मुदालियर आयोग के सुझाव, मुदालियर आयोग की सिफारिश,माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग) 1952-53, Madhyamik Shiksha Aayog Ke Sujhav, Mudaliyar Aayog Ki Sifarishe
मुदलियार शिक्षा आयोग (1952 – 1953)
भारत को 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त हुई, और इसके बाद नई सरकार के समक्ष कई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में सुधार की आवश्यकता थी। शिक्षा का क्षेत्र, विशेष रूप से माध्यमिक शिक्षा (Secondary Education), एक ऐसा क्षेत्र था जिसमें सुधार अत्यंत आवश्यक था, क्योंकि देश के निर्माण में शिक्षित युवाओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण थी।
इसी आवश्यकता को देखते हुए भारत सरकार ने 1952 में माध्यमिक शिक्षा की संपूर्ण समीक्षा और पुनर्गठन के उद्देश्य से एक विशेष आयोग का गठन किया, जिसे हम “माध्यमिक शिक्षा आयोग” या “मुदलियार आयोग” (Mudaliar Commission) के नाम से जानते हैं।
आयोग की अध्यक्षता: डॉ. ए. लक्ष्मणस्वामी मुदलियार
इस आयोग के अध्यक्ष थे डॉ. ए. लक्ष्मणस्वामी मुदलियार, जो उस समय मद्रास विश्वविद्यालय के कुलपति (Vice-Chancellor) थे। वे एक प्रसिद्ध शिक्षाविद, चिकित्सक और प्रशासनिक अनुभव रखने वाले व्यक्ति थे। उनके नेतृत्व में यह आयोग माध्यमिक शिक्षा की कमियों की गहन जांच के साथ-साथ व्यावहारिक सुझाव देने में सफल रहा। उनके नाम पर ही इस आयोग को “मुदलियार आयोग” के नाम से जाना जाता है।
मुदलियार शिक्षा आयोग की स्थापना 6 अक्टूबर 1952 को की गई थी और इसने लगभग 10 महीनों तक देशभर में भ्रमण कर माध्यमिक शिक्षा की स्थिति का निरीक्षण किया। आयोग ने शिक्षाविदों, प्रशासनिक अधिकारियों और विभिन्न विशेषज्ञों से सुझाव प्राप्त किए और अंततः अगस्त 1953 में अपनी विस्तृत रिपोर्ट भारत सरकार को प्रस्तुत की।
जांच के विषय (Terms of References)
मुदलियार आयोग की नियुक्ति का प्रमुख उद्देश्य भारत में उस समय प्रचलित माध्यमिक शिक्षा प्रणाली की समग्र समीक्षा करना और उसके पुनर्गठन व सुधार के लिए व्यावहारिक सुझाव देना था। आयोग को निर्देश दिए गए थे कि वह माध्यमिक शिक्षा से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर गहन अध्ययन करे और उनके सुधार हेतु ठोस सिफारिशें प्रस्तुत करे। आयोग से विशेष रूप से निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करने और सुझाव देने को कहा गया था:
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माध्यमिक शिक्षा से जुड़ी समस्याओं का विश्लेषण और उन्हें दूर करने के लिए उपयुक्त उपाय सुझाना।
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माध्यमिक स्तर की परीक्षा प्रणाली का मूल्यांकन करना और उसमें व्याप्त खामियों को दूर करने हेतु सुधारात्मक सुझाव देना।
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छात्र अनुशासन की वर्तमान स्थिति की समीक्षा करना और उसे बेहतर बनाने के लिए उपाय सुझाना।
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माध्यमिक शिक्षकों के वेतनमान, सेवा शर्तें और कार्य स्थितियों का अध्ययन करना और उन्हें अधिक प्रभावी एवं प्रेरक बनाने के सुझाव देना।
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माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण गुणवत्ता का आकलन कर उनके सुधार हेतु दिशा-निर्देश देना।
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माध्यमिक शिक्षा के प्रशासन और संगठनात्मक ढांचे की समीक्षा करना और उसमें आवश्यक सुधारों की सिफारिश करना।
इन सभी बिंदुओं का उद्देश्य एक ऐसी माध्यमिक शिक्षा प्रणाली विकसित करना था, जो न केवल गुणवत्ता युक्त और समावेशी हो, बल्कि छात्रों को नैतिक, बौद्धिक और व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी सशक्त बना सके।
मुदालियर आयोग के सुझाव, मुदालियर आयोग की सिफारिश, माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझाव
मुदालियर आयोग की प्रमुख सिफारिशें
1. माध्यमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याएं
- पाठ्यक्रम संकीर्ण और जीवन से अलग
- शिक्षण विधियां त्रुटिपूर्ण
- अंग्रेजी माध्यम की प्रधानता
- परीक्षा प्रणाली दोषपूर्ण
- कक्षाओं में अधिक भीड़
- अनुशासन की कमी
2. माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य
- लोकतांत्रिक नागरिकता का विकास
- व्यावसायिक दक्षता में वृद्धि
- व्यक्तित्व विकास
- नेतृत्व क्षमता का विकास
3. माध्यमिक शिक्षा का संगठन
- माध्यमिक शिक्षा की अवधि 7 वर्ष (11 से 17 वर्ष की आयु के लिए)
- दो भागों में विभाजन: 3 वर्षीय जूनियर सेकेंडरी और 4 वर्षीय सीनियर सेकेंडरी
- 11वीं कक्षा को माध्यमिक स्कूल से जोड़ना और 12वीं को विश्वविद्यालय से जोड़ना
- बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना, ग्रामीण विद्यालयों में कृषि शिक्षा, शहरों में प्रौद्योगिकी संस्थानों की स्थापना
- विकलांग व बालिकाओं के लिए अलग विद्यालयों की स्थापना
4. प्रशासन और वित्त
- प्रत्येक राज्य में शिक्षा सलाहकार बोर्ड और माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की स्थापना
- तकनीकी शिक्षा के लिए तकनीकी बोर्ड की स्थापना
- मान्यता के लिए सख्त मानक
- दान को आयकर से छूट
- विद्यालय निरीक्षण के लिए पर्याप्त निरीक्षकों की नियुक्ति
5. भाषाओं का अध्ययन
- हिंदी एवं अंग्रेजी को अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ाया जाए
- संस्कृत को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए
6. पाठ्यपुस्तकें
- प्रत्येक राज्य में पाठ्यपुस्तक समिति का गठन
- चित्रांकन कला के प्रशिक्षण के लिए संस्थान
- पाठ्यपुस्तकों में बार-बार परिवर्तन की परंपरा समाप्त हो
7. शिक्षण विधियां
- स्वाध्याय, प्रयोग विधि, परियोजना विधि को प्राथमिकता
- विषयों को जीवन से जोड़कर पढ़ाना
- समूह कार्य के अवसर प्रदान करना
8. पाठ्यचर्या
- स्थानीय आवश्यकताओं, रुचियों और जीवनोपयोगिता पर आधारित पाठ्यक्रम
- दो श्रेणियों में विभाजन: जूनियर सेकेंडरी और सीनियर सेकेंडरी
- मुख्य विषय (2 भाषाएं, गणित, सामान्य विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, शिल्प)
- वैकल्पिक विषय: मानविकी, विज्ञान, तकनीकी, वाणिज्य, कृषि, ललित कला, गृह विज्ञान
9. माध्यमिक शिक्षक
- शिक्षकों के बच्चों को मुफ्त शिक्षा
- वेतन में मुद्रास्फीति के अनुसार वृद्धि
- ट्यूशन पर रोक
- मुफ्त चिकित्सकीय सुविधा
- समान कार्य के लिए समान वेतन
10. परीक्षा प्रणाली
- बाहरी परीक्षाओं की संख्या में कमी
- केवल एक सार्वजनिक परीक्षा
- वस्तुनिष्ठ परीक्षा प्रणाली को बढ़ावा
- मूल्यांकन ग्रेड आधारित हो
11. मार्गदर्शन एवं परामर्श
- शिक्षा अधिकारियों द्वारा विद्यार्थियों का मार्गदर्शन
- स्कूलों में कैरियर कॉन्फ्रेंस का आयोजन
- परामर्श अधिकारियों की नियुक्ति
12. महिला शिक्षा
- बालिकाओं को समान शैक्षिक अवसर
- गृह विज्ञान की अलग व्यवस्था
- बालिका विद्यालयों की स्थापना
- सह-शिक्षा की भी व्यवस्था
13. व्यावसायिक शिक्षा
- हस्तनिर्मित वस्तुओं की शिक्षा अनिवार्य
- बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना
- पॉलीटेक्निक स्कूलों की स्थापना
- ग्रामीण विद्यालयों में कृषि शिक्षा का विस्तार
14. शारीरिक स्वास्थ्य
- विद्यालय स्वास्थ्य सेवा योजना लागू हो
- वार्षिक स्वास्थ्य परीक्षण अनिवार्य
- रोगग्रस्त छात्रों की बार-बार स्वास्थ्य जांच
- छात्रावासों में पौष्टिक भोजन की व्यवस्था
15. शिक्षक प्रशिक्षण
- उच्च माध्यमिक के छात्रों के लिए 2 वर्षीय प्रशिक्षण (राज्य बोर्ड के अधीन)
- स्नातकों के लिए 1 वर्षीय प्रशिक्षण (विश्वविद्यालय के अधीन)
16. अनुशासन
- शिक्षक एवं छात्रों के बीच मधुर संबंध
- छात्रों को स्वशासन के अवसर
- आत्मनिर्भरता, अनुशासन और नेतृत्व गुणों का विकास
निष्कर्ष
1953 के मुदालियर आयोग की सिफारिशें भारतीय माध्यमिक शिक्षा प्रणाली में सुधार की दिशा में एक दूरदर्शी प्रयास थीं। इस आयोग ने न केवल शिक्षा की मौलिक समस्याओं को उजागर किया, बल्कि व्यावहारिक समाधान भी प्रस्तुत किए। आज भी यह रिपोर्ट शिक्षा नीति निर्माताओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु मानी जाती है।
मुदालियर आयोग का प्रभाव
मुदालियर आयोग का प्रभाव भारतीय शिक्षा प्रणाली पर गहरा और दूरगामी रहा है। माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग) की सिफारिशों ने न केवल शिक्षा के दृष्टिकोण को बदलने में मदद की, बल्कि भारतीय शिक्षा प्रणाली में कई महत्वपूर्ण सुधारों को जन्म दिया। इसके प्रभावों को कुछ प्रमुख बिंदुओं में देखा जा सकता है:
1. माध्यमिक शिक्षा की संरचना में सुधार:
मुदालियर आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के संगठनात्मक ढाँचे को पुनः व्यवस्थित करने की आवश्यकता पर जोर दिया। आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की अवधि को 7 वर्ष करने, इंटरमीडिएट कक्षा को समाप्त करने और बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना के सुझाव दिए। इन सिफारिशों ने शिक्षा के ढांचे को अधिक लचीला और व्यावहारिक बना दिया, जिससे छात्रों को विभिन्न क्षेत्रों में व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला।
2. पाठ्यक्रम में विविधता और लचीलापन:
मुदालियर आयोग की सिफारिशों के परिणामस्वरूप पाठ्यक्रम में विविधता आई। आयोग ने पाठ्यक्रम को व्यावहारिक जीवन से जोड़ने और छात्रों के लिए लचीला और विविध पाठ्यक्रम तैयार करने पर जोर दिया। इसके तहत, मानव विज्ञान, कृषि-विज्ञान, तकनीकी शिक्षा, कला और वाणिज्य जैसे विषयों का समावेश किया गया। यह छात्रों को उनके रुचियों और योग्यताओं के अनुसार शिक्षा प्रदान करने में मदद करता है।
3. नेतृत्व और नागरिकता का विकास:
आयोग ने जनतांत्रिक नागरिकता और नेतृत्व गुणों के विकास पर विशेष ध्यान दिया। इसके परिणामस्वरूप, राष्ट्र प्रेम, सहिष्णुता, और सामाजिक जिम्मेदारी जैसे गुणों को शिक्षा के मुख्य उद्देश्य के रूप में अपनाया गया। यह छात्रों को न केवल शैक्षिक रूप से, बल्कि नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी सशक्त बनाने का प्रयास करता है।
4. गृह विज्ञान और कृषि शिक्षा:
आयोग ने गृह विज्ञान और कृषि शिक्षा को अनिवार्य विषय के रूप में शामिल करने की सिफारिश की, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। इसने कृषि प्रधान देश की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए छात्रों को कृषि, बागवानी, पशुपालन और कुटीर उद्योगों जैसे क्षेत्रों में व्यावसायिक कौशल प्रदान करने पर जोर दिया। यह सिफारिश ग्रामीण विकास के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई।
5. शिक्षक प्रशिक्षण और शिक्षा में सुधार:
मुदालियर आयोग ने शिक्षक प्रशिक्षण और शिक्षकों की स्थिति में सुधार पर भी जोर दिया। इसके तहत, शिक्षकों को निर्देशन और कैरियर विकास की व्यवस्था करने के सुझाव दिए गए, ताकि वे छात्रों को अधिक प्रभावी तरीके से शिक्षा दे सकें। इसके परिणामस्वरूप, शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में सुधार हुआ और शिक्षकों की कार्यशक्ति में वृद्धि हुई।
6. शिक्षा में मूल्यांकन और परीक्षा प्रणाली:
आयोग ने परीक्षा प्रणाली में भी सुधार की सिफारिश की, जिससे आंतरिक मूल्यांकन और प्रतीकात्मक मूल्यांकन को महत्व दिया गया। इसके अलावा, निबंधात्मक परीक्षाओं के स्वरूप में परिवर्तन करने की सिफारिश की गई, जिससे छात्रों के मूल्यांकन को पूर्णत: संरचित और वास्तविक बनाया जा सके। इसके परिणामस्वरूप, परीक्षा और मूल्यांकन प्रणाली में अधिक पारदर्शिता और समझदारी आई।
7. समाज में समानता और समावेशन:
मुदालियर आयोग ने समाज में समानता की दिशा में भी कदम बढ़ाए। आयोग ने विकलांग बच्चों के लिए शिक्षा की विशेष व्यवस्था, बालिकाओं के लिए गृहविज्ञान जैसे विषयों की अनिवार्यता और ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों के लिए विशेष योजनाओं की सिफारिश की। इसके कारण, भारतीय शिक्षा प्रणाली में समाज के विभिन्न वर्गों के लिए समावेशी और समान अवसर प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए गए।
8. राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पहचान:
आयोग ने राष्ट्रीयता और एकता को बढ़ावा देने के लिए प्रादेशिक और राष्ट्रीय भाषाओं को विशेष बल दिया। इससे छात्रों में राष्ट्र प्रेम और सांस्कृतिक पहचान का विकास हुआ। साथ ही, यह शिक्षा प्रणाली को समाजवादी दृष्टिकोण और सामाजिक समानता के साथ जोड़ने में सहायक हुआ।
निष्कर्ष:
मुदालियर आयोग का प्रभाव भारतीय शिक्षा प्रणाली में महत्वपूर्ण और गहरा था। इसके द्वारा दी गई सिफारिशों ने शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, परीक्षा प्रणाली, और शिक्षक प्रशिक्षण के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बदलाव किए। आयोग ने भारतीय समाज की विविधताओं और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा को अधिक समावेशी, लचीला और व्यावहारिक बनाया। इसका प्रभाव आज भी भारतीय शिक्षा प्रणाली में देखा जा सकता है।
इन सुधारों ने भारतीय माध्यमिक शिक्षा को न केवल सशक्त किया, बल्कि इसे राष्ट्रीय विकास और समाज के उत्थान के लिए एक प्रभावी साधन बना दिया।
माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग) का मूल्यांकन
भारतीय शिक्षा व्यवस्था के इतिहास में माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) जिसे मुदालियर आयोग के नाम से जाना जाता है, का एक विशिष्ट और क्रांतिकारी स्थान है। यह आयोग स्वतंत्र भारत में माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन की दिशा में पहला ठोस प्रयास था। आयोग ने शिक्षा की गुणवत्ता, पाठ्यक्रम की विविधता, तकनीकी शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, और छात्रों के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए कई दूरदर्शी और व्यावहारिक सुझाव दिए।
प्रमुख सिफारिशें और उनका महत्व:
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शिक्षा के उद्देश्यों का पुनर्निर्धारण:
आयोग ने सुझाव दिया कि शिक्षा केवल डिग्री प्राप्त करने का साधन न होकर, देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली होनी चाहिए। इससे शिक्षा राष्ट्रनिर्माण का एक सशक्त माध्यम बन सकेगी। -
पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण:
सभी छात्रों को एक समान पाठ्यक्रम में बाँधने के बजाय उनकी रुचियों और क्षमताओं के अनुसार विभिन्न पाठ्यक्रम उपलब्ध कराने की बात कही गई। इससे शिक्षा अधिक समावेशी और व्यावहारिक बनती है। -
बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना:
आयोग ने यह विचार प्रस्तुत किया कि विद्यालयों को केवल शैक्षणिक केंद्र न बनाकर, उन्हें तकनीकी, व्यावसायिक और सामान्य शिक्षा का समन्वय स्थल बनाया जाए। -
व्यावसायिक मार्गदर्शन और परामर्श की व्यवस्था:
छात्रों को उनके कैरियर चयन में सहायता देने के लिए विद्यालयों में काउंसलिंग और गाइडेंस सेवा की आवश्यकता पर बल दिया गया। -
कृषि शिक्षा की अनिवार्यता:
भारत एक कृषि प्रधान देश है, इस दृष्टि से आयोग ने विद्यालयों में कृषि शिक्षा को अनिवार्य बनाने की बात कही, ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि का वैज्ञानिक विकास हो सके। -
तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा का विकास:
आयोग ने उद्योग और व्यवसाय के लिए कुशल मानव संसाधन तैयार करने हेतु तकनीकी विद्यालयों और संस्थानों की स्थापना की सिफारिश की। -
परीक्षा प्रणाली में सुधार:
आयोग ने कहा कि वर्तमान परीक्षा प्रणाली rote learning (रटंत पद्धति) को प्रोत्साहित करती है। इसलिए परीक्षा प्रणाली को अधिक व्यावहारिक और जीवनोपयोगी बनाया जाना चाहिए। -
शिक्षकों की स्थिति में सुधार और प्रशिक्षण:
अच्छी शिक्षा के लिए अच्छे शिक्षक आवश्यक हैं। इसलिए शिक्षक प्रशिक्षण, सेवा शर्तों में सुधार और सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण:
हालाँकि मुदालियर आयोग ने कई महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं, फिर भी कुछ बिंदुओं पर इसकी आलोचना की गई:
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तीन भाषा फार्मूला:
छात्रों पर तीन भाषाएँ थोपने से उनका बोझ बढ़ा और व्यवहार में इसका समुचित क्रियान्वयन नहीं हो पाया। -
स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में कमी:
महिला शिक्षा को लेकर आयोग की सिफारिशें अपर्याप्त थीं। जबकि स्वतंत्र भारत में महिलाओं की शिक्षा एक महत्वपूर्ण आवश्यकता थी। -
सिफारिशों का आंशिक क्रियान्वयन:
आयोग की कई सिफारिशें केवल कागज़ों तक सीमित रह गईं और उन्हें व्यावहारिक रूप से लागू करने में सरकार विफल रही।
मुदालियर आयोग (माध्यमिक शिक्षा आयोग) की प्रमुख विशेषताएँ
माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) जिसे आमतौर पर मुदालियर आयोग कहा जाता है, ने भारतीय माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के उद्देश्य से अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिए। इसके द्वारा प्रस्तुत सिफारिशें न केवल व्यवहारिक थीं, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक संतुलित और बहुआयामी शिक्षा प्रणाली की नींव रखी।
नीचे मुदालियर आयोग की प्रमुख विशेषताएँ दी गई हैं:
1. बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना:
मुदालियर आयोग ने यह सुझाव दिया कि छात्रों की विभिन्न रुचियों, क्षमताओं और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए विद्यालयों को बहुउद्देशीय बनाया जाए। इस व्यवस्था में छात्रों को सामान्य शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी, व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा प्राप्त करने का अवसर भी दिया जाए।
🔹 लाभ: इससे छात्रों को रोजगारोन्मुख शिक्षा मिलेगी और औद्योगिक विकास को भी बढ़ावा मिलेगा।
2. कृषि शिक्षा को प्राथमिकता:
भारत एक कृषि प्रधान देश है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आयोग ने विद्यालयी स्तर पर कृषि शिक्षा को अनिवार्य बनाने की सिफारिश की। इसका उद्देश्य ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्रों को व्यावहारिक कृषि ज्ञान प्रदान करना था, जिससे वे कृषि को आधुनिक तकनीकों के साथ अपना सकें।
🔹 विशेष महत्व: इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी और युवा पीढ़ी खेती को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनाएगी।
3. भाषाई विविधता और राष्ट्रीय एकता:
आयोग ने मातृभाषा, प्रादेशिक भाषा और राष्ट्रभाषा (हिंदी) को शिक्षा का माध्यम बनाने की सिफारिश की। तीन-भाषा फॉर्मूला के माध्यम से उन्होंने भाषाई संतुलन के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक समन्वय पर बल दिया।
🔹 प्रभाव: इससे छात्रों में राष्ट्रभक्ति, सांस्कृतिक जागरूकता और समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना विकसित होती है।
निष्कर्ष:
मुदालियर आयोग की ये विशेषताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि आयोग ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को केवल किताबी ज्ञान तक सीमित न रखते हुए, उसे जीवनोपयोगी, व्यावहारिक और राष्ट्रहितकारी बनाने का प्रयास किया। आयोग की दूरदृष्टि ने माध्यमिक शिक्षा को एक नई दिशा और आयाम देने का कार्य किया।
मुदालियर आयोग के उद्देश्य, माध्यमिक शिक्षा आयोग के उद्देश्य
I. माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य:
मुदालियर आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य को प्रजातांत्रिक राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप स्थापित किया। आयोग ने निम्नलिखित चार प्रमुख उद्देश्यों को प्राथमिकता दी:
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जनतांत्रिक नागरिकता का विकास:
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माध्यमिक शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य छात्रों में नैतिक और सामाजिक मूल्य विकसित करना था। इसके तहत, बच्चों में सांस्कृतिक परंपराओं का ज्ञान, स्वच्छता, सामूहिक भावना, सहिष्णुता, सहयोग और अनुशासन जैसे गुणों का विकास सुनिश्चित किया गया।
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व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास:
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साहित्यिक, कलात्मक और सांस्कृतिक गुणों को बढ़ावा देने के लिए, छात्रों के सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास पर जोर दिया गया।
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व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि:
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छात्रों को उनके भविष्य के व्यावसायिक जीवन के लिए कुशलताएँ और क्षमताएँ प्रदान करने के लिए, व्यावसायिक शिक्षा का विकास करने का सुझाव दिया गया।
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नेतृत्व का विकास:
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जनतंत्र की सफलता के लिए उत्तम नेतृत्व आवश्यक है, इसलिए माध्यमिक शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों में नेतृत्व गुणों का विकास करना था।
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II. माध्यमिक शिक्षा का संगठनात्मक ढाँचा:
आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के संगठन में कई महत्वपूर्ण सुधारों की सिफारिश की:
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माध्यमिक शिक्षा की अवधि को सात वर्ष निर्धारित किया जाना चाहिए।
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इंटरमीडिएट कक्षा को समाप्त कर दिया जाए और उसे स्नातक शिक्षा से जोड़ दिया जाए।
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बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना की जाए, ताकि विभिन्न शैक्षिक क्षेत्रों की एक साथ पढ़ाई की जा सके।
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औद्योगिक शिक्षा के विकास हेतु बड़े उद्योगों पर कर लगाया जाए।
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गृह विज्ञान को माध्यमिक विद्यालयों में अनिवार्य विषय बनाया जाए।
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ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि शिक्षा को प्राथमिकता दी जाए।
III. माध्यमिक विद्यालयों का पाठ्यक्रम:
आयोग ने पाठ्यक्रम में सुधार की सिफारिश की, ताकि वह व्यावहारिक जीवन से अधिक जुड़ा हुआ हो:
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पाठ्यक्रम का वैविध्यपूर्ण और लचीला होना चाहिए, ताकि छात्रों को विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव प्राप्त हो सके।
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सह-संबंधित पाठ्यक्रम और मनोरंजनात्मक गतिविधियाँ छात्रों की पूरी विकास में सहायक हों।
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हायर सैकेंडरी पाठ्यक्रम में विविधता हो, ताकि छात्रों की रुचियों और योग्यताओं के अनुरूप शिक्षा प्राप्त हो सके।
IV. शिक्षण की प्रावैधिक विधियाँ:
आयोग ने शिक्षण विधियों को व्यावहारिक और मूल्यों के अनुरूप बनाने पर जोर दिया। इसे मूल्य आधारित शिक्षा कहा गया।
V. चरित्र-निर्माण की शिक्षा:
आयोग ने चरित्र-निर्माण को माध्यमिक शिक्षा का अहम हिस्सा माना। इसके लिए विद्यालयों में सभी कार्यक्रम छात्रों में चारित्रिक गुणों का विकास करने पर केंद्रित होने चाहिए।
VI. निर्देशन तथा परामर्श:
आयोग ने विद्यालयों में परामर्श और निर्देशन के प्रभावी तंत्र की सिफारिश की, ताकि छात्रों को व्यावसायिक और व्यक्तिगत मार्गदर्शन मिल सके।
VII. परीक्षा तथा शैक्षिक मूल्यांकन:
आयोग ने परीक्षा प्रणाली में भी सुधार की आवश्यकता पर बल दिया। इसे आंतरिक मूल्यांकन और प्रतीकात्मक मूल्यांकन पर आधारित करने का सुझाव दिया।
मुदालियर आयोग के गुण और दोष
मुदालियर आयोग (माध्यमिक शिक्षा आयोग) ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था में कई सुधारों के लिए सिफारिशें की थीं। इसके गुण और दोष दोनों थे, जो आज भी शिक्षा प्रणाली पर असर डालते हैं। आइए, इसे अधिक विस्तार से समझते हैं:
मुदालियर आयोग के गुण:
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समाज और राष्ट्रीयता को प्रोत्साहन:
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आयोग ने राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र प्रेम को बढ़ावा देने पर जोर दिया। इसके माध्यम से छात्रों में सामाजिक जिम्मेदारी, सहिष्णुता, और समाज के प्रति दायित्व का विकास किया गया।
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प्रादेशिक और राष्ट्रीय भाषाओं पर विशेष बल देने से राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन मिला और छात्रों में सांस्कृतिक पहचान का जागरण हुआ।
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व्यावसायिक शिक्षा का महत्व:
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आयोग ने व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा दिया, जिससे छात्रों को उनके भविष्य के व्यवसायों के लिए तैयार किया जा सके। खासकर कृषि, तकनीकी शिक्षा, गृह विज्ञान, और वाणिज्य जैसे क्षेत्रों में ध्यान केंद्रित किया।
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यह छात्रों को रोजगार के अवसर प्रदान करने और स्वतंत्र पेशेवर विकास की दिशा में मददगार साबित हुआ।
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पाठ्यक्रम में विविधता:
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आयोग ने पाठ्यक्रम में लचीलापन और विविधता की सिफारिश की, जिससे छात्रों को अपनी रुचियों और क्षमताओं के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। इससे छात्रों की शिक्षा में अधिक समायोजन और विकास संभव हुआ।
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मूल्य आधारित शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना, छात्रों में नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारियों का विकास करता है।
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शिक्षक प्रशिक्षण और सुधार:
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आयोग ने शिक्षक प्रशिक्षण पर बल दिया, ताकि शिक्षक अपने छात्रों को अच्छे से मार्गदर्शन दे सकें। निर्देशन और परामर्श का संस्थागत ढाँचा तैयार किया गया, जिससे छात्रों को अपने भविष्य के लिए सही मार्गदर्शन मिल सके।
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ग्रामीण और विकलांग छात्रों के लिए विशेष ध्यान:
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आयोग ने ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि और विकसित देशों की तरह तकनीकी शिक्षा पर जोर दिया। इसके अलावा, विकलांग बच्चों के लिए विशेष शिक्षा की व्यवस्था की सिफारिश की, जिससे उन्हें शिक्षा की मुख्यधारा में शामिल किया जा सके।
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मुदालियर आयोग के दोष:
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तीन भाषाओं का अध्ययन:
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आयोग ने छात्रों को तीन भाषाओं का अध्ययन अनिवार्य किया था, जिसमें एक विदेशी भाषा भी शामिल थी। यह सिफारिश अत्यधिक बोझ और अवास्तविक मानी गई, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां छात्रों के पास संसाधनों और समय की कमी थी।
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तीन भाषाओं का अध्ययन अधूरी शिक्षा और समय की बर्बादी के रूप में देखा गया।
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स्त्री शिक्षा के लिए कमी:
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आयोग की सिफारिशों में स्त्री शिक्षा के लिए पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। ग्रामीण इलाकों और समाज के निम्न वर्गों में बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने की आवश्यकता थी, जो उस समय आयोग द्वारा सही तरीके से नहीं समझा गया।
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ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों की कमी:
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ग्रामीण क्षेत्रों के लिए कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की गई थीं, जैसे कृषि शिक्षा और कुटीर उद्योगों पर ध्यान केंद्रित करना। हालांकि, इन योजनाओं के क्रियान्वयन में संसाधनों की कमी और अपर्याप्त प्रशिक्षण प्रमुख बाधाएँ बनीं।
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माध्यमिक शिक्षा के लिए अनुकूल वातावरण की कमी:
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आयोग ने बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना की सिफारिश की थी, लेकिन इसके लिए उचित संसाधनों और प्रशिक्षण की कमी ने इसे अधिक प्रभावी बनाने में विफल कर दिया। इसका परिणाम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के मामले में कुछ हद तक असफलता के रूप में सामने आया।
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शिक्षक-प्रशिक्षण प्रणाली में सुधार की कमी:
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हालांकि आयोग ने शिक्षक प्रशिक्षण पर ध्यान दिया, लेकिन शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रमों के क्रियान्वयन और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए प्रशिक्षण की प्रणाली पर काम की कमी रही। इससे शिक्षक पहले की तरह पुराने तरीकों से शिक्षण करते रहे।
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