाव, विश्वविद्यालय आयोग की संस्तुतियाँ

(1948-49), राधाकृष्णन आयोग की सिफारिशें, राधाकृष्णन आयोग की सिफारिश

भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, उच्च शिक्षा की दशा और दिशा को सही रूप देने हेतु 1948-49 में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा को देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना था।

आइए जानते हैं राधाकृष्णन आयोग की प्रमुख सिफारिशें (Radhakrishnan Commission Recommendations in Hindi):

1. शिक्षा के लक्ष्य (Aims of Education)
  • नागरिकों को लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए प्रशिक्षित करना।
  • आत्म-विकास की क्षमता को विकसित करना।
  • अतीत और वर्तमान की समझ विकसित करना।
  • विद्यार्थियों को व्यावसायिक और पेशेवर प्रशिक्षण प्रदान करना।
  • उन्हें भारतीय सांस्कृतिक विरासत से परिचित कराना।
2. शिक्षण संकाय (Teaching Faculty)
  • शिक्षकों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाए: प्रोफेसर, पाठक, व्याख्याता और प्रशिक्षक।
  • पदोन्नति योग्यता के आधार पर की जाए।
  • शिक्षकों को उच्च वेतन और सेवा शर्तों में सुधार।
  • शिक्षण कार्य सप्ताह में 18 घंटे से अधिक न हो।
  • अध्यापन और शोध के लिए अवकाश नीति लागू हो।
  • सेवानिवृत्ति की आयु को 60 से बढ़ाकर 64 वर्ष किया जाए।
3. शिक्षण का स्तर (Standards of Teaching)
  • विश्वविद्यालयों में अधिकतम 3000 विद्यार्थी, और महाविद्यालयों में 1500 विद्यार्थी हों।
  • केवल उन्हीं विद्यार्थियों को प्रवेश, जिन्होंने 12 वर्ष की स्कूली शिक्षा प्राप्त की हो।
  • 180 कार्य दिवसों का शैक्षणिक कैलेंडर।
  • पाठ्यपुस्तक बाध्यता समाप्त, अध्ययन के लिए विविध सामग्री का उपयोग।
  • सांयकालीन कक्षाएं शुरू की जाएं।
  • परीक्षा में प्रथम, द्वितीय, तृतीय श्रेणियों के लिए क्रमशः 70%, 55% और 40% अंक आवश्यक हों।
4. विश्वविद्यालय का प्रशासन और वित्त (Administration & Finance)
  • उच्च शिक्षा को समवर्ती सूची में शामिल किया जाए।
  • नीति निर्माण का अधिकार केंद्र सरकार, और राज्य सरकारों द्वारा कार्यान्वयन।
  • विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) की स्थापना हो।
5. विश्वविद्यालय शिक्षा की संरचना (Structure of Higher Education)
  • शिक्षा को तीन स्तरों में बांटा जाए:

    • स्नातक (3 वर्ष)

    • स्नातकोत्तर (2 वर्ष)

    • शोधकार्य (कम से कम 2 वर्ष)

  • अलग-अलग विभाग: कला, विज्ञान, तकनीकी, व्यावसायिक।
  • विशेष महाविद्यालयों की स्थापना: कृषि, वाणिज्य, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, शिक्षक प्रशिक्षण।
6. पेशेवर शिक्षा (Professional Education)

आयोग ने पेशेवर शिक्षा को 6 भागों में बांटा:

  • शिक्षक शिक्षा
  • कृषि शिक्षा
  • वाणिज्य शिक्षा
  • इंजीनियरिंग व तकनीकी शिक्षा
  • चिकित्सा शिक्षा
  • विधिक शिक्षा (Law Education)
7. धार्मिक शिक्षा (Religious Education)
  • उद्देश्य: धार्मिक कट्टरता समाप्त करना और सभी धर्मों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करना।
  • पाठ्यक्रम का विभाजन:
    • प्रथम वर्ष: विश्व के महापुरुषों का अध्ययन।

    • द्वितीय वर्ष: प्रमुख धर्मग्रंथों के अंश।

    • तृतीय वर्ष: धर्म दर्शन की प्रमुख समस्याएं।

8. उच्च शिक्षा का माध्यम (Medium of Higher Education)
  • अंग्रेजी के स्थान पर प्रादेशिक भाषाओं को प्राथमिकता।
  • हिंदी को संघीय भाषा के रूप में मान्यता।
  • अंग्रेजी का अध्ययन विद्यालय और विश्वविद्यालय स्तर पर बने रहना चाहिए।
9. परीक्षा प्रणाली (Examination System)
  • परीक्षा प्रणाली को त्रुटिपूर्ण माना गया।
  • हर वर्ष के अंत में परीक्षा ली जाए।
  • वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन प्रणाली अपनाई जाए।
  • रियायती अंक (Grace Marks) की व्यवस्था समाप्त हो।
10. विद्यार्थी कल्याण (Student Welfare)
  • सभी विश्वविद्यालयों में चिकित्सा सुविधा और छात्रावास
  • छात्रवृत्ति की सुविधा।
  • दो वर्ष की अनिवार्य शारीरिक शिक्षा।
  • छात्र संघ, परंतु राजनीति से दूर।
  • NCC की अनिवार्यता।
  • खेल के मैदान और व्यायामशालाएं उपलब्ध हों।
11. स्त्री शिक्षा (Women Education)
  • पाठ्यक्रम में: गृह प्रबंधन, घरेलू अर्थशास्त्र, पोषण।
  • उद्देश्य: अच्छी माँ और गृहिणी बनाना।
12. ग्रामीण विश्वविद्यालय (Rural Universities and Colleges)
  • ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना।
  • विद्यार्थियों की संख्या सीमित रखी जाए।
  • शोध कार्यों को प्राथमिकता मिले।
निष्कर्ष:

राधाकृष्णन आयोग की सिफारिशों ने भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली की नींव को मजबूत करने का कार्य किया। इन सिफारिशों के आधार पर कई संस्थाएं और सुधार कार्यान्वित किए गए, जैसे UGC की स्थापना, माध्यम भाषा में बदलाव, और व्यावसायिक शिक्षा का विस्तार। आज भी यह रिपोर्ट भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए एक मार्गदर्शक प्रकाशस्तंभ की भूमिका निभाती है।

राधाकृष्णन आयोग का प्रभाव (Impact of Radhakrishnan Commission)

राधाकृष्णन आयोग (1948-49) की सिफारिशों का भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर जो सुधार किए गए, उन्होंने भारत की शिक्षा प्रणाली को एक नई दिशा दी। राधाकृष्णन आयोग, जिसे “University Education Commission” के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय शिक्षा प्रणाली में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। आयोग की रिपोर्ट, जिसे 1949 में प्रस्तुत किया गया, ने उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं। आयोग के सुझावों ने भारत में शिक्षा के क्षेत्र में संरचनात्मक और प्रक्रियात्मक परिवर्तन किए। आयोग की सिफारिशों ने न केवल उच्च शिक्षा के ढांचे को पुनर्गठित किया, बल्कि शिक्षकों, छात्रों और शैक्षिक संस्थानों की गुणवत्ता में सुधार किया। यहां हम राधाकृष्णन आयोग के प्रभाव को विस्तार से समझेंगे, जिनकी सिफारिशों से भारतीय शिक्षा की दिशा को नया मोड़ मिला।

1. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) की स्थापना:

राधाकृष्णन आयोग की सबसे महत्वपूर्ण सिफारिशों में से एक थी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) की स्थापना। आयोग की सिफारिश पर UGC की स्थापना 1953 में की गई। इसका मुख्य उद्देश्य उच्च शिक्षा के संस्थानों को वित्तीय सहायता प्रदान करना और उनकी गुणवत्ता बनाए रखना था। इसके बाद, 1956 में इसे स्वायत्त दर्जा दिया गया, जिससे विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के अनुदान को नियंत्रित करने में UGC की महत्वपूर्ण भूमिका सुनिश्चित हुई। इसके द्वारा विश्वविद्यालयों के लिए वित्तीय सहायता, नीति निर्धारण, और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने में मदद मिली। यह आयोग अब तक भारतीय उच्च शिक्षा की सशक्त संस्था के रूप में कार्य कर रहा है।

2. ग्रामीण उच्च शिक्षा का विकास:

राधाकृष्णन आयोग ने ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के महत्व को पहचानते हुए, 1954 में ग्रामीण उच्च शिक्षा समिति की स्थापना की। इस समिति का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का प्रसार और विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के अवसर प्रदान करना था। आयोग की सिफारिशों के आधार पर, ग्रामीण विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना हुई, जो ग्रामीण छात्रों के लिए एक अहम कदम था। इससे ना केवल ग्रामीण छात्रों के लिए शिक्षा के दरवाजे खोले गए, बल्कि ग्रामीण विकास और सामाजिक समानता को भी बढ़ावा मिला।

3. पेशेवर शिक्षा में सुधार:

राधाकृष्णन आयोग ने पेशेवर शिक्षा के महत्व को भी स्वीकार किया और इसे स्वतंत्र महाविद्यालयों के रूप में स्थापित करने की सिफारिश की। आयोग की सिफारिशों पर कृषि, वाणिज्य, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, कानून और शिक्षक प्रशिक्षण के लिए स्वतंत्र महाविद्यालयों की स्थापना की गई। इससे व्यावसायिक शिक्षा को एक नया आयाम मिला और विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञता की आवश्यकता को पूरा किया गया। विशेष रूप से इंजीनियरिंग, चिकित्सा, और कानून जैसी महत्वपूर्ण शाखाओं में स्वतंत्र महाविद्यालयों की स्थापना ने पेशेवर शिक्षा को एक नई दिशा दी।

4. पाठ्यक्रम और शिक्षा संरचना में बदलाव:

आयोग की सिफारिश पर भारतीय विश्वविद्यालयों ने 3 वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम, 2 वर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और अनुसंधान के लिए न्यूनतम 2 वर्ष की अवधि की शुरुआत की। इससे शिक्षा में एक मानकीकरण और एकरूपता आई। राधाकृष्णन आयोग ने शिक्षा की संरचना को इस तरह से ढालने की सलाह दी कि यह अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हो। इसके अतिरिक्त, कला, विज्ञान, व्यावसायिक और तकनीकी विषयों के लिए अलग-अलग विभागों की स्थापना की गई, जिससे प्रत्येक क्षेत्र में विशेषज्ञता और अनुसंधान को बढ़ावा मिला।

5. रक्षा और समाज सेवा कार्यक्रमों का समावेश:

आयोग ने राष्ट्रीय कैडेट कोर (NCC) और राष्ट्रीय सेवा योजना (NSS) जैसे सामाजिक और रक्षा कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया। NCC की स्थापना 1948 में और NSS की शुरुआत 1969 में की गई। ये दोनों कार्यक्रम छात्रों में देशभक्ति, अनुशासन, और समाज सेवा की भावना को बढ़ावा देने के लिए थे। इन कार्यक्रमों ने छात्रों को सामाजिक जिम्मेदारी, अनुशासन और देशसेवा की भावना से जोड़ा, और उन्होंने राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता को बढ़ावा दिया।

6. शिक्षकों की स्थिति में सुधार:

राधाकृष्णन आयोग ने शिक्षकों की वेतन संरचना को सुधारने और उनकी सेवा की शर्तों को बेहतर करने की सिफारिश की। आयोग के सुझावों के बाद, भारतीय विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षकों के वेतनमान में वृद्धि की गई और उनकी सेवा की शर्तों को सुधारा गया। इसके अलावा, आयोग ने शिक्षकों के लिए शैक्षिक अवकाश की सिफारिश की, जिससे वे अपनी शैक्षिक क्षमता में सुधार कर सकें। इससे शिक्षकों का मनोबल बढ़ा और शिक्षण पेशा को एक नया सम्मान मिला।

7. विद्यार्थी कल्याण योजनाओं की शुरुआत:

आयोग ने विद्यार्थियों की भलाई के लिए कई योजनाओं की सिफारिश की। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रावास, कैंटीन, चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाएं जैसी सुविधाओं की शुरुआत की गई। इसके अलावा, छात्रवृत्तियों और छात्र संघों की व्यवस्था भी शुरू की गई, जिससे छात्रों के शैक्षिक और व्यक्तिगत विकास को बढ़ावा मिला। आयोग ने छात्रों के लिए शारीरिक शिक्षा और खेलों को अनिवार्य करने की भी सिफारिश की, जिससे छात्रों का समग्र विकास सुनिश्चित हुआ।

8. शिक्षा के माध्यम में सुधार:

राधाकृष्णन आयोग ने उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी की बजाय भारतीय भाषाओं को बनाने की सिफारिश की। आयोग के अनुसार, अंग्रेजी को एक भारतीय भाषा से जल्द से जल्द बदलने की आवश्यकता थी। साथ ही, हिंदी को संघीय भाषा के रूप में शिक्षा का माध्यम बनाने की स्वतंत्रता दी गई थी। यह कदम भारतीय भाषाओं के संवर्धन और सांस्कृतिक एकता की दिशा में महत्वपूर्ण था।

नीचे हम राधाकृष्णन आयोग के प्रभावों (Impact of Radhakrishnan Commission) को संक्षेप में और व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं:

1. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) की स्थापना
  • आयोग की प्रमुख सिफारिश के आधार पर 1953 में UGC (University Grants Commission) की स्थापना की गई।
  • 1956 में इसे संवैधानिक स्वायत्तता प्रदान की गई, जिससे यह देशभर के विश्वविद्यालयों को अनुदान देने और उनकी गुणवत्ता बनाए रखने में सक्षम हुआ।
2. ग्रामीण उच्च शिक्षा का विकास
  • 1954 में ग्रामीण उच्च शिक्षा समिति की स्थापना की गई।
  • इसके तहत ग्रामीण विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना हुई, जिससे ग्रामीण युवाओं को उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला।
3. पेशेवर शिक्षा में सुधार
  • आयोग की सिफारिश पर कृषि, वाणिज्य, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, कानून और शिक्षक प्रशिक्षण के स्वतंत्र महाविद्यालयों की स्थापना की गई।
  • इससे व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा को एक नया आयाम मिला।
4. पाठ्यक्रम और शिक्षा संरचना में बदलाव
  • देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों ने आयोग की सिफारिश पर 3 वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम, 2 वर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम, तथा अनुसंधान हेतु न्यूनतम 2 वर्ष की व्यवस्था को अपनाया।
  • इससे भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली में मानकीकरण और एकरूपता आई।
5. रक्षा और समाज सेवा कार्यक्रमों का समावेश
  • 1948 में एनसीसी (NCC) और 1969 में एनएसएस (NSS) जैसे छात्र कार्यक्रमों की शुरुआत हुई।
  • इन कार्यक्रमों ने छात्रों में देशभक्ति, अनुशासन और सामाजिक सेवा की भावना को प्रोत्साहित किया।
6. शिक्षकों की स्थिति में सुधार
  • आयोग के सुझाव पर विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों के शिक्षकों के वेतनमान में वृद्धि की गई।
  • सेवा की शर्तों और सेवानिवृत्ति की उम्र में भी सुधार किया गया, जिससे शिक्षण पेशा और अधिक सम्मानजनक और आकर्षक बना।
7. विद्यार्थी कल्याण योजनाओं की शुरुआत
  • विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्रावास, कैंटीन, चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाएं जैसी सुविधाएं प्रदान की गईं।
  • साथ ही छात्रवृत्तियों और छात्र संघों की व्यवस्था भी शुरू की गई, जिससे विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित हुआ।
निष्कर्ष (Conclusion):

राधाकृष्णन आयोग का भारतीय उच्च शिक्षा पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा। इसके द्वारा किए गए सुधारों ने न केवल शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों को सशक्त किया, बल्कि भारतीय समाज में समाजसेवा, सामाजिक समानता, और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया। इस आयोग की सिफारिशों ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप ढालने में मदद की, और इसके बाद जो सुधार हुए, उन्होंने भारत की शैक्षिक व्यवस्था को पुनर्गठित किया। राधाकृष्णन आयोग ने भारतीय उच्च शिक्षा को एक नए दृष्टिकोण और समग्र दृष्टि के साथ पुनर्गठित किया। उसकी सिफारिशों से न केवल शैक्षिक ढांचे में सुधार हुआ, बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता, प्रशासन, छात्र जीवन और शिक्षकों की स्थिति में भी क्रांतिकारी परिवर्तन आए।

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के गुण एवं दोष

(Merits and Demerits of University Education Commission – 1948)

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (University Education Commission), जिसे प्रायः राधाकृष्णन आयोग कहा जाता है, की स्थापना 1948 में भारत सरकार द्वारा की गई थी। इसका उद्देश्य स्वतंत्र भारत में उच्च शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन, उसमें सुधार और उसे भविष्य के अनुकूल बनाना था। आयोग ने कई उपयोगी सिफारिशें कीं, जो आज भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए आधारभूत मानी जाती हैं।

हालांकि, इसकी कुछ सिफारिशें अत्यंत प्रभावशाली थीं, वहीं कुछ क्षेत्रों में आयोग की चुप्पी या अस्पष्टता को आलोचना का विषय भी बनाया गया। नीचे हम इस आयोग के प्रमुख गुणों और दोषों का विस्तार से विश्लेषण कर रहे हैं।

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के गुण (Merits of University Education Commission)

  1. छात्र संख्या सीमित करने का सुझाव: आयोग ने विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रों की संख्या को सीमित रखने की सिफारिश की, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हुआ और शिक्षण संस्थानों का वातावरण अधिक अनुशासित और ज्ञानवर्धक बना।

  2. परंपरा और आधुनिकता का संतुलन: आयोग की सिफारिशें भारतीय प्राचीन शैक्षिक परंपराओं, समकालीन चुनौतियों और भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप थीं। इसने भारतीय शिक्षा प्रणाली को आधुनिक बनाने के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्यों को भी संरक्षित रखा।

  3. कृषि और ग्रामीण शिक्षा पर बल: आयोग ने कृषि विश्वविद्यालयों और ग्रामीण विद्यालयों की स्थापना पर जोर दिया। यह सिफारिश विशेष रूप से क्रांतिकारी और आवश्यक मानी गई क्योंकि इससे ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं को तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा का लाभ मिलने लगा।

  4. पाठ्यक्रम में लचीलापन: आयोग ने विश्वविद्यालयों को पाठ्यक्रम के निर्धारण में अधिक स्वतंत्रता देने की सिफारिश की। इससे छात्र रटने की प्रवृत्ति से मुक्त हुए और रचनात्मक व समावेशी शिक्षा को बढ़ावा मिला। साथ ही, पाठ्यक्रम चयन में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी रोक लग सकी।

  5. छात्र राजनीति से दूरी: आयोग ने छात्र संघों को दलगत राजनीति से पृथक रखने का सुझाव दिया। इसका उद्देश्य विश्वविद्यालयों में अनुशासन बनाए रखना और छात्रों को केवल शैक्षिक व सामाजिक गतिविधियों तक सीमित रखना था, जिससे शैक्षणिक वातावरण बेहतर बना।

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के दोष (Demerits of University Education Commission)

  1. ललित कलाओं की उपेक्षा: आयोग ने ललित कलाओं (Fine Arts) जैसे संगीत, चित्रकला, नृत्य आदि के संबंध में कोई विशेष सुझाव नहीं दिया। यह क्षेत्र भी उच्च शिक्षा का अहम हिस्सा है, जिसे नजरअंदाज किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण रहा।

  2. स्त्री शिक्षा पर सीमित सुझाव: आयोग के सुझावों में महिला शिक्षा के लिए कोई विशेष रणनीति या सशक्तिकरण योजना प्रस्तुत नहीं की गई। यह उस समय की सामाजिक आवश्यकता को देखते हुए एक बड़ी कमी मानी जाती है।

  3. धार्मिक शिक्षा पर अस्पष्टता: आयोग ने धार्मिक शिक्षा के माध्यम व तरीके को लेकर स्पष्ट मार्गदर्शन नहीं दिया। यह विषय स्वतंत्र भारत में एक संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दा था, जिस पर स्पष्टता अपेक्षित थी।

  4. वेतनमान संबंधी कमजोर सिफारिशें: हालांकि आयोग ने शिक्षकों के वेतनमान में सुधार की बात की, लेकिन इसकी सिफारिशें पुरानी और अपर्याप्त थीं। यह सुझाव व्यावहारिक नहीं थे और न ही वर्तमान महंगाई और सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल थे।

निष्कर्ष (Conclusion)

राधाकृष्णन आयोग ने भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा की मूलभूत संरचना को परिभाषित करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। इसके द्वारा सुझाए गए सुधारों से उच्च शिक्षा में गुणवत्ता, अनुशासन और उद्देश्य की स्पष्टता आई। विशेषकर पाठ्यक्रम निर्माण, ग्रामीण शिक्षा, और छात्रों के कल्याण से संबंधित सिफारिशें अत्यंत सराहनीय थीं।

हालांकि, ललित कला, स्त्री शिक्षा और धार्मिक शिक्षा जैसे विषयों पर पर्याप्त ध्यान न देना इस आयोग की सीमाओं को दर्शाता है। फिर भी, यह आयोग स्वतंत्र भारत की शिक्षा नीति का एक मजबूत स्तंभ माना जाता है, जिसने देश की शैक्षिक प्रगति की दिशा को प्रभावित किया।

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